Monday, December 26, 2011

दो संस्कृतियों को न समझ पाने की नादानी

-अशोक मिश्र

हिंदू धर्म ग्रंथ भगवद्गीता को लेकर इन दिनों भारत और रूस में एक विवाद चरम पर है। दरअसल यह विवाद श्रीमद्भागवत पर नहीं बल्कि इस्कॉन समूह के संस्थापक भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की लिखी पुस्तक ‘भगवद गीता एज इट इज’ पर है। रूस के क्रिश्चयन आथोर्डोक्स चर्च से जुड़े कुछ लोगों ने इसी साल जून के महीने में साइबेरिया की अदालत में एक मुकदमा दायर करके इसे खतरनाक और चरमपंथ को बढ़ावा देने वाला बताया है। इस विवाद की परिणति क्या होगी? इस विवाद के चलते भारत-रूस संबंधों पर क्या फर्क पड़ेगा जैसे मुद्दों पर विचार करने से पूर्व अगर हम इस तथ्य की पड़ताल करें कि आजादी के बाद भारत के सोवियत गणराज्य का कई दशकों तक पिछल्लगू बनने के बाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने से क्या हासिल हुआ? अगर हम गौर करें, तो आजादी के बाद कथित समाजवादी जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं से लेकर वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में बहुत कुछ उधार लिया। हमारे देश की सभ्यता, संस्कृति और आचार-विचार को सीखने-समझने को वहां से भी साहित्यकार, कलाकार, रंगकर्मी और अधिकारी आते रहे, हमारे देश से भी बहुत बड़ी संख्या में लोग जाते रहे। भारत-रूस से आने जाने वाले ये सामाजिक और सांस्कृतिक कर्मी प्राप्त ज्ञान को वहां की परिस्थितियों के अनुरूप आम जनता की भाषा में ढालकर लोगों को समझाने और बतलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी का नतीजा है वर्तमान गीता विवाद।

श्रीमद्भागवत का भारतीय जीवन में क्या महत्व है? इसका दर्शन भारतीय जीवन को किस तरह प्रभावित करता है या सचमुच यह चरमपंथी दर्शन है? इस पर विचार करने की बजाय अगर सिर्फ विवाद पर ही बात की जाए, तो इसके पीछे दो सभ्यता ओं, संस्कृतियों और जीवन दर्शन में अंतर को न समझ पाने का मामला है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि एशिया महाद्वीप में सबसे पहली सभ्यता का विकास वोल्गा नदी के किनारे हुआ था। यह वोल्गा नदी रूस में उतना ही महत्व रखती है जितनी कि भारत में गंगा। वोल्गा नदी के किनारे विकसित हुई सभ्यता के कुछ लोगों ने जब चारागाह और भोजन की तलाश में अफगानिस्तान के रास्ते भारत की ओर रुख किया और वे भारतीय उपमहाद्वीप में बसते चले गए। अगर हम इस बात को स्वीकार कर लें, तो वोल्गा नदी के किनारे विकसित सभ्यता की ही एक शाखा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान आदि में फली-फूली और विकसित हुई। यह भी सही है कि एक ही मूल की सभ्यताएं जब दो जगहों पर पुष्पित-पल्लवित हो रही थीं, तो वे अपने मूल से अलग होकर भी किसी हद तक जुड़ी हुई थीं।

शब्द, आचरण, मान्यताएं और परंपराओं में काफी हद तक समानता थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन शब्दों, आचरणों, मान्यताओं और परंपराओं का स्थान नए शब्द, मान्यताएं, परंपराएं लेती गर्इं। बाद में तो एक समय ऐसा आया, जब इन दोनों सभ्यताओं को जोड़ने वाली चीजें ही अप्रासंगिक होकर मिट गईं। रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-विचार और प्रशासनिक व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर आ गया। हमारे देश के प्रमुख ग्रंथ वहां के जनजीवन में अपना महत्व खो बैठे। ऐसे में कोई जरूरी नहीं है कि हमारे देश की प्रमुख मानी जाने वाली गीता, रामायण जैसे ग्रंथ रूस या दुनिया के किसी अन्य देश के लिए महत्वपूर्ण हों। आखिर हमारे देश की कितनी फीसदी आबादी रूस, चीन, अमेरिका, मिस्र या अफगानिस्तान आदि देशों के धर्म ग्रंथों, धार्मिक आचार-विचार या मान्यताओं के बारे में जानती है। बमुश्किल एकाध फीसदी से भी कम। ऐसे में किसी व्यक्ति या समूह विशेष की नादानी को उस देश की सरकार या बहुसंख्यक आबादी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

ऐसी ही नादानी के उदाहरण अपने ही देश में बहुत मिल जाएंगे। हमारे देश के वामपंथी दलों को ही लें। जब भी बात दर्शन की चलती है, वे मानवतावादी दार्शनिक कार्ल मार्क्स, रूसी क्रांति के अगुवा वी. लेनिन और चीनी क्रांति के नायक मात्से तुंग के दर्शन को अपनाने की बातें करते हैं। किसी भी देश के दर्शन की अच्छाइयों को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी विचार आज भी सामयिक हैं, लेकिन जब हमारे देश के वामपंथी दल भारतीय जीवन शैली, विशेष काल-परिस्थितियों को ध्यान में रखे बगैर रूढ़िवादी तरीके से लागू करने की बात करते हैं, तो हंसी आती है। वे यह नहीं सोचते कि जिस युग में मानवतावादी लेनिन ने रूसी क्रांति का आह्वान करते हुए कहा था कि यदि क्रांतिकारी तत्व वेश्यालयों में मिलता है, तो कामरेडों को वहां भी जाना चाहिए। क्या आज की परिस्थितियों में ऐसा संभव है? कतई नहीं। ऐसी नादानी करने से हमें बचना चाहिए। गीता हमारे देश के लिए पवित्र वस्तु हो सकती है, लेकिन दुनिया के सभी देश उसे सिर माथे पर उठाए फिरें, ऐसा न तो संभव है, न व्यावहारिक। हां, इस विवाद का कूटनीतिक हल निकाला जा सकता है और ऐसा होना भी चाहिए।

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