Tuesday, October 11, 2011

कहो फलाने अब का होई

-अशोक मिश्र

सुबह मार्निंग वॉक को निकला, तो सोचा कि उस्ताद मुजरिम से मिल लिया जाए। सो, वॉक से लौटते समय उनके ‘गरीबखाने’ पर पहुंच गया। मुझे देखते ही मुजरिम प्रसन्न हो गए और बोले, ‘आओ...आओ..बड़े मौके पर आए। तुम्हें अभी थोड़ी देर पहले ही याद कर रहा था। बात दरअसल यह है कि कविता की कुछ पंक्तियों का अर्थ मेरी समझ में नहीं आ रहा है। तुम काव्यप्रेमी हो। इसलिए संभव है कि तुम उसका अर्थ बता सको। कविता की लाइनें हैं ‘कहो फलाने अब का होई...। अब तौ छूटल घाट धोबिनिया, पटक-पटक कै धोई। कहो फलाने अब का होई...।’

उस्ताद मुजरिम की बात सुनकर पलभर को मेरा दिमाग भक्क से उड़ गया। कुछ देर तक सोचा-विचारा। फिर मैंने कहा, ‘उस्ताद! ये पंक्तियां किस कवि की है, यह तो मैं नहीं बता सकता। मेरा अंदाजा है कि यह उत्तर प्रदेश के किसी पुराने लिखाड़ कवि की है। हां, इन पंक्तियों के अर्थ संदर्भ बदल जाने पर बदल जाते हैं। अगर हम इसे कबीर के रहस्यवादी दर्शन से जोड़ें, तो इसका तात्पर्य यह है कि इस धरती पर पापाचार और अनैतिक कृत्यों को देख-सुनकर एक आत्मा बिलबिला उठती है और वह दूसरी आत्मा से कहती है कि हे भाई! भगवान ने हमें इस धरती पर लोगों का भला करने को भेजा था, वह तो हम माया, मोह, भाई-भतीजावाद के चंगुल में फंसकर भूल गए। अब आखिरी समय आ पहुंचा है, अब धोबिन रूपी परमात्मा पाप-पुण्य रूपी घाट पर हमें पटक-पटक कर धोएगी और हमें भी चौसठ करोड़ योनियों में भटकने के लिए भेज देगी। वह आत्मा भयातुर होकर कहती है कि हे भाई! अब हम लोगों का क्या होगा।’

इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका और फिर कहना शुरू किया, ‘इसके दूसरे अर्थ में पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सार छिपा है। इन पंक्तियों की गहन मीमांसा करने पर यह अर्थ निकलता है कि एक सांसद या मंत्री दूसरे सांसद या मंत्री से कहता है कि हे भाई! हम लोगों का क्या हश्र होगा। इस बार चुनाव आने पर जनता रूपी धोबिन पोलिंग बूथ रूपी घाट पर हमारे पक्ष में मतदान न करके हमें पटक देगी और आज जो नेता विपक्ष में बैठे हैं, वे हम सब लोगों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच आयोग गठित कर हमारे कृत्यों को धो देंगे।’ इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका।

मेरी बात सुनकर मुजरिम मंद-मंद मुस्कुराते रहे और फिर बोले, ‘तुम जैसा योग्य शिष्य पाकर मैं धन्य हो गया। इन पंक्तियों की तुमने जो सुंदर व्याख्या की है, वह काव्य के बड़े-बड़े महारथियों के लिए भी दुरूह हो सकता था। मैं तुम्हारी व्याख्या से संतुष्ट हूं।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम ने मुझे चाय बनाने का निर्देश दिया और सोफे पर बैठकर खर्राटे लेने लगे। चाय बनाने के निर्देश पर कुढ़ता हुआ मैं किचन में चला गया।

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