Tuesday, December 20, 2011

मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर

अशोक मिश्र
कोहरे की रजाई ओढ़े अगहनी सूरज की तरह मैं भी अपने बिस्तर पर अलसाया पड़ा था कि किसी फिल्मी गीत के पहले अंतरे की आखिरी लाइन ‘जूली ओ जूली...’ मेरे कानों में शहद घोलती-सी घुसी। मैं चौंक उठा कि इतना भावविभर होकर कौन जूली को टेरता फिर रहा है? यह आवाज घर के किसी सदस्य की थी नहीं। सो, मेरा चौंकना स्वाभाविक था। मेरी निगाहें दरवाजे की ओर उठीं, तो देखा कि पड़ोसी मुसद्दीलाल ‘आ जा रे, ओ मेरे दिलवर आ जा...’ गाते हुए किसी घुसपैठिये की तरह घुसे चले आ रहे थे। पड़ोसी मुसद्दीलाल की गिनती मोहल्ले के श्रेष्ठ रसिकजनों में होती है। मुसद्दीलाल को नायिका •ोद से लेकर प्रेम और शृंगार के सभी पक्षों का गंभीर ज्ञान है। मोहल्ले की फलां स्त्री या अमुक कन्या नवोढ़ा नायिका है या विदग्धा, यह मुसद्दीलाल उसे देखते ही झट से बता देते हैं।
मैंने बिस्तर पर ही थोड़ा-सा स्थान बनाते हुए उन्हें बैठने का इशारा किया, ‘यह जूली भाभी जी की कोई सहेली या उनकी बहन है क्या? जिसको ‘हे खग, हे मृग.......’ की तर्ज पर मोहल्ले में खोजते फिर रहे हो?’ मेरी बात सुनते ही मुसद्दीलाल के चेहरे पर छाया शृंगार रस का भाव वीर रस में बदल गया। वे गुर्राते हुए बोले, ‘तुम हमेशा खीर में नमक डालकर सारा गुड़ गोबर कर देते हो। तुम्हें इसमें क्या मजा आता है!’
मुसद्दीलाल के तेवर देखकर मैं सिटपिटा गया, ‘भाई साहब! आप यह बताने की कृपा करेंगे कि यह जूली कौन है? आप तो जानते ही हैं कि औरतों के मामले में मैं बचपन से ही निरा •ोंदू रहा हूं।’ मेरी बात सुनकर मुसद्दीलाल ने गहरी सांस ली और बोले, ‘ताज्जुब है कि तुम जूली को नहीं जानते। जूली लवगुरु मटुकनाथ की रानी ‘पद्मिनी’ है, जाने जिगर है, जाने बहार है जिसके लिए लवगुरु अपनी पत्नी से पिटे, अपने योग्य शिष्यों की मार खाई, बगलोल नारायण कालेज (बीएन कालेज, पटना) की मास्टरी गंवाई। अब उसी मास्टरी को लवगुरु और उनकी जाने जां जूली अपनी हिम्मत और संघर्ष की बदौलत हासिल करने में सफल हो गए हैं। अब वे कालेज में फिर से पढ़ाने जा रहे हैं। उनकी कक्षा में पढ़ने के लिए देशभर से रसिक और प्रेमीजन पटना पहुंच रहे हैं। मैं आपको भी पटना चलने का न्यौता देने आया था।’
मैं कुछ कहता कि बगल के कमरे से मेरे सुपुत्र चुन्नू बाबू नमूदार हुए। मुसद्दीलाल और कुलभूषण चुन्नू बाबू की आंखें मिली। आंखों ही आंखों में एक गुप्त इशारा हुआ, जिसे मैं समझ नहीं पाया। चुन्नू बाबू बोले, ‘डैडी! मुझे पांच हजार रुपये चाहिए, पटना जा रहा हूं।’ यह सुनते ही मैं उछल पड़ा।
‘क्या कहा.....पटना जाना है! वहां क्या है? चुपचाप पढ़ाई करो, परीक्षाएं सिर पर आ रही हैं।’ मुझे गुस्सा आ गया।
‘पढ़ने ही तो जा रहा हूं।’ मेरे कुल तिलक चुन्नू का आवेशरहित जवाब था।
‘पढ़ने जा रहे हो! वहां कौन-सी पढ़ाई होगी? मैं भी तो जानूं जरा?’
‘लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ूंगा, जूली से नायिका •ोद सीखूंगा। सुना है कि ‘मटुकनाथ-जूली लव कोचिंग सेंटर’ में पढ़ने के लिए अमेरिका, कनाड़ा और आस्ट्रेलिया से भारी संख्या में लड़के-लड़कियां आ रहे हैं। डैड...आप तो जानते ही हैं कि सीटें लिमिटेड हैं। अंकल ने अपना और मेरे एडमिशन का जुगाड़ •िाड़ा लिया है। सिर्फ पांच हजार रुपये महीने में काम चल जाएगा।’ चुन्नू बाबू एक ही सांस में सारी बातें कह गए। मैं उल्लुओं की तरह बैठा उसका चेहरा देखता रहा। मुसद्दीलाल मेरी दशा देखकर मंद-मंद मुस्कुराते रहे। मैं समझ गया कि इन दोनों में साठगांठ हो गई है। मैंने अपना ब्रह्मास्त्र फेंका, ‘अरी भागवान! सुनती हो, तुम्हारा लाडला क्या कह रहा है। लवगुरु से प्रेम पुराण पढ़ने जा रहा है। जरा इस नामाकूल को समझाओ।’
इधर मैंने पत्नी को हांक लगाई, उधर वह चेहरे पर बत्तीस इंची मुस्कान समेटे कमरे में घुसी। उसने हाथों की ट्रे को टेबल पर रखते हुए कहा, ‘चुन्नू के पापा! जाने दीजिए उसे पटना। अगर वह प्रेम में विशेषज्ञता हासिल करना चाहता है, तो बुरा क्या है। एक फिल्म में राजकपूर कह गए हैं कि प्यार कर ले, नई तो यूं ही मर जाएगा। प्यार कर ले.....अगर मेरा बेटा प्यार सीखने जाना चाहता है, तो जाने दीजिए।’
घरैतिन की बात सुनकर मैंने कहा, ‘अरी पागल! तू यह क्यों भूल जाती है कि प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय। क्या सदियों से प्रेम करना सिखाया जाता रहा है? यह तो समय आने पर इंसान खुद ही सीख जाता है।’
‘पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं आप। आजकल तो प्रेम बाड़ी में उपजता भी है और हाट में बिकता भी है। यह थ्योरी कब की बदल चुकी है। आप यह बताइए, सुबह उठकर मेरा बेटा स्कूल जाता है, शाम को तीन-चार बजे लौटता है। खाने-पीने के बाद वह ट्यूशन पढ़ने चला जाता है। शाम को छह सात बजे लौटता है, तो फिर एकाध घंटे के लिए खेलने चला जाता है। उसके बाद तुम सिर पर Þडंडा लेकर सवार हो जाते हो कि चलो पढ़ो। ऐसे में वह प्रेम का पाठ कब पढ़े। मोहल्ले के लड़के-लड़कियां ऐसे-ऐसे नायाब लव लेटर्स लिखते हैं कि अब आपको क्या बताऊं। उनकी काबिलियत और अपने बेटे की अज्ञानता पर मुझे कितनी शर्म आती है, यह आप क्या जानें। मोहल्ले में शर्म से मेरा सिर झुक जाता है।’ इतना कहकर घरैतिन ने खूंटे में बांध रखे पांच हजार रुपये निकाले और बेटे को देते हुए कहा, ‘लो बेटा! पांच हजार रुपये। इस महीने इतने में काम चलाओ। अगले महीने की फीस और खर्चे के छह हजार रुपये तुम्हारे डैडी तनख्वाह मिलने पर तुम्हारे खाते में ट्रांसफर करा देंगे।’ पैसा हाथ में आते ही बेटे ने बेमन से मेरा पैर छुआ और अपनी मम्मी को ‘बॉय’ करता हुआ निकल गया। उसके साथ ही पड़ोसी मुसद्दीलाल भी चलते बने।

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