Saturday, February 19, 2011

हाय राम...लोकतंत्र मर गया

अशोक मिश्र

उस्ताद मुजरिम के साथ मैं राजधानी दिल्ली की खाक छान रहा था। इन दिनों मैं बेकार जो था। कुछ दिन पहले ही दैनिक ‘दमदम टाइम्स’ की नौकरी से इस्तीफा दिया था। मुजरिम की सलाह थी कि सड़कों की खाक छानने से नए-नए विचार दिमाग रूपी गटर से निकलते हैं और किसी भी आदमी की तकदीर बदल देते हैं। सो, हम दोनों सुबह की एक चाय की बदौलत आधी दिल्ली की खाक छान आए थे। दिमाग के गटर से आइडिये के बगूले तो नहीं फूटे, लेकिन पांच घंटे पैदल चलते-चलते टांगों की कचूमर जरूर निकल गई। मुझे तो लग रहा था कि अगर अब दो कदम भी चलना पड़ा, तो गश खाकर गिर पड़ूंगा। वहीं उस्ताद मुजरिम थे कि किसी जिराफ की तरह लंबे डग भरे चले जा रहे थे। एक चौराहे पर भीड़ देखकर ‘या इलाही ये माजरा क्या है?’ की तर्ज पर हम दोनों उधर ही लपके। मैंने देखा कि सड़क के बीचोबीच एक लाश पड़ी है और पुलिस के कुछ सिपाही उसके पास खड़े अपने बाप...सॉरी...अपने अधिकारी का इंतजार कर रहे हैं। वहां खड़ी भीड़ अपना सनातन धर्म निभा रही थी यानी कानाफूसी कर रही थी।
मैंने एक आदमी से पूछा, ‘शिनाख्त हुई? किसकी लाश है यह? पुलिस कुछ करती क्यों नहीं?’

उस आदमी ने परमहंसी मुद्रा में जवाब दिया, ‘अभी तक तो नहीं हो पाई है। आप भी देख लें, क्या पता आपका ही कोई परिचित निकल आए। वैसे आपको बता दें, पुलिस अपना काम कर रही है। भीड़ में से एक ऐसे आदमी की तलाश जारी है जिसको बलि का बकरा बनाया जा सके। वह आदमी आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं। इस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति पुलिसवालों की निगाह में सिर्फ बकरा है जिसे जब चाहे, जहां चाहे हलाल किया जा सकता है।’ वह आदमी रौ में बकता जा रहा था।

तब तक मुजरिम भीड़ को चीरकर लाश के पास पहुंच चुके थे। लाश पर नजर पड़ते ही वह चिल्लाए, ‘अरे! यह तो लोकतंत्र है! हाय राम...यह क्या हो गया?...लोकतंत्र मर गया?’

मुजरिम की बात सुनते ही पुलिस वाले चौंके। एक सिपाही ने तंबाकू थूकते हुए पूछा, ‘अबे! तू जानता है इसे? चौबे जी, एक प्रॉब्लम तो इस ससुरे ने साल्व कर दी।’ पुलिस वाले ने चौबे जी को पास आने का इशारा किया।
मुजरिम रुआंसे हो गए, ‘हां साब! मैं शिनाख्त कर सकता हूं इसकी। यह लोकतंत्र है...भारतीय लोकतंत्र...दुनिया का सबसे बड़ा किंतु किसी कोढ़ के रोगी की तरह सड़ांध मारता हमारा प्यारा लोकतंत्र।’

‘क्या बकते हो’ कहकर पुलिस वाले ने मुजरिम का कॉलर पकड़ लिया, ‘जिस लोकतंत्र की सुरक्षा का भार ‘चार कंधों’ पर हो, वह इस तरह लावारिस मर जाए, यह हमारे लिए शर्म की बात है।’

मुजरिम ने अपना कॉलर छुड़ाते हुए कहा, ‘आप चारों की वजह से ही तो परेशान था यह! आप में से जिसे भी जब मौका मिलता था, दबोच लेते थे और वह सब कुछ कर डालते थे, जो नहीं करना चाहिए। बेचारा साठ साल में ही सात सौ साल का लगने लगा था। इधर कुछ दिनों से तो बहुत परेशान था।’

पुलिस वाले ने जमीन पर डंडा फटकारते हुए कहा, ‘साफ-साफ बता, बात क्या है? पहेलियां बूझने की न तो अपनी आदत है और न ही यह भाषा अपने पल्ले पड़ती है। डंडे की भाषा जानता हूं और यह समझाना जानता हूं। कहे तो समझाऊं?’

पुलिस वाले के तेवर देखकर मुजरिम के होश उड़ गए। उन्होंने खुशामदी लहजा अख्तियार करते हुए कहा, ‘साब! जब से कुछ सांसदों ने सवाल पूछने के नाम पर रोकड़ा मांगा था, तब से लोकतंत्र परेशान था। अपनी करतूतों से जितनी बार लोकतंत्र के चारों स्तंभ दुनिया के सामने नंगे हो जाते थे, जितनी बार भारतीय राजनीति दागदार होती थी, उतने दाग इसके शरीर पर उभर आते थे। साब, आपको विश्वास न हो, तो इसकी कमीज उलटकर देख लें। इसकी पीठ और पेट पर घोटालों और शर्मनाक कांडों के निशान मिल जाएंगे।’

मुजरिम अपनी बात कह ही रहे थे कि पुलिस की एक जीप आकर भीड़ के पास रुकी। उसमें से एसएचओ और कुछ सिपाही उतर कर भीड़ को लाश के आसपास से हटाने लगे। पहले से मौजूद एक सिपाही ने एसएचओ को जोरदार सल्यूट मारते हुए कहा, ‘मृतक की शिनाख्त हो चुकी है। यह आदमी इसे लोकतंत्र बताता है। बाकी आप दरियाफ्त कर लें, हुजूर।’

थानेदार ने पहले तो ऊपर से नीचे तक पुलिस को निहारा और फिर कड़क कर कहा, ‘तू क्या बेचता है और कैसे कह सकता है कि यह लोकतंत्र है? जिस लोकतंत्र की रक्षा में देश-प्रदेशों के सांसद, विधायक, सत्तारूढ़ और गैर सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता, अफसर लगे हुए हों। पूरा का पूरा पुलिस महकमा लगा हुआ हो, वह लोकतंत्र इस तरह सड़क पर लावारिस मरा हुआ पाया जाए, यह कैसे हो सकता है?’

मुजरिम ने थूक निगलते हुए कहा, ‘हुजूर! मैं कुछ बेचता नहीं, एक मामूली पाकेटमार हूं। मेरा और आपका पेशा लगभग एक जैसा है। जिस काम को आप बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से करते हैं, वही काम मैं छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से करता हूं। आप इस काम की पगार लेते हैं, जबकि मैं अगर यह करता पकड़ा जाऊं, तो पब्लिक से लेकर पुलिसवालों तक के जूते खाता हूं। अब तो आप जान ही गए होंगे कि मेरा नाम मुजरिम है।’
इतना कहकर मुजरिम सांस लेने के लिए पल भर को रुके। फिर बोले, ‘इस लोकतंत्र से मेरी पुरानी यारी रही है। हम दोनों एक दूसरे के लंगोटिया यार थे। मजे की बात तो यह है कि हम दोनों की पैदाइश भी एक ही दिन की है। मेरी मां ‘व्यवस्था’ बताती हैं कि जिस समय मैं पैदा हुआ था, खूब हट्टा-कट्टा था, लेकिन यह तो जन्म से ही लंगड़ा था। कहते हैं कि अंग्रेजों और देसी पूंजीपतियों से इसके ‘बापू’ बड़ी सहानुभूति रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि विद्रोहिणी क्रांति कोई ऐसा बच्चा जने, जो इन दोनों यानी बापू और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो। इसलिए ‘बापू’ ने गर्भवती ‘क्रांति’ के पेट पर लात मारकर गर्भ गिरा दिया था। बाद में पता नहीं कैसे क्रांति की सौतेली बहन व्यवस्था के गर्भ से यह लंगड़ा लोकतंत्र पैदा हो गया। अंग्रेज पूंजीपतियों ने हम जैसों का खून चूसकर इसको पाला-पोसा। काले बनियों ने बैसाखी के सहारे चलना सिखाया। इसीलिए यह काले बनियों का मुरीद बनकर रह गया। काले बनियों पर जब भी कोई मुसीबत आती, यह डेढ़ टांग पर खड़ा होकर अपनी साजिशी तान देने लगता था। साब! मजाल है, कोई मुसीबत इसकी जानकारी में बनियों का कुछ बिगाड़ सके। यह तो बातचीत के दौरान अक्सर कहा करता था। बनिये इस देश के भाग्यविधाता हैं। भाग्य विधाता का हित सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता के हित असुरक्षित रहें। उनका भरपूर शोषण होता रहे।

तभी एसएचओ ने अपनी आंख पर चढ़ा काला चश्मा उतार कर लाश का मुआयना करना शुरू किया। कमीज उलटकर लाश के पास बने एक पैदायशी निशान को गौर से देखते हुए कहा, ‘हवलदार रामधनी, नोट करो। मृतक की कमर से दो इंच नीचे एक पैदायशी निशान है।’

‘हां साब, यह निशान जीप घोटाले का है।’ मुजरिम ने एसएचओ की बात काटते हुए कहा, ‘हुजूर! आप तो जानते ही होंगे, देश का सबसे पहला घोटाला ही जीप घोटाला था। तब यह पैदा नहीं हुआ था। हां, व्यवस्था के गर्भ में भ्रूण रूप में जरूर आ चुका था। उस समय तब देश पर अंग्रेजों का शासन था। लेकिन उस घोटाले के पैदायशी निशान इसकी कमर पर उभर आए थे। इसके बाद देश आजाद हो गया। कुछ दिन तक सत्ताधीशों ने चना-चबैना खाकर दिन काटे, लेकिन एक मंत्री से बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने आजाद भारत का पहला घोटाला किया। इस घोटाले का निशान आपको लोकतंत्र के ठीक दिल के पास दिख ही गया होगा। इसके बाद मंत्री, सांसद, विधायक और अधिकारी मरभुक्खों की तरह लोकतंत्र पर टूट पड़े और लूट-लूट कर खाने लगे। फिर क्या था। जैसे-जैसे घोटाले बढ़ते गए। लोकतंत्र के शरीर पर दाग बढ़ते गए। जितना बड़ा घोटाला, उतने बड़े दाग। लोकतंत्र का चेहरा ही बदरंग हो गया। साब, एक बात बताऊं! हर घोटाले पर इसकी आत्मा कराह उठती थी। कई बार तो मैंने इसे बिलख-बिलखकर रोते देखा था।’
एसएचओ ने रोब झाड़ते हुए कहा, ‘अबे! तू फालतू की राम कहानी छोड़। सबसे पहले तो तू यह बता, यह मरा कैसे?’

मुजरिम एसएचओ की बात सुनकर सिटपिटा गए, ‘साब! मैं यह कैसे बता सकता हूं। म ैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूं। आप लाश का पंचनामा बनाइए, पोस्टमार्टम के लिए भेजिए। कल तक आपको सब पता चल जाएगा। हां, इतना बता सकता हूं...कल रात य मेरे पास आया था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। बीच-बीच में आदर्श..आदर्श... कामनवेल्थ, राडिया-राजा जैसा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर बोला कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा। इतना कहकर लोकतंत्र कहीं चला गया था। मैंने समझा कि घर गया होगा। आज सुबह यहां इसकी लाश देखी। मेरा ख्याल है कि यह शर्म से मर गया है।’

पास खड़ा एक सिपाही अपने एसएचओ के कान में फुसफुसाया, ‘साब! मुझे तो यही कातिल लगता है।’ और फिर मुजरिम लोकतंत्र की हत्या के जुर्म में धर लिए गए। मैंने चुपचाप वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी।

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