Tuesday, December 20, 2011

ह्वाय दिस कोलावेरी डी!

-अशोक मिश्र
दिल्ली के किसी पार्क में एक गधा गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए मुलायम घास चर रहा था। गधे के घास चरने की स्टाइल बता रही थी कि वह दिल्ली का रहने वाला है। तभी रखवाले की निगाह बचाकर गांव से आया एक दूसरा गधा पार्क में घुस आया। आते ही उसने न इधर देखा, न उधर। मुलामय घास को किसी भुक्खड़ की तरह भकोसने लगा। यह देखकर पार्क के बीचोबीच में बड़ी शान से चर रहा दिल्लीवासी गधा ‘ढेंचू-ढेंचू’ की आवाज करता हुआ दूसरे गधे की ओर दौड़ा। एक बार तो लगा कि वह दुलत्ती झाड़ ही देगा, लेकिन पास जाकर वह गुर्राया, ‘अबे बेवकूफ! तू कहां से घुस आया। जल्दी से दो-चार गफ्फे मार ले और चलता बन। अगर गेटकीपर ने देख लिया, तो तेरी वजह से मुझे भी बाहर जाना पड़ेगा।’
बाद में आया गधा दीन स्वर में बोला, ‘भइया! बड़ी मुश्किल से कई दिनों बाद हरी और मुलायम घास दिखी है। आज तो पेट भर खा लेने दो।’
‘आज तो पेटभर खा लेने दो....बाप का माल है क्या?..’ दिल्लीवाले गधे ने हिकारतभरी नजरों से उसे देखते हुए कहा, ‘ठीक है, जल्दी से थोड़ी घास चरो और चलते-फिरते नजर आओ।’
कुछ देर दोनों चरने के बाद पार्क से बाहर आ गए। पार्क के साइड में बने फुटपाथ पर दोनों खड़े पगुराते रहे। थोड़ी देर बाद दिल्ली वाला गधा पंचम सुर में दुलत्तियां झाड़कर गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी डी।’ गांव से आए गधे को पार्क की मुलायम घास अब भी लुभा रही थी। वह एक बार फिर थोड़ी घास खाने की फिराक में था। उसने दिल्लीवाले गधे के गाने में व्यवधान डालते हुए कहा, ‘घास कितनी मुलायम है। काश कि पूरे देश में ऐसे ही चारागाह होते, तो हमें चारा के लिए गली-गली भटकना नहीं पड़ता।’
गाने में व्यवधान पड़ने से झल्लाया गधा बोला, ‘अबे गधे! चारागाह तो पूरा देश है। देखते नहीं, इनसानों को। वे चरते तो अपने क्षेत्र में हैं, लेकिन पगुराने आते हैं दिल्ली। इनसानों के पगुराने के अड्डे हैं संसद और राज्यों की विधानसभाएं। मजे की बात तो यह है कि ये लोग पगुराने के पैसे भी लेते हैं। हां, इनमें होड़ इस बात की होती है कि कौन पक्ष में बैठकर पगुराएगा, कौन विपक्ष में। ये लोग जब चरकर अघा जाते हैं, तो ये देशी बनियों को चारागाह सौंप देते हैं चरने के लिए। ये बनिये गांव के गली-कूंचे से लेकर शहर के पॉश इलाकों में अपनी दुकान सजाकर बैठ जाते हैं। इन बनियों के भी कई गुट हैं, कई पार्टियां हैं, कई झंडे हैं। कुछ नेता नामधारी इंसान कभी इनको समर्थन देते हैं, तो कभी उनको।’
‘तब तो सभी इंसानों की मौज होगी। सभी चरते होंगे।’ देहाती गधे ने उत्सुकता जताई।
‘नहीं जी...गरीब कहे जाने वाले इंसान बेचारे मारे-मारे फिरते हैं। सुना है कि एफडीआई आने वाली है। यह क्या बला है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन अपने मालिक के बेटे के मुंह से जो सुना है, उसके मुताबिक अपने देश के चारागाह में चरने के लिए अब विदेशी कंपनियां भी आएंगी। इक्यावन फीसदी अब ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां चरेंगी और उन्चास फीसदी देशी कंपनियां।’ इतना कहकर लयात्मक ढंग से दुलत्तियां झाड़कर दिल्लीवाला गधा एक बार फिर से गाने लगा, ‘ह्वाय दिस कोलावेरी कोलावेरी कोलावेरी डी।’ और देहाती गधा पार्क में घुसकर चरने लगा।

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