Saturday, May 22, 2010

चिरकुट

अप्रैल के पहले हफ्ते में ही काफी गर्मी पडऩे लगी थी। सुबह से ही चलने वाली गर्म हवाएं पशु-पक्षियों और इंसानों को व्याकुल कर रही थीं। ग्यारह बजते-बजते सड़के जन शून्य हो जाती थीं। लोग मजबूरी में ही दोपहर को घर से निकलते थे। सुबह से ही कई कार्यक्रम निबटाने के बाद शिवाकांत दैनिक प्रहरी के दफ्तर पहुंचा, तो हांफ रहा था। स्कूटर स्टैंड पर खड़ा करने के बाद वह पहली मंजिल पर स्थित दफ्तर में पहुंचा, तो उसे राहत महसूस हुई। उसने अपनी कुर्सी पंखे के नीचे खिसकाई और कमीज के ऊपरी दो बटन खोलकर पसीना सुखाने लगा। थोड़ी देर बाद उसने कमरे में निगाह दौड़ायी। कोने में बैठी मंजरी उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। उसे अपनी ओर देखता पाकर उसने झट से अपनी कमीज के बटन बंदकर लिये। उसे अपनी ओर देखता पाकर उसमें खीझ पैदा हुई-'साली रंड़ी! आफिस में ऐसे सजकर आई है जैसे स्वयंवर रचाने आई हो।Ó
उसने मेज पर रखा पानी का गिलास उठाया और गटागट पी लिया। उस पर भी प्यास नहीं बुझी, तो उसने कोने में रखे जग से लेकर तीन गिलास पानी और पिया। उसने सोचा कि शीघ्रता से खबरें लिख ले, तो उसे अपनी स्पेशल स्टोरी पर काम करने का मौका मिल जायेगा। यही सोचकर शिवाकांत अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि चपरासी रामशरण ने आकर कहा, 'तिवारी जी आपको दो एक दफा पूछ चुके हैं। आप उनसे मिल लीजिए।Ó
शिवाकांत ने सरसरी निगाह रामशरण पर डालते हुए कहा, 'तुम चलो, मैं आता हूं।Ó'ठीक हैÓ कहकर रामशरण आगे बढ़ गया। शिवाकांत मेज पर रखी कलम को कमीज की जेब में खोंसते हुए बुदबुदाया, 'साले! काम ही नहीं करने देते। बाद में हौंकेेंगे....तुमने खबर इतनी देर से क्यों दी? तुम्हारे कारण अखबार देर से छूटा। समय-असमय बुलाकर अपने पास बिठाकर दरबार सजाओगे, तो कोई खबर समय पर क्या खाक लिखेगा। साला...दल्ला!Ó
शिवाकांत मरी सी चाल चलता हुआ समाचार संपादक प्रदीप तिवारी के चेंबर में पहुंचा। उसे आता देखकर तिवारी जी व्यस्त हो गये। यह उनकी पुरानी आदत थी। जब उन्हें अपना महत्व और किसी व्यक्ति की उपेक्षा करनी होती थी, तो वे उस व्यक्ति को बुलाकर सामने बिठा लेते और काफी देर तक व्यस्त होने का बहाना करते। सामने बैठा व्यक्ति ऊबकर कुछ पूछता, तो वे आंऽऽऽ...कहकर या तो फिर चुप्पी साध लेते या कह देते, 'बस थोड़ी देर रुको। अभी तुमसे बात करता हूं।Ó उन्होंने शिवाकांत को बैठने का इशारा किया और मेज पर रखा पुराना अखबार उठाकर पढऩे लगे। शिवाकांत कुछ देर तक उन्हें पढ़ता हुआ देखता रहा। फिर उसने पूछ लिया, 'भाई साहब! आप मुझे पूछ रहे थे?Ó
आंऽऽऽ....हांऽऽ.. कहकर तिवारी जी ने चौंकने का अभिनय किया। अखबार को मोड़कर एक तरफ रखते हुए उन्होंने शिवाकांत से पूछा, 'तो तुम कब जा रहे हो?Ó
'कहां जा रहा हूं....?Ó
'अरे वहीं....।Ó
'वहींकहां?Ó शिवाकांत ने प्रतिप्रश्न किया।
'वहींजहां तुम जा रहे हो?Ó
'मेरी तो समझ में नहींआ रहा है कि मैं कहां जा रहा हूं? अभी तो मैं कल ही सात दिन की छुट्टी के बाद लौटा हूं। अब मैं कहां जा रहा हूं, यह आप ही बता दें, भाई साहब!Ó, शिवाकांत खीझ उठा।
'सात दिन बाद लौटे हो, तभी तो पूछ रहा हूं कि कहां जा रहे हो?Ó, तिवारी जी अब भी खुलकर खेलने के मूड में नहीं थे। वे सोच रहे थे कि बिना कोई चाल चले ही सामने वाले को मात हो जाये, तो फिर बेकार में दिमाग खपाने से क्या फायदा। उन्हें अब इस शह और मात के खेल में मजा आने लगा था। वे चुप हो गये। उन्हें सामने वाली की चाल का इंतजार था।शिवाकांत समझ गया कि सामने बैठा समाचार संपादक उसे लपेटने के चक्कर में है। वह कुर्सी से उठता हुआ बोला, 'भाई साहब...आप लाल बुझक्कड़ी छोड़कर साफ-साफ बतायें कि मामला क्या है? वरना मैं चला...मेरे पास समय कम है और कई खबरें लिखनी है।Ó
तिवारी जी के पास अब खुलकर खेलने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहींबचा था। उन्होंने सामने झुककर खड़े शिवाकांत की बड़ी और गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, 'देखो शिवाकांत! दाई से पेट नहीं छिपाया जाता। अगर तुम्हें जाना है, तो जाओ। लेकिन मर्दों की तरह...यह क्या बात हुई कि मां की बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी ली और पहुंच गये दिल्ली...जनसत्ता के दफ्तर में नौकरी मांगने। तुम क्या समझते हो, मुझे खबर नहीं होगी। मेरे भी सूत्र जनसत्ता के दफ्तर में हैं। मुझे तो यहां तक मालूम है कि तुम्हारी कब और किससे क्या-क्या बातें हुईं?Ó
अब यह सब कुछ शिवाकांत के लिए असह्यï हो उठा। क्रोधातिरेक में उसकी कनपटी लाल हो गयी। उसने भभके स्वर में कहा, 'तिवारी जी, एक बात आपको साफ-साफ बता दूं। आप दाई हों, तो हों। लेकिन मैं गर्भवती हो भी नहींसकता। जहां तक दैनिक जनसत्ता के दफ्तर में जाने की बात है, तो मैं वहां पिछले कई महीने से गया ही नहीं। वैसे आपके सामने स्पषटीकरण पेश करने की मुझे कतई आवश्यकता नहींहै। लेकिन फिर भी आपको बता दूं कि दैनिक जनसत्ता के दफ्तर में पहले भी आता-जाता रहा हूं, आगे भी आता-जाता रहूंगा। आपसे जो करते बने, कर लीजिएगा।Ó
इतना कहकर शिवाकांत मुड़ा और समाचार संपादक के चेंबर से बाहर आ गया। वह अपनी सीट पर पहुंचा, तब तक स्थानीय डेस्क के सभी संवाददाता आ चुके थे। अमितेश रावत, आदित्य सोनकर, दिवाकर शुक्ल अपनी खबरें लिखने में व्यस्त थे। स्थानीय डेस्क के इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी या तो आए नहींथे या हमेशा की तरह कहीं बैठे निंदा रस के आस्वादन में व्यस्त होंगे। डा. दुर्गेश पांडेय अपनी बीट के जूनियर साथी राजेंद्र शर्मा को ज्ञान दे रहे थे, 'तुम अपनी आदतें सुधार लो, वरना बहुत ज्यादा दिन नौकरी नहींकर पाओगे। मैं तो तुमसे तंग आ गया हूं।Ó
'आखिर मुझसे गलती क्या हुई? यह तो बताएंगे, सर!Ó राजेंद्र शर्मा ने असमंजस भरे स्वर में कहा। दरअसल उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी बीट का इंचार्ज उसे 'हौंकÓ क्यों रहा है। राजेंद्र शर्मा को दैनिक प्रहरी से जुड़े अभी कुछ ही महीने हुए थे। इससे पहले वह एक साप्ताहिक 'जमानाÓ का प्रतिनिधि रह चुका था। पत्रकारिता जगत के इस नवप्रशिक्षु पत्रकार में संभावनाएं कुछ अधिक हैं, इसका अंदाजा दुर्गेश को हो चुका था। पिछले सत्रह साल से दैनिक प्रहरी मं शिक्षा संवाददाता के रूप में जमे दुर्गेश अब तक कई संभावनाशील पत्रकारों का 'कामÓ लगा चुके थे। संपादक से लेकर अखबार के मालिक तक सबके प्रिय थे। दुर्गेश पांडेय अपने लिए 'डाक्टर साहबÓ कहलवाना पसंद करते थे।