Monday, June 27, 2011

हाईवे पर 'रामदेव' ढाबा

-अशोक मिश्र

पिछले काफी दिनों से पता नहीं क्यों विरक्ति का भाव मन में पैदा हो रहा था। बाबा होने का ख्याल मन में घर करता जा रहा था। वैसे भी बाबाओं के ठाट-बाट देखकर मुझे बाबा होना कोई बुरा नहीं लग रहा था। बाबा तो मैं तब भी बनना चाहता था, जब छबीली से टांका भिड़े दो साल हो गए थे और छबीली का बाप अपनी बेटी का हाथ मुझे सौंपने को तैयार नहीं हो रहा था। अपनी विरक्ति और बाबा बनने की बात छबीली को बताई तो वह उछल पड़ी, 'वाह गुरु! क्या आइडिया सूझा है तुम्हें। तुम बाबा बनो और मैं तुम्हारी चेलिन।'

मैंने डपटते हुए कहा, 'खबरदार! जो तुमने मेरे साथ सटने का प्रयास किया। जब मैं तुम्हारे पीछे पागल बना घूम रहा था, तब तो तुम अपने बाप के पाले में बैठी चोर-सिपाही का गेम खेल रही थी। अब जब मैं भगवान से लौ लगाने जा रहा हूं, तो मेनका बनकर मेरा तप भंग करना चाहती है। तुझे किस आधुनिक इंद्र ने मेरे पीछे लगा दिया है।'
'ओए...बाबा की दुम! अन्ना हजारे की तरह ज्यादा भाव मत खा। थोड़ा-सा मुंह क्या लगा लिया, अपने को रामदेव समझने लग पड़ा। मैं तो तेरे साथ क्या, तेरी ही गाड़ी में हरिद्वार तक जाऊंगी। देखती हूं, तू मेरा क्या बिगाड़ लेता है।' अब छबीली अपनी औकात में आ गई थी। छबीली जब भी अपनी औकात में आती है, मैं अपनी औकात भूल जाता हूं।

सो, मैंने हथियार रखते हुए कहा, 'ठीक है। मेरे साथ चल, लेकिन मेरी प्रमुख चेलिन तू नहीं बनेगी... हां।'
बात तय हो गई। मैंने अपने पड़ोस में रहने वाले लंगोटिया यार मुसद्दीलाल को पकड़ा और उनकी गाड़ी लेकर हरिद्वार के लिए निकल पड़ा। निकलते समय सोचा था कि यदि अपनी वहां कोई सेटिंग हो गई, तो बाबा बन जाऊंगा। यदि कोई सेटिंग नहीं हुई, तो घूम-फिरकर लौट आऊंगा। हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गई। भूख काफी तेज लग आई थी। छबीली के पेट में तो चूहों ने बाकायदा पोस्टर-बैनर लेकर अनशन शुरू कर दिया था। गाड़ी रफ्तार में भागी चली जा रही थी कि एकाएक छबीली जोर से चिल्लाई, 'रोको...गाड़ी रोको...!'

ड्राइवर ने हड़बड़ाकर गाड़ी रोक दी। मैंने देखा कि दायीं तरफ एक ढाबा था। ढाबे का नाम था 'रामदेव ढाबा।' मैं चौंक गया। मेरे मन में एक संदेह ने सिर उठाया कि कहीं यह ढाबा अपने योगगुरु स्वामी जी का कोई नया वेंचर तो नहीं है। छबीली गाड़ी रुकते ही लपककर फाइव स्टार होटल से भी ज्यादा आलीशान ढाबे पर पहुंची और रिसेप्शन के सामने रखे कीमती सोफे पर ढह गई। रिसेप्शन पर बैठी बाला के अलौकिक सौंदर्य को देखकर मैं दहशत में आ गया। मन ही मन 'राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवनसुत नामा' का जाप कर मन में उठ रहे विकारों को दमित करने और 'साधु' बनने का प्रयास करते हुए कहा, 'माते! हम दोनों तुच्छ प्राणी बिभुक्षित (भूखे) हैं। हमें भक्षणार्थ को कुछ मिलेगा।'

उस बाला ने अमृतमयी वाणी में कहा, 'बिभुक्षित हो, तो पहले अपनी वासनाओं का भक्षण करो, विकारों को उदरस्थ करो। अपनी तृष्णाओं का पान करो। भूख मिट जाएगी।' रिसेप्शनिष्ट ने नहले पर दहला जड़ते हुए कहा। यह सुनते ही भूख से बिलबिला रही छबीली बौखला उठी। उसने चिघाड़ते हुए कहा, 'ओ साध्वी की बच्ची! यहां हमारे पेट में चूहे कूद रहे हैं और तू हमें ज्ञान पिला रही है। यह बता तेरे इस ढाबे में खाने को क्या-क्या है?'

मशीनी अंदाज में उस बाला ने बताना शुरू किया, 'योग कोफ्ता, योग पुलाव, लंबितासन रोटी, विलंबित नॉन, पल्टासन भुजिया, फ्राइड मकरासन दाल विद बटर, नैन-मटक्का चटनी....'

'बस...बस...यह तू खाने का आइटम बता रही है या किसी हेल्थ क्लब में सिखाये जा रहे आसनों की जानकारी दे रही है।' छबीली के दिमाग का पारा नीचे आने को तैयार ही नहीं था।

छबीली की बात सुनकर रिसेप्शनिष्ट ने शांत भाव से कहा, 'मैडम...यह हमारे ढाबे का मेन्यू है। यहां परोसे जाने वाले हर व्यंजन का एक औषधिय गुण है। यह आम ढाबे में परोसे जाने वाला खाना नहीं है। अब आप योग कोफ्ता को ही लें। इसे खाने से पहले व्यक्ति भले ही सन्नी देओल की तरह कहता फिरता रहा हो कि जब दस किलो का हाथ पड़ता है, तो आदमी उठता नहीं उठ जाता है। लेकिन योग कोफ्ता खाने के बाद व्यक्ति पुलपुला हो जाता है। अंदर से खाली, लेकिन बाहर से भरा हुआ दिखता है। पल्टासन भुजिया खाने वाली महिलाओं के सिर्फ बेटा ही होगा, इसकी गारंटी हमारा ढाबा लेता है। हमारे ढाबे की नैन मटक्का चटनी खाने से रूठी हुई प्रेमिका या पत्नी अपना गुस्सा थूककर मान जाती है।' मैंने हस्तक्षेप किया, 'आज की खास रेसिपी क्या है?'

'मंच कूद हलवा, सलवार-कुर्ता पहन खीर...' रिसेप्शनिष्ट ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

छबीली ने मेरा हाथ पकड़कर बाहर खींचते हुए कहा, 'भूख से भले ही मैं मर जाऊं। लेकिन इस ढाबे का पानी तक नहीं पीना है। चलो यहां से।' और मैं कटी पतंग के साथ लटकने वाली डोर की तरह छबीली के साथ खिंचता हुआ गाड़ी तक आया और छबीली ने धक्का देकर मुझे गाड़ी में ठूंसा और ड्राइवर से कहा, 'चलो...वापस चलो। हो गई संत और साध्वी बनने की इच्छा पूरी।' ड्राइवर ने गाड़ी वापस लौटा दी।

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