Friday, November 12, 2010

पोसम्पा भाई पोसम्पा

-अशोक मिश्र
‘पोसम्पा भाई पोसम्पा
डाकिये ने क्या किया?
सौ रुपये की घड़ी चुराई
अब तो जेल में जाना पड़ेगा
जेल की रोटी खानी पड़ेगी...’
किसने रचा था यह गीत। कम से कम मुझे तो नहीं मालूम। लेकिन जिसने भी रचा होगा, वह बाल मनोविज्ञान का धुरंधर रहा होगा। यह गीत बाद में किस तरह बच्चों के खेल में शामिल हो गया, इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। आज भी जब बच्चों के मुंह से इस गीत को सुनता हूं, इसकी उपादेयता के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कितनी खूबसूरती से इस गीत के माध्यम से बच्चों को अपराध से दूर रहने और अपराध करने पर मिलने वाले दंड के प्रति जागरूक किया गया है। जिन दिनों यह गीत रचा गया होगा, उन दिनों सौ रुपये की कीमत कम नहीं रही होगी। तब डाकिया समाज का एक सम्मानित पात्र हुआ करता था, जो लोगों के सुख-दुख के समाचार लेकर उनके बीच जाता था। समाज में उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी। सरकारी कर्मचारी होने के बाद भी उसके जेल जाने से बचने की कोई गुंजाइश बच्चों को नहीं दिखायी देती। जो बच्चे इस गीत को गाकर खेलते हुए बड़े हुए हैं, उनमें न्यायिक व्यवस्था के प्रति आस्था देखने को मिल जाती है। ‘अब तो जेल में जाना पड़ेगा’ इन पंक्तियों में बच्चों का न्यायिक प्रक्रिया के प्रति विश्वास की एक झलक मिलती है।

दो दशक पहले और आज के खेलों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि एक से सामूहिकता का विकास होता है, दूसरे से बच्चा समाज से कटता जाता है। टीवी और कंप्यूटर युग से पहले बच्चे अपने भाई-बहनों ( चचेरे-मौसेरे, ममेरे) के अलावा मोहल्ले के लगभग सभी बच्चों के साथ खेलते थे। इस दौरान वे ऐसे भी खेल खेलते थे जिनमें दो पक्ष होते थे। संयोग से जिस बच्चे के साथ एक दिन पहले किसी बच्चे की खूब लड़ाई हुई होती थी और वह बच्चा आज अपने पक्ष में होता था, तो वह बच्चा कल की लड़ाई को भूल जाता था। उसे सिर्फ इतना याद रहता था कि फलां अपने पक्ष का खिलाड़ी है और उसकी हार अपनी हार है। एक दिन पहले न बोलने की कसम खाने वाला बच्चा खेल के दौरान चिल्लाता है, ‘सुरेश...भाग...’ और खेल के बाद दोनों फिर पहले की तरह दोस्त हो जाते थे। इन खेलों की यही विशेषता थी। यदि किसी कारणवश दो बच्चे झगड़ भी पड़े, तो ज्यादा समय तक उन दोनों में ‘अबोला’ नहीं रह सकता था क्योंकि उन्हें खेलना है, तो उन्हीं बच्चों के बीच।इन खेलों के दौरान बच्चे में नेतृत्व और सामंजस्य की भावना और क्षमता का विकास होता था। वे रिश्तों की परिधि में रहकर रिश्तों की मर्यादा के प्रति जागरूक होने की शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्हें उम्र के लिहाज से संबोधन करना सिखाया जाता था। ‘हां... तुमसे चार महीने बड़ा है...तुम उसे भइया या दादा नहीं कह सकती।’ अकसर माएं अपनी बेटियों को अपने हमउम्र साथी को नाम लेकर पुकारते देख टोक दिया करती थीं। मोहल्ले की लड़कियां या तो दीदी होती थीं या बुआ, मौसी। लड़के भी इन्हीं रिश्तों के पाये से बंधे रहते थे। ऐसे में छेड़छाड़ या अवैध संबंध की गुंजाइश कम रहती थी। संबंधों की मर्यादा इनमें आड़े आ जाती थी।

ऐसा नहीं है कि इन खेलों को खेलने वाले ज्यादातर लड़के पढ़ते नहीं थे, या उनकी मेधा में विकास नहीं होता था। उनके मां-बाप तब भी उनकी पढ़ाई को लेकर चिंतित रहा करते थे। लड़के-लड़कियां एक निश्चित समय तक खेलने के बाद घर आ जाते थे। आज स्थितियां काफी भिन्न हैं। बच्चे घर से स्कूल, ट्यूशन के लिए निकलते हैं। बाकी समय वे घर में रहकर ही कंप्यूटर, वीडियो गेम्स खेलते हैं। अगर घर में इंटरनेट कनेक्शन हो, तो फिर चैटिंग करते हैं, अश्लील फिल्में देखते हैं।

ऐसा सभी बच्चे करते हैं यह भी नहीं कहा जा रहा है, लेकिन ऐसे बच्चों का जो प्रतिशत है, वह चिंताजनक है। यह समाज के हित में कतई नहीं है। सामाजिकता के अभाव में न तो अच्छे नागरिक बन पा रहे हैं और न ही अच्छे बेटे-बेटियां। घर में अकेले रहकर असमय कुंठित और तनावग्रस्त रहने वाले बच्चे बड़े होकर अच्छे मां-बाप भी नहीं बन पाते। एकल परिवार के उदय ने समाज को और कुछ अहित किया हो या नहीं, लेकिन एकल परिवार ने बच्चों को आत्मकेंद्रित अवश्य बना दिया है। आत्मकेंद्रित बच्चा अपने सिवा किसी और के विषय में सोच ही नहीं पाता। ऐसे बच्चे जब अपराध की ओर मुड़ते हैं, तो वे कई बार ऐसे अपराधों को अंजाम देते हैं कि उसे पढ़-सुनकर रोयें खड़े हो जाते हैं। बच्चों के प्रति जागरूकता अच्छी बात है,लेकिन जब जागरूकता बच्चे के विकास में बाधा बन जाये, तो वह उसके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं होती है। बच्चों का स्वाभाविक विकास होता रहे, इसके लिए जरूरी है कि उन पर निगाह रखी जाये, लेकिन उन्हें टोका न जाये। अगर लगे कि बच्चा गलत मार्ग पर जा रहा है, उस पर अंकुश लगाने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन उसे प्रताड़ित कदापि नहीं किया जाना चाहिए। इससे बच्चे में हठधर्मी हो जाती है।

1 comment:

  1. Bahut sahi kaha. baal geeto, khelo ko mahaz manoranjan samajhne wale shayad ise padhkar kuchh samjh jayen.

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