Tuesday, December 25, 2012

आ रही है 'योजना'


अशोक मिश्र
मैं लखनऊ  के प्रसिद्ध ‘सर चिरकुटानंद प्रतिभावल्लभ स्मृति पुस्तकालय’ में दैनिक समाचारपत्र ‘अधिंयारे में प्रकाश’ की पुरानी प्रतियां उलट-पलट रहा था। उसी दौरान सन् 1952 में प्रकाशित एक व्यंग्य पर मेरी निगाह गई, जिसे किसी ऐसे शख्स ने लिखा था, जिसका तखल्लुस ‘खुरपेंची’ था। दरअसल, उस पुरानी और रखे-रखे धूमिल पड़ गई प्रति में व्यंग्यकार का सिर्फ तखल्लुस ही पढ़ने में आ रहा था। वह व्यंग्य मुझे आज आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी प्रासंगिक लगा, तो आपके सामने यथावत पेश करने का दुस्साहस कर रहा हूं। कुकुरभुकवा गांव के बाहर की पगडंडी पर पूरा गांव जमा था। स्त्री-पुरुष, बच्चे, जवान और बूढ़े सबकी निगाहें सड़क से निकलकर गांव तक आने वाली पगडंडी पर लगी हुई थीं। बच्चे जहां पगडंडी के किनारे के खेतों में खेलने में मशगूल थे, तो घूंघट में छिपी औरतें झुंड बनाकर अपनी दुनिया में मस्त थीं। उस भीड़ में शामिल साठ वर्षीय भुलुई प्रसाद ने तंबाकू को चूने से रगड़ने के बाद होंठों के बीच दबाते हुए कहा, ‘देखो! वह आए, तो सबसे पहले बच्चे लपककर उसके पैर छुएंगे। उसके बाद अपनी उम्र और पद के हिसाब से गांव की बहुएं पांव छुएंगी।’ यह सुनते ही भुलुई की भौजाई ने ठिठोली की, ‘और तुम क्या करोगे, भुलुई?’ गांव की जवान भौजाइयों से रस लेकर बतियाने वाले भुलुई इस मौके पर कहां चूकने वाले थे, ‘जैसे ही वह आएगी, सब उसकी ओर निहारने लगेंगे। सबकी और भइया की निगाह बचाकर मैं तुम्हें निहारने लगूंगा। निहारने दोगी न भौजाई?’ द्विअर्थी संवाद में माहिर भुलुई ने झट से नहले पर दहला जड़ दिया। भुलुई की बात सुनकर भौजाई के दूसरे देवर ठहाका लगाकर हंस पड़े। भौजाई भी कहां चूकने वाली थीं! उन्होंने तपाक से कहा, ‘भुलुई, तुम मुझे नहीं, बचना (भुलुई के बेटे) की महतारी को निहारना। कहीं ऐसा न हो कि तुम भौजाइयों के फेर में पड़ो और बचना की महतारी को उसका कोई देवर ले उड़े। बचना की महतारी के देवर कम छबीले नहीं हैं। भौजाई तो हाथ आने वाली नहीं है, लुगाई से भी हाथ धो बैठो।’
खिसियाए भुलुई दूसरी ओर सरक गए। भुलुई की बुआ, काकी, बहन या ताई लगने वाली औरतें खिलखिलाकर हंस पड़ी। कुछ बुजुर्ग औरतों ने भुलुई की भौजाई को मीठी झिड़की भी दी। काफी देर से कुछ बोलने को कुनमुना रहे कंधई से आखिर रहा नहीं गया, ‘बप्पा! वह कैसी है? उसको आपने कभी देखा है? तिक्कर काका बता रहे थे कि अभी कमसिन उमर है उसकी?’ पिछले चार-पांच घंटे से इंतजार में बैठे-बैठे ऊब चुके गोबरधन (गोवर्धन) ने झुंझलाते हुए कहा, ‘तुम्हारी छोटकी मौसी जैसी है वह। जा भाग ससुर के नाती! नहीं तो दूंगा कान के नीचे एक कंटाप, मुंह झांवर हो जाएगा। जवाहिरा भी न जाने किस मुसीबत में फंसा दिया हम सबको। अरे! भेजना ही था, तो भेज देता। यह क्या कि पूरी दुनिया में ढिंढोरा पीट दिया।’ उस भीड़ में शामिल कुछ और लोग भी अब इंतजार करते-करते थक चुके थे, उन्होंने भी गोबरधन की बात पर ‘हां में हां’ मिलाना अपना पुनीत कर्तव्य समझा। कुछ लोग इंतजार करते-करते थक चुके थे और वे घर वापसी की सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें दूर पगडंडी पर सुर्ख लाल कपड़ों में लिपटी एक महिला और उसके आगे-आगे एक पुरुष आता दिखाई पड़ा, तो उत्साहित होकर चिल्ला पड़े। एक बुजुर्ग ने गौर से देखते हुए कहा, ‘लगता है, जवाहिरा खुद लेकर आ रहा है।’ लोग टकटकी लगाए देखते रहे। उस जोड़े के नजदीक आते ही छबीली की माई चिल्ला पड़ी, ‘अरे यह तो खुरपेंचिया और उसकी मेहरिया है। अपनी ससुराल वह कल अपनी मेहरिया को विदा कराने गया था।’
गांव के बाहर भीड़ देखकर मैं (पाठक ध्यान दें, यह मुझे नहीं, बल्कि खुरपेंची समझकर पढ़ें) भौंचक्का रह गया। मैंने गांव के बुजुर्गों को प्रणाम करते हुए कहा, ‘अरे! आप लोग यहां...?’  गोबरधन ने झुंझलाते हुए कहा, ‘कल रेडियो पर जवाहिरा बोला था कि लोगों की गरीबी और भुखमरी मिटाने के लिए गांव-गांव योजना भेजी जा रही है। तो हम लोग सुबह से ही यहां पगडंडी पर योजना का इंतजार कर रहे हैं।’ गोवरधन काका की बात सुनते ही मेरी हंसी छूट गई। मैं पेट पकड़कर ठहाका लगाकर हंस पड़ा, ‘आप लोग भी कितने भोले हैं। अरे, ऐसी योजना को आते-आते अभी कई साल लगेंगे। और फिर योजना कोई मर्द या औरत तो है नहीं कि उसका आप लोग यहां खड़े होकर इंतजार करें। आप लोग घर जाइए, जब योजना आएगी, तो आपको पता लग जाएगा।’ तब से आज  तक उस गांव के लोगों को योजना का इंतजार है।

Sunday, December 16, 2012

समधन का अचार

अशोक मिश्र 


सुबह उठकर श्रीवास्तव जी ने अंगड़ाई ली, तो मैंने चुटकी लेते हुए कहा, ‘भाई साहब! आपकी अंगड़ाई लेने की अदा देखकर मुझे एक शेर याद आ रहा है, अगर इजाजत हो, तो पेश करूं।’ श्रीवास्तव जी ने मुझे पहले तो घूरकर देखा। उनके घूरते ही मैं सकपका गया। मुझे सकपकाते देखकर उन्होंने दरियादिली दिखाई और किसी शहंशाह की तरह बोले, ‘अब जब दिमाग में आ ही गया है, तो सुना भी डालो।’ उनकी इस दरियादिली पर मैं खुश हो गया। मैंने अर्ज किया, ‘उनसे छींके से कोई चीज उतरवाई है/काम का काम है, अंगड़ाई की अंगड़ाई है।’ मेरे इतना कहते ही वे कविवर बिहारी लाल के किसी परकीया नायक की तरह शर्मा गए और बोले, ‘मैं एक बात बताऊं। जब मैं गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तो मैं कई लड़कियों को अपनी अंगड़ाई से बेहोश कर चुका हूं। मेरी अंगड़ाइयों के बारे में लड़कियां शेर कहा करती थीं, ‘कहां पे बर्क (बिजली) चमकती है ऐ सानिया देख!\कोई मरदूद हॉस्टल के आस-पास अंगड़ाइयां लेता है।’ और यह कहते-कहते श्रीवास्तव जी खिलखिलाकर हंस पड़े। तभी रामभूल ने किचन से निकल कर कहा, ‘सर जी! भोजन तैयार हो गया है, तैयार हो जाइए।’
रामभूल की बात सुनकर हम दोनों अपने दैनिक कार्यों में संलग्न हो गए। मेरे बाथरूम से निकलते ही श्रीवास्तव जी ने सर्दी भगाने के लिए हाथ-पैरों को इधर-उधर फेंकते हुए बाबा रामदेव जैसी मुद्रा अख्तियार की और लगे नृत्यासन करने। इस पर भी ठंड से जकड़े हाथ-पैरों में गर्मी नहीं आई, तो उन्होंने ठुमका लगाते हुए द्रुत गति के विलंबित ताल में आलाप भरा, ‘समधन तेरी घोड़ी चने के खेत में...।’ और लगे नृत्य करने। मैंने कहा, ‘भाई साहब, जरा ध्यान से हिलोरें लें, कहीं बुढ़ापे में कमर लचक गई, तो मुश्किल होगी।’ श्रीवास्तव जी ने फिर मुझे घूरा, लेकिन मैं तब तक भागकर दूसरे कमरे में चला गया था। बाथरूम से श्रीवास्तव जी के गाने की अब आवाज आ रही थी, ‘ठंडे-ठंडे पानी में नहाना चाहिए...।’पूजा-पाठ का संक्षिप्त कार्यक्रम निबटाने के बाद जब श्रीवास्तव जी खाने को बैठे, तो उन्होंने रामभूल को हुक्म दिया, ‘सुनो! वह अचार का डिब्बा उठाकर लाना। बहुत दिन हुए अचार नहीं खाया है। आज अचार खाने का मन हो रहा है।’ रामभूल ने अचार का डिब्बा उठाया, लेकिन इसे संयोग कहें या दुर्योग, वह डिब्बा हाथ से छूटा और ‘पट्ट’ की आवाज करता हुआ जमीन पर आ गिरा। गटापारचे (प्लास्टिक) के डिब्बे का ढक्कन संयोग से नहीं खुला था, इसलिए अचार जमीन पर गिरने से बच गया था। अचार के डिब्बे को जमीन पर गिरा देखकर श्रीवास्तव जी कलप उठे, ‘हाय! यह तूने क्या कर डाला। नामुराद! तेरी आंखें क्या घास चरने चली गई हैं, तेरे हाथों में जान नहीं है क्या? ठीक से नहीं पकड़ सकता था अचार का डिब्बा।
तेरे हाथ से सब्जी से भरी कड़ाही गिर जाती, तो मुझे इतना दुख नहीं होता। कमअक्ल तूने अचार का डिब्बा गिरा दिया।’ श्रीवास्तव जी की बात सुनकर मैं भी भौंचक रह गया। बात-बात पर हंसने-खिलखिलाने और अपनी विनोदप्रियता के लिए विख्यात श्रीवास्तव जी का यह रूप अप्रत्याशित था। डिब्बे के गिरने और डांट खाने से रुंआसा रामभूल चुपचाप आकर खाना खाने लगा। उससे ज्यादा खाया नहीं गया और वह थोड़ा बहुत खाकर उठ गया। थोड़ी देर बाद श्रीवास्तव जी किसी काम से घर से निकल गए, तो रामभूल ने मुझसे पूछा, ‘भाई जी! मान लीजिए, अचार का डिब्बा हाथ से छूट ही गया था, तो श्रीवास्तव जी इस मामूली बात पर इतने नाराज क्यों हो उठे थे?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘तुम नहीं समझोगे। दरअसल, अचार का जो डिब्बा तुम्हारे हाथ से छूटकर गिरा था, वह अचार उनकी समधन ने भिजवाया था। जब यह अचार लाए थे, तो वे इस डिब्बे को मुझे भी नहीं छूने देते थे। बहुत थोड़ा-सा अचार निकालकर दो भागों में बांटकर एक अपने लिए रखकर दूसरा मुझे दे देते थे। एक दिन मैंने थोड़ा बड़ा टुकड़ा ले लिया, तो वे बिगड़ पड़े थे, ‘सारा एक ही दिन में खा जाओगे। जानते हो, इसे मेरी समधन ने कितने प्यार से बनाकर भेजा है। इसमें समाए समधन के प्यार की नमकीनियत तुम जैसा हृदयहीन व्यक्ति क्या समझ सकता है। यह तो मुझसे पूछो, जो उस चुलबुली समधन को दिन में चार बार याद करता है।’
जानते हो, दिन में कई बार किचन में जाकर अपने तौलिये या रुमाल से अचार के डिब्बे पर जमी धूल को बड़े प्यार से झाड़ते हैं। उस डिब्बे को बड़े प्यार से सहलाते हैं। एक मजेदार बात बताऊं। सवा साल पहले भूल से श्रीवास्तव जी की बेल्ट उनकी साली के पर्स में और उनकी साली का टैल्क पाउडर उनके बैग में रह गया। दिल्ली आने पर उन्हें इस बात का पता चला। तब से वे उस पॉवडर के डिब्बे को अपने बैग में छिपाकर रखते हैं और उनकी बेल्ट उनकी साली जी लगा रही हैं। यह बुढ़ापे का प्रेम ऐसा ही होता है। तुम उनकी बात का बुरा मत मानना।’ मेरी बात सुनकर रामभूल चुपचाप अपने काम में लग गया।

Thursday, December 6, 2012

कौन है ‘आम’ आदमी?

अशोक मिश्र 

कल आफिस में बैठा खबरों की कतरब्योंत कर रहा था कि संपादक जी का बुलावा आया। उनके पास पहुंचा, तो उन्होंने तालिबानी फरमान सुनाते हुए कहा, ‘केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पर एक राइटअप जा रहा है। मुझे चार ‘आम’ आदमियों की बाइट्स चाहिए। फटाफट यहां से फूटो और शाम तक अपना काम पूरा करके वैसे ही हवा पर सवार होकर वापस आओ, जैसे हनुमान जी किष्किंधा पर्वत से संजीवनी बूटी लेकर वापस आए थे। और सुनो! ये चारों आम ही होने चाहिए, खास नहीं।ह्ण संपादक जी का आदेश सिर माथे पर रखकर मैं ‘आम आदमी’ खोजने निकला। कई लोगों से पूछा, सबने बस एक ही बात कही, ‘देश की सवा सौ करोड़ आबादी में से सिर्फ पांच फीसदी खास आदमी हैं, बाकी तो सब आम ही हैं। आम आदमी तो सब जगह पाए जाते हैं।’ मैंने उस आदमी से पूछा, ‘तो क्या तुम भी आम आदमी हो?’ उसने कहा, ‘नहीं, मैं तो ‘फ्राड एंड फ्राड संस’ में सीनियर क्लर्क हूं। मैं आम आदमी कैसे हो सकता हूं?’ उस सीनियर क्लर्क से मैंने पूछा, ‘यह कमबख्त आम आदमी मुझे मिलेगा कहां? उसकी कोई पहचान तो होगी, उसका कोई रंग-रूप, कद-काठी...कुछ तो होगा यार...।’ वह सीनियर क्लर्क मेरी बात सुनकर पहले तो खूब हंसा और फिर यह कहते हुए अपनी राह चला गया, ‘भगवान का ही दूसरा रूप है आम आदमी। जिस तरह भगवान सब जगह हैं, सबमें हैं, वे घर में भी हैं, श्मशान में भी। वह हिंदू में हैं, मुसलमान में भी...ठीक उसी तरह आम आदमी है। सब जगह है, लेकिन कहीं नहीं है।’ मैंने उस आदमी को सनकी समझकर अपने कंधे उचकाए और आम आदमी की तलाश में आगे बढ़ गया।

आम आदमी को खोजते-खोजते शाम हो गई, लेकिन वह नामाकूल कहीं नहीं मिला। थकहार कर मैंने घर का रास्ता पकड़ा, रास्ते में छबीली अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ उसने अपनी चोटी को पकड़कर सीने की ओर लहराते हुए इठलाकर कहा, ‘तुममें सामान्य ज्ञान की बहुत कमी है। मैं आम या खास किसी भी तरह की आदमी नहीं हो सकती हूं। हां, मैं ‘आम महिला’ हो सकती हूं।’ मैं हड़बड़ा गया, ‘अरे...उस अर्थ में मैंने नहीं पूछा था। मेरा मतलब है कि तुम कॉमन मैन हो?’ वह इस बार भी मुस्कुराई और बोली, ‘अर्ज किया है कि मैं कॉमन वीमेन हो सकती हूं, कॉमन मैन नहीं।’ बार-बार उपहास उड़ाए जाने और कार्य में असफल रहने से खिन्न होकर मैंने कहा, ‘मुझे माफ करो, मैंने गलत दरवाजा खटखटा लिया है।’ इतना कहकर मैं जैसे ही आगे बढ़ा, छबीली ने कहा, ‘सुनिए, मैं आपकी ‘वो’ हूं, अपने बच्चों की मां हूं, लेकिन आम आदमी नहीं हूं।’ घर पहुंचा, तो काफी निराश था। मेरी दशा-दुर्दशा देखकर बीवी घबरा गई। उसने मुझसे परेशानी पूछी, तो मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘यार! सारे देश में हल्ला हो रहा है आम आदमी का और दोपहर से ढूंढ रहा हूं इस नासपीटे ‘आम’ आदमी को। पता नहीं किस गली-कूंचे में रहता है यह मुआ।’ मेरी बीवी ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहा, ‘बस..इतनी सी बात है? कल सुबह आपको एक आम आदमी से जरूर मिलवा दूंगी। निश्चिंत होकर बैठिए।’

अगले दिन सुबह जब बेटी तैयार होकर स्कूल जाने लगी, तो मेरी पत्नी ने जगाते हुए कहा, ‘एक आम आदमी आने वाला है। बाहर जाकर मिल लो।’ दरवाजे पर मेरी बेटी को स्कूल पहुंचाने वाला रिक्शाचालक खड़ा था। मैंने उससे पूछा, ‘तुम आम आदमी हो?’ मेरे पूछने पर वह घबड़ा गया, ‘ना बाबू! हम कइसे आम आदमी होय सकित है। हमार ऐसन भाग कहां? हम तौ कमरुद्दीन हूं, बच्चन (बच्चों) का इस्कूल पहुंचाइत हय। हमका आम आदमी से का लेना-देना है।’ मैंने बीवी की ओर सवालिया निगाहों से घूरा और कहा, ‘यही है तुम्हारा आम आदमी? कल से अब तक जो समझ पाया हूं, इस देश में हिंदू बसते हैं, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, सिख बसते हैं। अधिकारी-कर्मचारी, बेरोजगार-बारोजगार, अच्छे-बुरे रहते हैं, लेकिन आम आदमी कहीं नहीं पाया जाता है। खामुख्वाह, लोग आम आदमी के पीछे पड़े रहते हैं।’ दस बजे जब आफिस पहुंचा, तो संपादक जी के पास जाकर मैंने कहा, ‘सर! इस देश में आम आदमी नहीं पाया जाता। हां, अगर पाकिस्तान से घुसपैठ करके आया हो, मैं नहीं कह सकता। सीबीआई, आईबी, रॉ या आप जहां कहें, वहां आम आदमी के संबंध में आरटीआई लगा दूं। सरकार खोजकर बता देगी, यह कमबख्त आम आदमी कहां पाया जाता है।’ इतना कहकर मैं उनके चैंबर से बाहर आ गया। सुना है, मेरी बात सुनकर वे काफी देर तक अपना सिर पकड़कर बैठे रहे।

Friday, November 30, 2012

‘ढाई आखर’ का स्कूल


-अशोक मिश्र

काफी दिनों से दिली ख्वाहिश थी कि लव गुरु मटुकनाथ चौधरी से मुलाकात की जाए, उनसे लव टिप्स लिए जाएं। लेकिन ऐसा कोई संयोग नहीं बन पा रहा था। पिछले दिनों जब लव गुरु ने लव स्कूल खोलने की घोषणा की, तो मन चिहुंक उठा। फटाफट रिजर्वेशन करवाया और जा पहुंचा पटना के बीएन (बगलोल नारायण) कालेज। वहां से पूछता-पूछता उनके घर पहुंचा। लव गुरु खटिया पर बैठे प्याज छील रहे थे और उनकी शिष्या कम जीवन संगिनी जूली बैठी तरकारी काट रही थीं। मैंने उन्हें साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा, ‘अपनी पत्रिका के लिए आपका साक्षात्कार लेने आया हूं।’ मेरी बात सुनकर लवगुरु हिंदी साहित्य में वर्णित ‘नवोढ़ा’ नायिका की तरह शरमा गए, इस पर जूली खिलखिलाकर हंस पड़ीं। लव गुरु साक्षात्कार देने में आनाकानी करें, इससे पहले मैंने सवाल दाग दिया, ‘संत कबीर को आप कितना समझते हैं?’

लव गुरु ने कहा, ‘कबीर को मेरे अलावा इस देश में किसी और ने समझा ही नहीं है। कबीर का दर्शन तो मेरे रोम-रोम ने आत्मसात किया है। कबीरदास जी का कहना है, ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।’ इसीलिए पहले पोथी पढ़ी, मास्टर हुआ। जब कॉलेज में पढ़ने आई, तो हम दोनों ढाई आखर एक साथ पढ़ने लगे।’ मैंने अगला सवाल दागा, ‘प्रेम और प्रताड़ना (मारपीट-धमकी) को किस रूप में लेते हैं आप?’ लव गुरु कुछ कहते, इससे पहले लव गुरुआइन (जूली) टपक पड़ीं, ‘ढाई आखर भाखने (बांचने) के बाद सब कुछ बेमानी हो जाता है। अब हमारे मामले में ही लीजिए। क्या-क्या नहीं हुआ? दीदी (लव गुरु की पहली पत्नी) ने हमारे मुंह पर कालिख पोती, भरे बाजार में पीटा और पिटवाया, कॉलेज से निकाले गए, लेकिन मजाल है कि हममें से कोई विचलित हुआ हो। एक बार जब प्रेम का प्याला छककर पी लिया, तो नाचना ही था। हम भी नाचे। कुछ दुनिया को दिखाने के लिए नाचे, तो कुछ प्रेम के वशीभूत होकर नाचे।’

मैंने पूछा, ‘आप कोई लव स्कूल खोलने जा रहे हैं?’ लव गुरु ने उल्लास भरे स्वर में कहा, ‘हां, खोलने जा रहे हैं ‘जूली-मटुक प्रेम कला निकेतन।’ नई पीढ़ी को प्यार का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। कितने शर्म की बात है कि ऋषि-मुनियों के देश में नौनिहालों को प्यार का पाठ पढ़ाना पड़ रहा है। जब पूरी दुनिया जांगल्य युग में जी रही थी, तब हमारे ऋषि-मुनियों को प्रेम की महत्ता का ज्ञान था। वैसे हम जल्दी ही राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चुनाव आयोग और प्रदेश सरकार को ज्ञापन देकर मांग करने वाले हैं कि प्रेम को राष्ट्रीय कर्म घोषित किया जाए। जिस व्यक्ति की कोई प्रेम कहानी न हो, जो प्रेममार्गी होने की वजह से पिटा न हो, उसे चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाए। ग्रेजुएशन में एक परचा सभी पार्टियां सिर्फ और सिर्फ प्रेमी-प्रेमिकाओं को ही अपना टिकट देकर उम्मीदवार बनाएं। हम अपनी पाठशाला में उसी को दाखिला देंगे, जो कच्चे प्रेमी-प्रेमिका होंगे। हम उन्हें संवार-निखारकर ‘स्किल्ड’ बनाएंगे।’ इसके बाद लव गुरु कुछ कहते, इससे पहले ही बीच में लव गुरुआइन टपक पड़ीं, ‘प्रेम में प्रवीण बनाने के लिए विद्यार्थियों को कुछ खास पाठ भी पढ़ाए जाएंगे। इसके लिए देश-विदेश से कुछ एक्सपर्ट भी बुलाए गए हैं। वे विद्यार्थियों को ‘कुशल प्रेमी’ बनने के कुछ खास टिप्स भी देंगे। ‘जूली-मटुक प्रेम कला निकेतन’ में आगामी वर्षों में प्रेम विषय में स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्सेज शुरू किए जाएंगे।’

‘यूजीसी, केंद्र या राज्य सरकार आपके इस निकेतन और कोर्सेज को मान्यता देगी?’ मैंने अगला सवाल दाग दिया। लव गुरु ने कहा, ‘कबीरदास जी गए थे किसी से मान्यता मांगने। अरे सरकार नहीं देगी मान्यता, तो न दे। हमें किसी सरकारी मान्यता की दरकार नहीं है। हमारी प्रेम की पाठशाला चलेगी और जरूर चलेगी। हमें इस देश के प्रेमीजन मान्यता देंगे, गांव-गांव अपने साजन को टेरती, खोजती सजनियां देंगी हमें मान्यता। हमें किसी अन्य मान्यता की तब जरूरत ही क्या रहेगी।’ मैंने लव गुरु से कहा, ‘आप दो सीटें अपनी पाठशाला में मेरे कहने पर सुरक्षित रखिएगा, एक मेरे लिए, एक मेरी छबीली के लिए। हम दोनों आपकी पाठशाला में पढ़ने जरूर आएंगे।’ लव गुरुआइन ने तपाक से कहा, ‘तुम्हें दाखिला नहीं मिल सकता है, तुम किसी भी तरह प्रेमी नहीं लगते हो।’ लव गुरुआइन की बात सुनकर मैं झट से उनके पैरों पर गिर पड़ा, ‘नहीं मुझे दाखिला दे दीजिए। नहीं...मुझे दाखिला दे दीजिए।’ यह जोर-जोर से चिल्लाते-चिल्लाते मेरी देह पसीने से लथपथ हो उठी। मेरी बीवी ने मुझे रजाई ओढ़ाने के बाद थपथपाते हुए कहा, ‘कोई बुरा सपना देखा है क्या? सो जाइए, अभी रात बहुत बाकी है।’ मैं रजाई में दुबक कर सो गया।

Monday, November 26, 2012

राजनीतिक कुएं में भांग


-अशोक मिश्र
सुबह बरामदे में बैठा निठल्ला चिंतन (माफ कीजिए, निठल्लों पर चिंतन) कर ही रहा था कि छबीली ने आकर शांति भंग की। ‘यहां बैठकर आस-पड़ोस की महिलाओं को घूरने की बजाय बेटी को कभी-कभार पढ़ा दिया कीजिए। अब आपकी उम्र महिलाओं या लड़कियों को घूरने की नहीं रही।’ छबीली की बात सुनकर मैं भड़क गया, ‘उम्र की बात तो करो मत। हमारे देश में बहुत पुरानी कहावत है ‘साठा, तब पाठा।’ अभी तो मेरी उम्र मात्र बयालिस साल तीन महीने तेरह दिन की है।’ छबीली ने मुस्कुराकर कहा, ‘अपनी उम्र का सिजरा देने की बजाय बेटी का होमवर्क करा दीजिए, आपकी हम मां-बेटी पर बहुत बड़ी मेहरबानी होगी।’ मैंने सोचा कि सुबह-सुबह कौन इससे बेकार की चोंच लड़ाए। इससे बेहतर है कि बेटी को ही पढ़ा दूं। यह अभी शुरू हो जाएगी, तो फिर नान स्टाप बोलती जाएगी। कई गड़े मुर्दे उखाड़ेगी, जो जो अपनी सेहत के लिए भी अच्छा नहीं होगा। यह सोचकर मैं उठने ही वाला था कि तभी बेटी उस कमरे में आ गई। उसने मुझसे पूछा, ‘पापा! स्कूल का होमवर्क कंप्लीट करने में आपकी मदद चाहिए। हिंदी की मैम ने ‘कुएं में भांग पड़ना’ मुहावरे का उदाहरण सहित व्याख्या करके लाने को कहा है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या लिखूं। जहां तक मैं समझती हूं, जब भूल से किसी कुएं में कोई नशेड़ी पिसी हुई भांग गिरा देता है, तो उसे कुएं में भांग पड़ना कहते हैं।’
बेटी की बात सुनकर मैंने अपना माथा पीट लिया। मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘बेटी, मैं तो देख रहा हूं, इस घर के कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। वैसे कुएं में भांग पड़ना का अर्थ यह है कि जब किसी क्षेत्र विशेष के लोग उल्टी-सीधी हरकतें करने लगें, तो कहा जाता है कि कुएं में भांग पड़ गई है।’ मैंने उसे विस्तार से समझाने की दृष्टि से कहा, ‘अब जैसे अपनी भारतीय राजनीति को लो। इन दिनों नेताओं की हरकतें और उनके ओछे बयान को देखकर तो लगता है कि राजनीति के कुएं में भांग पड़ गई है। जिसकी जो मर्जी में आ रहा है, वही अनाप-शनाप बक रहा है। अब गडकरी को ही लो, उन्हें क्या जरूरत थी किसी के फटे में टांग अड़ाने की। अरे! आईक्यू की समानता समझाने के लिए कोई दूसरा उदाहरण नहीं सूझा था। लगे स्वामी विवेकानंद और दाउद इब्राहिम के बीच समानता दिखलाने। जेठमलानी जी तो उनके भी चचा निकले। गडकरी की बात पर हो-हल्ला मचा, तो जेठमलानी जी ताल ठोंककर आ गए मैदान में और लगे गडकरी की ‘हत्तेरे-धत्तेरे की’ करने। फिर बोले, राम बुरे पति थे, लक्ष्मण तो एकदम निकम्मे और काहिल थे। सीताहरण के बाद जब सीता को खोजने की बात चली, तो वे हीला-हवाली करने लगे। (यह बात लिखने के लिए भाजपाई और विहिप वाले माफ करेंगे। बात आई है, तो यह लिखना पड़ रहा है।)’
इतना कहकर मैं सांस लेने के लिए रुका। बेटी बड़े गौर से मेरी बात सुन रही थी। मैंने बात को विस्तार दिया, ‘कुएं में भांग पड़ने का उदाहरण यह कोई पहला नहीं है। भारतीय राजनीति में एक मोदी जी हैं, खुद तो शादी की, चार दिन बीवी के साथ और बाद में उनका हिंदुत्व जागा, तो पत्नी को छोड़कर चले आए। कहने का मतलब यह है कि मोदी जी को ‘गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज’ है। अपनी बीवी को निरपराध त्याग देने वाले मोदी को तब कष्ट होता है, जब कोई अपनी बीवी या गर्लफ्रेंड से टूटकर प्यार करता है। शशि थरूर और सुनंदा पुष्कर के प्यार को देखकर एक दिन मोदी को ताव आया और वे पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड का फतवा जारी कर बैठे। अब बेचारे मोदी की बोलती बंद है। जलता कोयला जो जीभ पर रख बैठे थे।’ बेटी अब भी बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रही थी। मुझे अपने हिंदी ज्ञान पर कुछ गर्व सा महसूस हुआ। मैंने शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन ऊंची करते हुए कहा, ‘बेटी! अब तुम्हें क्या-क्या बताऊं। अपने प्रदेश के मुखिया के पिता जी तो सबके बाप निकले। वे कहते हैं कि महिला आरक्षण विधेयक का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि जब महिलाएं संसद में पहुंचेंगी, तो लोग सीटियां बजाएंगे। महिला आरक्षण से परकटी (महिलाएं माफ करें) यानी पढ़ी-लिखी महिलाओं और लड़कियों को ही फायदा होगा।’ यह सुनकर मेरी बेटी अपने कमरे में होमवर्क पूरा करने लगी। अगले दिन जानते हैं, मेरी बेटी ने क्या कहा, ‘आप अच्छे पापा नहीं हैं। आपने जो अर्थ और उदाहरण बताया, मैंने वही लिखा और पूरे दिन मैम और सहेलियां मेरा मजाक उड़ाती रहीं।’

Saturday, November 3, 2012

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना


-अशोक मिश्र
बचपन में छठवीं-सातवीं कक्षा में हिंदी के मास्टर मटुकनाथ जब बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवानाकहावत का अर्थ पूछते थे, तो मैं हमेशा गड़बड़ा क्या जाता था, पिट जाता था। कक्षा में इसका अर्थ न बता पाने वाले छात्र-छात्राओं को ठोक-पीट चुकने के बाद मास्टर मटुकनाथ कई-कई बार इसका अर्थ बताते, उदाहरण देकर समझाते, लेकिन अपने पल्ले में नहीं पड़ना था, तो नहीं पड़ा। इस कहावत का अर्थ मुझे सैफीना की शादी के बाद कहीं जाकर समझ में आया। अब तो कोई मुझसे पूछे, तो मैं उदाहरण सहित समझा सकता हूं।
वाकई, इसे कहते हैं, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। शादी पटौदी खानदान के लख्ते जिगर छोटे नवाबऔर करीना कपूर की हो रही थी, हाय-हाय मीडिया और सोशल मीडिया कर रहा था। अखबारों और टीवी चैनलों में तो सबसे पहले और एक्सक्लूसिव खबर और फोटो छापने-दिखाने की एक अंधी दौड़ मची हुई थी। सैफ अली खान और करीना ने शादी से पहले और बाद में मीडिया को कोई भाव नहीं दिया, लेकिन अखबारों ने सौ-सौ जूते खाओ, तमाशा घुसकर देखोकी तर्ज पर अपने रिपोर्ट्स और फोटोग्राफर्स तैनात कर रखे थे। वे सभी किसी मिशन की तरह हर उस जगह खबर सूंघते फिर रहे थे, जहां उन्हें कोई खबर या क्लू मिलने की थोड़ी-सी भी उम्मीद थी। अखबारों और टीवी चैनलों के ये जुझारू सिपाही इस आशा में इधर-उधर भागते फिर रहे थे कि क्या पता, कोई एक्सक्लूसिव फोटो या खबर मिल जाए, जिसे लंतरानीवाली स्टाइल में पेश करके युवाओं के दिलों की धड़कन बढ़ाई जा सके।
इस मामले में सोशल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखा। फेसबुक और ट्विटर पर तो पिछले एक महीने से सिर्फ और सिर्फ एक ही मुद्दा छाया हुआ है। कोई एक ट्वीट करता था, ‘करीना, शादी के समय जोधपुरी चप्पल के साथ-साथ कश्मीरी मोजा पहनेंगी।बस, इस ट्वीट पर कमेंट्स की होड़ लग जाती थी। दिल्ली के एक आदमी ने अपनी पोस्ट में लिखा, ‘निकाह कुबूल होते ही करीना चाट खाएंगी, पाव-बड़े खाएंगी या सिर्फ पानी पीकर काम चलाएंगी।इस पोस्ट पर ढेर सारे कमेंट आए। ज्यादातर लड़कों के। इतने सारे कमेंट्स देखकर तो ऐसा लग रहा था कि हिंदुस्तान के युवाओं के लिए गरीबी, बेकारी, भुखमरी और भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा करीना-सैफ की शादी थी। एक साहब ने कमेंट किया था, ‘तुम सबसे बड़े बेवकूफ हो, न वह चाट खाएंगी, न पानी पिएंगी। बिरयानी खाकर अपने वैवाहिक जीवन की शुरुआत करेंगी।कई बार तो ऐसे-ऐसे कमेंट आते थे कि पढ़कर मन होता था कि अपना सिर सामने की दीवार पर दे मारूं। तब तक फेसबुक पर एक नई पोस्ट आ गई, ‘करीना कपूर शादी के बाद अपने नाम के साथ खान जोड़ेंगी या कपूर ही रहने देंगी, या फिर कपूर और खान दोनों को जोड़कर काम चलाएंगी।इसके साथ ही करीना की किसी फिल्म की तस्वीर में नत्थी कर दी जाती थी। इसको लेकर फिर शुरू हो जाती थी, लाइक करने, कमेंट करने-करवाने और शेयर करने की एक अंतहीन प्रतियोगिता। करीना लवर्स क्लबनाम से फेसबुक एकाउंट खोलने वाले एक शख्स ने कमेंट पोस्ट किया, ‘करीना चाहे अपने नाम के साथ कपूर लिखे या खान, तेरे बाप का क्या जाता है?’
ठीक शादी की रात लगभग रात एक बजे मेरे एक लंगोटिया यार मिस्टर घोंचूरामने मुझे फोन किया। झुंझलाते हुए मैंने कटखने अंदाज में पूछा, ‘क्या है? अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही है, तो कम से कम दूसरों को तो सोने दो?’ उन्होंने रुआंसे स्वर में पूछा, ‘यार! यह बताओ, शादी हो गई?’ मैंने पूछा, ‘किसकी?’ उन्होंने कहा, ‘करीना की और किसकी? आज किसी और हीरोइन की शादी होने वाली थी?’ ‘हां! मेरे बाबा की है न आज! बाबा और दादी के फेरे हो रहे हैं, मैं पंडाल में खड़ा खाना खा रहा हूं। तू भी आ जा, साथ मिलकर खाते हैं।इतना कहकर मैंने अपने मोबाइल का स्विच आॅफ कर दिया। तीन दिन तक मोबाइल को आॅन करने की हिम्मत नहीं हुई। आपके साथ भी ऐसा हुआ हो, तो बताइएगा।

प्रधानमंत्री जी! कुछ तो बोलिए


-अशोक मिश्र
आदरणीय प्रधानमंत्री जी, सतश्री अकाल। पिछले काफी दिनों से द्विविधा में था। कई बार सोचा कि आपको पत्र लिखूं। सोचता था कि जब आपको अपने ही मंत्रियों के स्याह-सफेद कारनामे पर निगाह डालने और अपने दागी मंत्रियों को बदलने की फुरसत नहीं है, तो मेरे जैसे आम आदमी के आम खत की क्या बिसात है। लेकिन जब आपने ‘सब कुछ बदल डालूंगा’ की गर्जना करके मामूली फेरबदल किया, तो मैंने आपको पत्र लिखने की हिम्मत जुटा ली। प्रधानमंत्री जी, आपकी तस्वीर चैनलों या समाचार पत्र-पत्रिकाओं में जब भी छपी देखता हूं, तो मुझे किसी कवि की नौकरशाहों पर लिखी एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ जाती हैं, ‘आप अफसर हैं, बड़ी खुशी की बात/आप अफसर हैं बड़ी खुशी की बात/आपके चश्मे से सोचा था कम देखते हैं/आप सुनते भी नहीं, बड़ी खुशी की बात।’ उस्ताद मुजरिम बताते हैं कि आप राजनीति में आने से पहले सचमुच बहुत बड़े अफसर रहे हैं। राजनीति में आने के बाद आपने देखना और सुनना ही नहीं, बल्कि बोलना तक छोड़ दिया है। सच बताऊं, प्रधानमंत्री जी! मैं आपकी इसी खूबी का मुरीद हूं। आपकी एक चुप्पी, सवालों की आबरू जो रखती है। यह मंत्र वाकई काफी कारगर है। इसी मंत्र को जपकर मैं आजकल अपने सिर पर आई बला को टालने में सफल हो रहा हूं।
सर, आपको एक बात बताऊं। जब मैं छोटा था, स्कूल में बोलने के चलते अपनी टीचर और सहपाठियों से पिट जाता था। बड़ा हुआ, तो गली-मोहल्लों के लड़कों और अपने भाइयों से बोलने के चलते ही ठोक दिया जाता था। कई बार तो इतना पीटा गया कि हल्दी पीने की नौबत तक आ गई। खुदा न खास्ता, शादी के बाद भी यही दुर्गुण मेरे पिटने का कारण बना। कई बार घरैतिन से हुई ‘जूतम पैजार’ इस मोड़ तक पहुंची कि हम दोनों एक दूसरे को ‘जूते में दाल’ बांटने लगे। कभी घरैतिन पिटीं, तो कभी मैं। लेकिन अब मैं काफी मजे में हूं। आपकी ही तरह मैंने देखना, सुनना और बोलना छोड़ दिया है। बीवी कहती है, चार किलो आलू लाना, तो मैं यह नहीं पूछता कि इतने आलू का करना क्या है? बीवी अगर कहे कि चलती ट्रेन के आगे कूदकर इस पार से उस पार निकल कर दिखाओ, तो यकीन मानिए कि बीवी की ‘हाय-हाय, किचकिच’ से बेहतर है कि ट्रेन के आगे कूद जाऊं। प्रधानमंत्री जी! अब मैं अपने अनुभव यह समझ सकता हूं कि आपके कम बोलने, सुनने और देखने की शुरुआत घर से ही हुई होगी। आंटी जी (मिसेज प्रधानमंत्री) ने वही स्थितियां पैदा की होंगी, जो आज मेरी पत्नी ने मेरी कर दी है। वो कहा गया है न! खग जाने खग की ही भाषा। तो मैं आपकी पीड़ा समझ सकता हूं।
लेकिन प्रधानमंत्री जी! छोटा मुंह बड़ी बात कहूं। मेरे बोलने, सुनने और देखने की शक्ति का ह्रास होने से सिर्फ मेरा व्यक्तिगत नुकसान है। आप हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। आपके बोलने का मतलब है कि इस देश के सवा सौ करोड़ लोग बोल रहे हैं। आपके सुनने का मतलब है कि किसी बात को पूरा एक जीवंत देश सुन रहा है। आप कोई मामूली आदमी नहीं हैं। आप हमारे देश की आन-बान और शान हैं। लेकिन अफसोस कि आप मूक, बधिर का अभिनय करते-करते सचमुच मूक और बधिर हो गए हैं। यह न तो आपके लिए फायदेमंद है, न ही देश के लिए। आपके न बोलने का ही नतीजा है कि आपके ही मंत्रियों में से कोई कोयला खा कर पेट भर रहा है, तो कोई टूजी स्पेक्ट्रम। कोई ‘आदर्श’ घोटाला कर रहा है, तो कोई थोरियम घोटाला।
आपके कुछ सिपहसालार तो ऐसे-ऐसे कच्चे हैं कि उन्हें घोटाला करना भी नहीं आता है। महज सत्तर-बहत्तर लाख रुपये के लिए अपनी इज्जत दांव पर लगाते फिर रहे हैं। कई बार मीडिया में जो खबरें आईं, उससे लगा कि आप सब बदल डालेंगे, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ। आपने हाथ पैर धोकर कह दिया कि पूरा चेहरा धुल गया है। चेहरा ऐसे थोड़े न धुला करता है। बदलना है, तो सब कुछ बदल डालिए। यह क्या कि आपने कुछ प्यादे बदल दिए और कहा कि बदलाव हो गया। अरे जनाब! राजा और वजीर तो वही पुराने वाले हैं। ऐसे में लोग आपको ललकार रहे हैं। आपको कमजोर, डमी पीएम और न जाने क्या-क्या कह रहे हैं। आपकी शान में गुस्ताखियां कर रहे हैं, इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अपनी जड़ता तोड़िए। बोलिए, कुछ तो बोलिए। आपका ही-उस्ताद गुनहगार।

Tuesday, October 16, 2012

‘करसी’ चली गई


-अशोक मिश्र
आप लोगों को एक मजेदार वाकया सुनाऊं। बात उन दिनों की है, जब नया-नया जवान हुआ था। कविताओं से समाज में क्रांति लाने का जज्बा मन में हिलोरें मार रहा था। उन्हीं दिनों नया-नया मार्क्सवादी भी हुआ था। कवि गोष्ठियों में जिन कविताओं में जरा-सा भी शृंगार रस या छायावादी काव्य की झलक मिलती, झट से फरमान जारी कर देता था, ‘अरे यार! यह कवि है या सामंतीवादी टट्टू।’ समंदर की लहरों की तरह ठाठें मारता जोश किसी से भी भिड़ने को तैयार रहता था। मैंने बहस और अंतहीन विवादों से अपना नाता इस तरह जोड़ रखा था, जैसे आंसू और विरह का आपसी रिश्ता होता है। लखनऊ में कोई भी साहित्यिक गोष्ठी हो, अपनी क्रांतिकारी कविताओं और विचारों के साथ मैं हाजिर। इस पुनीत कार्य को संपादित करने के लिए बीस-बाइस किमी तक साइकिल चलाता था। उन दिनों गजल लिखने का नया-नया शौक भी पाला था।

मेरे क्रांतिकारी विचारों और फरमानों का नतीजा यह हुआ कि कवि गोष्ठियों में जैसे ही मैं अपनी गजलें पढ़ता, कुछ मठाधीश टाइप के शायर तुरंत सुना देते, ‘बेटे! तुम्हारी गजलें ‘बहर’ से खारिज हैं, ‘काफिया’ भी दुरुस्त नहीं है, ‘रदीफ’ में सख्ता है।’ दूसरों को अपने फरमान से परेशान करने वाला मैं अब खुद परेशान रहने लगा, कि सारी रात उल्लुओं की तरह जागकर तुक और छंद भिड़ाने के बावजूद ये कमबख्त बहर, काफिया और रदीफ क्यों नहीं काबू आ रहे हैं। इसका जवाब सूझा कि मैं भी इन उर्दूदां लोगों की तरह उर्दू सीखूं और उर्दू अदब का कायदा भी। सो, मैं एक मौलवी जी के सान्निध्य में इस काम में युद्ध स्तर पर जुट गया। कुछ दिनों बाद हिज्जे मिला-मिलाकर उर्दू पढ़ लेने लगा। पारंगत होने के लिए ‘कौमी आवाज’ अखबार भी घर पर मंगाने लगा। एक दिन अखबार में एक शे’र पढ़ा, ‘करने चला सुधार तो करसी चली गई।’ मैं यहां ‘करसी’ शब्द का अर्थ नहीं समझ पाया, तो मैंने लखनऊ के एक मशहूर शायर ‘गाफ नून’ साहब से इसका अर्थ पूछा। उन्होंने समझाया, ‘यह एक क्रांतिकारी गजल है। आपने रामधारी सिंह दिनकर का महाकाव्य उर्वशी पढ़ा है न! उर्वशी का अर्थ ‘उर-वशी’ यानी दिल में बसने वाली भी है। इस शे’र में करसी शब्द भी ‘कर-सी’ यानी कर (टैक्स) की तरह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ यह है कि जब शायर ने अपने आस-पास गरीबों को आर्थिक स्थिति सुधारने के गुर बताए, तो उनकी गरीबी और परेशानियां धीरे-धीरे ठीक वैसे ही खत्म हो गईं, जैसे जनता से धीरे-धीरे सरकार ‘कर’ (टैक्स) के रूप में पैसा खींच लेती है।’

चचा ‘गाफ नून’ के उत्तर से मुझे संतोष नहीं मिला, तो मैंने अपने अजीज मित्र शायर ‘बतकूचन बेढंगी’ से इस पंक्ति का अर्थ पूछा। वे यह शे’र सुनते ही उछल पड़े। उन्होंने शायर को दाद देते हुए कहा, ‘वाह...वाह! क्या उम्दा गजल कही है गजलगो ने। दरअसल, यह कबीरदास के रहस्यवादी और महादेवी वर्मा के छायावादी काव्य परंपरा का मिश्रित शे’र है। मियां! मेरा ख्याल है कि इस पंक्ति में आगे-पीछे कुछ शब्द गायब हैं। जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, पंक्ति कुछ इस प्रकार है, ‘निकाह करने चला सुधार, तो करसी चली गई।’ कहीं किसी गांव में ‘सुधार’ और ‘करसी’ नाम के आशिक-माशूका रहते थे। उनका इश्क जब गली-कूंचे में चर्चित होने लगा, तो माशूका के घरवालों ने ‘करसी’ पर तमाम तरह की बंदिशें लगानी शुरू कर दीं। एक दिन दोनों ने घर से भागकर निकाह करने का मनसूबा बनाया। दोनों नियत समय पर भागकर आशिक के एक दोस्त के घर पहुंचे। उसके बाद दूसरे दिन उनके दोस्त ने उन्हें काजी साहब के सामने निकाह के लिए पेश किया। निकाह हो पाता, इससे पहले घटनास्थल पर माशूका का चाचा आ धमका। डर के मारे माशूका करसी वहां से भाग गई।’
इतना कहकर ‘बतकूचन बेढंगी’ ने जिराफ की तरह गर्व से अपनी गर्दन उठाई, इधर-उधर देखा और चलते बने। मैं शायर ‘बतकूचन बेढंगी’ की व्याख्या से भी संतुष्ट नहीं था। काफी दिनों तक परेशान होकर इसका संभावित अर्थ खोजता रहा, मगजमारी करता रहा। ...लेकिन एक दिन, कुछ सोचते-सोचते मैं अचानक उछल पड़ा। इस पंक्ति का अर्थ मेरी समझ में आ गया था। दरअसल, यह मेरी कमअक्ली ही थी कि मैं उर्दू का बेसिक फंडा ही भूल गया था। उर्दू सिखाते समय मौलवी साहब ने बताया था कि उर्दू में लिखते समय कुछ मात्राएं लगाने का चलन नहीं है। जैसे उ, इ आदि की मात्राएं। यह बात समझ में आते ही शेर कुछ इस तरह बना, ‘करने चला सुधार, तो कुरसी चली गई।’

Sunday, October 14, 2012

‘मदरचेंज’ शॉपिंग मॉल


-अशोक मिश्र

नथईपुरवा गांव में रामभूल काका ने अपनी दस वर्षीय बेटी सुतंतरता (स्वतंत्रता) की पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, ‘तू मेरी जान मत खा, अपनी अम्मा के पास जाकर मर।’ मैंने बुक्का फाड़कर रोती सुतंतरता को पलभर निहारा। उसकी आंख, नाक और मुंह से गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी बहकर ठुड्ढ़ी पर संगम जैसा कोलाज रच रही थी। मैंने रामभूल काका से उलाहने के स्वर में कहा,‘क्या काका! आप भी इस छोटी-सी बिटिया पर अपना क्रोध उतार रहे हैं। यह क्यों रो रही है?’

काका ने अंगोछे से अपना पसीना पोंछते हुए कहा, ‘क्या बताएं बेटा! श्यामता बाबू का बेटा गॉटर अभी थोड़ी देर पहले एक चमकीली पन्नी में लिए कुछ खा रहा था। अच्छा-सा उसका नाम है..खाते समय जो ‘कुर्र..कुर्र’ की आवाज करता है।’ मैंने कहा, ‘कुरकुरे...।’ काका रामभूल ने कहा, ‘हां बेटा! वही...अब ई अंगरेजी नाम तुमही लोग जानो। तो गॉटर को कुरकुरे खाते देख सुतंतरता ने जिद पकड़ ली कि मुझे भी कुरकुरे चाहिए। मैंने इस सुतंतरिया से कहा कि अपनी अम्मा से दो रुपये लेकर माता बदल पंसारी की दुकान से कंपट या टाफी ले लो, लेकिन इसे भवानी उठा ले जाए, यह अइलहवा मोड़ पर खुली ऊ चमक-दमक वाली दुकान से ‘कुर्रकुर्रे’ लेने की जिद सुबह से पकड़े हुए है।’ रामभूल काका की बात में गुस्सा, बेबसी और बेटी को पीटने का अपराधबोध एक साथ झलक रहा था। वे बोले, ‘बेटा! दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद कहीं जाकर सौ-सवा सौ रुपये मजदूरी मिलती है। अब अगर रोज-रोज सुतंतरता दस-बीस रुपये की यह आलतू-फालतू चीजें खरीदने की जिद करेगी, तो गुस्सा आएगा ही। गांव में यह अच्छी बला खोल दी है नासपीटों ने। जब से यह अंगरेजी दुकान खुली है, गांव के लड़के-लड़कियां बिगाड़ रही हैं।’

रामभूल काका की बात सुनते ही मुझे याद आया कि अइलहवा मोड़ पर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अपना शॉपिंग मॉल अभी दो महीने पहले ही खोला है। छह महीने पहले जब मैं गांव आया था, तब यह शॉपिंग मॉल बन रहा था। उस समय शॉपिंग मॉल की बन रही इमारत को देखकर गांव के ही एक स्नातक बेरोजगार से मैंने पूछा था, ‘रंगनाथ भाई! यहां कोई सिनेमा हॉल बन रहा है क्या?’ गहरी सांस लेते हुए रंगनाथ ने कहा था, ‘नहीं भइया! यहां एक शॉपिंग मॉल खोला जाएगा।’ रंगनाथ की बात सुनकर मैं अवाक रह गया। रंगनाथ अपनी रौ में बोले जा रहा था, ‘भइया! आप तो जानते ही हैं, नथईपुरवा में पिछली चार पीढ़ियों से माता बदल पंसारी की दुकान चल रही है। गांव के लोग हल्दी, धनिया, गुड़, साबुन जैसी चीजों पीढ़ियों से माता बदल की दुकान से ही खरीदते आ रहे हैं। पैसा हुआ तो भी, नहीं हुआ तो भी। सुख हो, दुख हो, माता बदल पंसारी ने कभी उधार देने से किसी को मना नहीं किया। लोग सामान उधार लेते रहते हैं और जब अनाज पैदा होता है, तो चुकता कर देते हैं। लेकिन अब लगता है कि माता बदल पंसारी के बुरे दिन आ गए। सुना है, इस मॉल में सुई-धागे से लेकर हवाई जहाज, नमक-मिर्च से लेकर विदेशी कपड़े तक बिका करेंगे। सदियों से गांव में अपनी दुकान चला रहे माता बदल पंसारी की भट्ठी बुझाने और लोगों को लुभाने के लिए इस शॉपिंग मॉल का नाम जानते हो क्या रखा गया है...मदरचेंज शॉपिंग मॉल।’

रंगनाथ को उदास देखकर मैंन ढांढस बंधाते हुए कहा था, ‘रंगनाथ भाई! ये कंपनियां चाहे जो कुछ बेचें, लेकिन ये कंपनियां माता बदल पंसारी की तरह सौदा खरीदने गए बच्चों को ‘घातू’ (सौदा खरीदने गए बच्चों को दुकानदार की तरफ से दिया जाने वाला एक कंपट, भेली का एक टुकड़ा या एक बिस्कुट) तो नहीं देंगी न! तुम देखना, गांव के बच्चे घातू की लालच में इन कंपनियों की बड़ी-बड़ी दुकानों की ओर मुंह नहीं करेंगी। उन्हें घातू खाने की आदत जो पड़ गई है।’ लेकिन आज सुतंतरता को पिटने के बाद भी कुरकुरे खाने की जिद पर अड़ा देखकर मुझे लगा कि शायद मैं गलत सोच रहा था। मैंने रोती सुतंतरता को दस रुपये का नोट पकड़ाया और आगे बढ़ गया।

जुलाहे से लट्ठम लट्ठा


-अशोक मिश्र

लाला लक्ष्मी दयाल इंटर कालेज में दसवीं कक्षा की हिंदी विषय की अर्धवार्षिक परीक्षा में एक सवाल पूछा गया था, ‘सूत न कपास, जुलाहे से लट्ठम-लट्ठा’ मुहावरे का उदाहरण सहित अर्थ बताओ। इस स्कूल के एक होनहार छात्र ने मुहावरे का अर्थ बताते हुए उदाहरण दिया। भारत के किसी गांव में दो बुजुर्ग गप्प गोष्ठी जमाए बैठे थे। एक बुजुर्ग ने तंबाकू मलकर होठों के नीचे दबाने के बाद पिच्च से जमीन पर थूकते हुए कहा, ‘रामबचन! तुम यह समझो कि केजरीवाल के प्रधानमंत्री बनने की देर है, बस। इधर वे प्रधानमंत्री बने कि हम लोगों के दुख-दलिद्दर समझो दूर हो गए। गांधी बाबा (महात्मा गांधी) तो सुराज (स्वराज्य) ही लाए थे, ये तो सुराज और क्रांति दोनों ला रहे हैं। एक दवा से काम न चले, तो दूसरी दवा हाजिर है।’

रामबचन ने सिर पर बंधी पकड़ी उतारकर सिर खुजाते हुए कहा, ‘भुलावन भाई! सुराज और क्रांति सब भ्रमजाल हैं। आजादी से पहले गांधी बाबा के सुराज का बड़ा हल्ला था। आजादी तो आई, लेकिन सुराज पता नहीं कैसे रास्ता भटककर अमीरों के घर पहुंच गया और उनके घर की पहरेदारी करने लगा। जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने कहा कि वे देश की गरीब जनता के लिए ‘समाजवाद’ ला रहे हैं। वे पता नहीं कैसा समाजवाद लाए कि गरीबों की दुर्गति हो गई। उनकी बेटी ने जब गद्दी संभाली, तो ‘गरीबी हटाओ’ नारे की ओट में वे गरीबों को ही हटाने लगीं। गरीब-गुरबा त्राहि-त्राहि कर उठे। गरीबों की दुर्दशा देखकर जेपी बाबू बिलबिला उठे। उन्होंने कहा कि अब गरीबी हटाओ से काम नहीं चलेगा, संपूर्ण क्रांति करनी होगी। लेकिन भाग्य फेर देखो, कुछ दिन आंदोलन चलाने के बाद उनकी संपूर्ण क्रांति साबुन के झाग की तरह न जाने कहां बिला गई। इसके बाद बड़े-बड़े दार्शनिक आए, विचारक आए, संत आए, महात्मा आए, निरहू आए, घुरहू आए, लेकिन सब बेकार। कभी नागनाथ प्रधानमंत्री बने, तो कभी सांपनाथ। सबने हमारे दुख-दलिद्दर को दूर करने की बीन बजाई,। हमारा दुख-दलिद्दर तो दूर नहीं हुआ, लेकिन उनकी सात पीढ़ियों का दुख-दलिद्दर जरूर दूर हो गया। सबने कहा कि गरीबी दूर करना हमारी पहली प्राथमिकता है, लेकिन पिछले साठ-पैंसठ साल से दो पीढ़ियां तो इसी भ्रमजाल में जीते-जीते बूढ़ी हो गईं। आज तक न सुराज आया, न संपूर्ण क्रांति हुई। हां, हम सबकी दुर्दशा जरूर हो गई। नोन, तेल, लकड़ी जुटाने में ही पूरी जिंदगी बिला गई।’

‘केजरीवाल अन्ना हजारे के चेले हैं, अन्ना हजारे अपने को गांधी बाबा का चेला कहते हैं। तुम देखना, राम बचन! गुरु गुड़ ही रहेगा, चेला शक्कर हो जाएगा। गांधी और अन्ना का यह चेला अपने गुरुओं से कहीं आगे जाएगा। हमने तो सुना है कि हिमालय पर्वत पर पिछले सौ साल से तपस्या कर रहा कोई योगी आया था, उसने केजरीवाल को कोई सिद्ध मंत्र दिया है जिसका जाप करते ही उसकी पार्टी के सारे उम्मीदवार दूध से धुल जाएंगे। उनके चरित्र पर कोई दाग नहीं रह जाएगा। भ्रष्टाचार की ओर तो वे आंख उठाकर नहीं देखेंगे। एक हफ्ता पहले जंतर-मंतर पर केजरीवाल को देखा नहीं, केंद्र सरकार पर कैसे गरज रहे थे। एकदम सुभाष बाबू की तरह।’ राम भुलावन ने जमीन पर पास रखी लाठी उठाकर पटकते हुए कहा,‘टीवी पर मैंने देखा था, जब वे बोल रहे थे, तो उनके सिर के चारों ओर एक आभा घूमती दिखाई दे रही थी। जैसे संतों-महात्माओं के होती थी पुराने जमाने में।’

‘भुलावन भाई! ये चेला ही तो सारी खुराफात की जड़ हैं। ऊंच-नीच करते खुद हैं और फोकट में बदनाम होते हैं उनके गुरु। तुमने देखा नहीं, गांधी के चेलों ने गांधी को किस तरह बेच दिया, मानो वे घर में फालतू पड़ी रद्दी हों। देखना एक दिन अन्ना के ये चेले अन्ना को भी बेच खाएंगे।’ रामबचन के इतना कहते ही राम भुलावन तमतमाकर उठ खड़े हो गए और लाठी हाथ में ले ली, ‘चोट्टे! तूने मेरे गांधी बाबा को रद्दी कहा। तू अपने आपको समझता क्या है? तेरी सारी मस्ती अभी झाड़ता हूं।’ इतना कहकर रामभुलावन ने रामबचन के सिर पर लाठी दे मारी। सिर से खून बहता देखकर राम बचन हलाल होते बकरे की तरह चिल्लाए, तो उनके बेटे घर से निकल आए और फिर गांव में दोनों पक्षों में जमकर लाठियां चलीं। कई लोगों के हाथ-पांव टूटे, सिर फूटे और पुलिस ने दोनों तरफ के दस-दस, बारह-बारह लोगों को गिरफ्तार कर लिया।

Tuesday, September 18, 2012

ये ‘पुंगी’ कैसे बजती है?

अशोक मिश्र

मेरा दस वर्षीय बेटा स्कूल से आया, तो मैंने लाड़ जताते हुए कहा, ‘आ गए लख्ते जिगर।’ बेटे ने रोज की तरह बस्ते को सोफे पर बड़ी बेमुरौव्वती से पटका और कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए पूछा, ‘पापा! ये पुंगी कैसे बजती है? और फिर यह पुंगी है क्या बला? मुझे आज शाम को मार्केट में चलकर एक पुंगी दिला दीजिए। मैं भी दिन भर बजाऊंगा।’ बेटे की बात सुनकर मैं चौंक गया, ‘क्या मतलब?’ बेटे ने मामले की पूंछ पकड़ाते हुए कहा, ‘वो एक गाना है न! एजेंट विनोद का। कहां चल दी, कहां चल दी, प्यार की पुंगी बजाके। यह गाना मैं रोज सुनता हूं, लेकिन आज तक यह नहीं जान पाया कि यह पुंगी आखिर भला बजती कैसे हैं?’


यह सवाल सुनकर मैंने गहरी सांस ली, ‘बेटा! मैं भी आज तक नहीं जान पाया कि यह पुंगी बजती कैसे हैं? यह तो निराकार ब्रह्म की तरह है, जिसकी बजती है, वही जानता है, लेकिन किसी दूसरे को बता नहीं पाता है कि उसकी पुंगी बजाई जा रही है।’ अब चौंकने की बारी बेटे की थी, ‘क्या मतलब? यह कौन सी बात हुई भला! जिसकी बजती है, वह किसी दूसरे को कैसे नहीं बता पाता?’ मैंने दार्शनिक अंदाज में कहा, ‘पुत्तर! पिछले पंद्रह साल से तेरी मम्मी रोज मेरी पुंगी बजाती हैं, लेकिन आज तक मैं किसी से नहीं बता पाया। ठीक वैसे ही जैसे अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पिछले सात-आठ साल से पूरे देश की पुंगी बजा रहे हैं, लेकिन मजाल है कि कोई चूं चपड़ भी कर पाए। यूपीए सरकार नंबर दो की पुंगी ‘दीदी’ बजा रही हैं। दीदी की पुंगी बजाने पर ‘बहन जी’ और ‘नेता जी’ तुले हुए हैं। उत्तर प्रदेश में नेता जी के सुपुत्र की पुंगी बजाने को बहन जी तैयार बैठी हैं। बस, मौका मिलने की देर है।’ बेटे ने मासूमियत से कहा, ‘पापा! आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई। मनमोहन सिंह, दीदी, बहन जी और नेताजी का समीकरण मेरी समझ में नहीं आया। जरा आप विस्तार से बताएं।’

‘बेटे! बात यह है कि पिछले सात-आठ साल से भ्रष्टाचार और घोटालों के माध्यम से केंद्र की सरकार आम जनता का कचूमर निकालने पर तुली हुई है, तुम्हारे शब्दों में जनता की पुंगी बजा रही है। केंद्र सरकार को समर्थन दे रही तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता दीदी गाहे-बगाहे समर्थन वापसी की धमकी देकर सरकार से अपने मनमुताबिक फैसले करवा लेती हैं। लेकिन दीदी की इस कूटनीति की हवा उत्तर प्रदेश की बहन जी और नेताजी बाहर से बिना शर्त समर्थन देकर निकाल देते हैं।’ मैंने बेटे को विस्तार से समझाने की कोशिश की, ‘इस बात को तुम दूसरे उदाहरण से समझो। 


अपने गुजराती रोल मॉडल नरेंद्र मोदी पिछले चार-पांच साल से राजनीतिक अखाडे में लंगोट कसे भाजपाइयों और संघियों को ललकार रहे हैं कि है कोई मेरे मुकाबले में तुम्हारे पास मुझसे अच्छा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार। लेकिन उनकी पार्टी के साथ गठबंधन किए बैठे नीतीश बाबू एक हद से ज्यादा बढ़ने पर उनकी पुंगी बजा देते हैं। वे कहते हैं कि संप्रग के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कोई सेकुलर होना चाहिए। लोग यह समझते हैं कि आज की राजनीति में सेकुलर मतलब नीतीश बाबू है। लेकिन नीतीश की पुंगी मराठी माणुस बाल ठाकरे यह कहकर बजा देते हैं कि सुषमा जी से बढ़िया प्रधानमंत्री का उम्मीदवार न अतीत में कोई हुआ है, न भविष्य में कोई होगा। फिल्म ‘पीएम : इन वेटिंग’ के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर आडवानी दादा अपनी पुंगी अलग ही बजा रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि राजनीति में हर कोई एक-दूसरे की पुंगी बजाने पर तुला हुआ है। बाकी वास्तव में पुंगी क्या बला है? अगर यह जानना हो, तो अपनी मम्मी से पूछो। शायद उन्हें मालूम हो।’


बेटे ने अपनी मम्मी को आवाज लगाई। घरैतिन ने किचन से निकलकर पूछा, ‘काहे को बाप-बेटे सिर पर आकाश उठाए हुए हो?’ नूर-ए-नजर ने मेरी कमअक्ली की बात दोहराते हुए वही सवाल दागा, तो घरैतिन ने तल्ख स्वर में कहा, ‘अक्लमंदों की जगह मंदअक्लों से ऐसी ज्ञान की बात पूछोगे, तो होगा क्या? दरअसल, पुंगी एक किस्म के कागज और चमकीली ‘पन्नी’ से बना बाजा है, जो मेले-ठेले में पांच-दस रुपये में बच्चे खरीदकर बजाते हैं। याद करो, पिछले महीने तुमने एक कागज का बाजा खरीदा था जिसमें फूंक मारने पर ‘पूं...ऊ..ऊ..ऊ..ऊ’ की आवाज निकलती थी जिसे तुमने तीन दिन और रात बजा-बजाकर भेजा फ्राई कर दिया था।’ बेटे ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘अच्छा...तो वो पुंगी है?’ इतना कहकर वह स्कूल की ड्रेस चेंज करने चला गया और मैं पुंगी की तरह मुंह बाए बैठा रहा।

Wednesday, September 5, 2012

बिल्लो रानी! कहो तो...

अशोक मिश्र                                                                                                                                                                                               मुसद्दी लाल आफिस जाने के लिए घर से निकले ही थे कि अपने दरवाजे पर खड़े प्रपंची राम दिख गए। उनके हाथ में एक मोटा-सा डंडा था जिसको वे लाठी की तरह कंधे पर रखे क्रोधित बैल की तरह नथुने से फुफकार छोड़ रहे थे। प्रपंची राम लपक कर मुसद्दी लाल के आगे आ खड़े हुए और बोले, ‘सुनो! तुम्हारा बेटा तो तुम्हारे हाथ से निकल गया। उसकी करतूत को देखकर तो मन करता है कि जड़ दूं तुम्हारे कान के नीचे एक कंटाप। तेरी हरकतों को देखकर ही मुझे लगता था कि एक दिन तेरा बेटा तुझसे चार जूता आगे निकलेगा। आज मेरी बेटी बिल्लो रानी को प्रेमपत्र देकर उसने साबित कर दिया कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’ प्रपंची राम की बात सुनकर मुसद्दी लाल को गुस्सा आ गया। उन्होंने तल्ख स्वर में कहा, ‘क्या बक रहे हैं आप? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। लाल बुझक्कड़ी छोड़िए और आपको जो कुछ कहना है, साफ-साफ कहिए। मुझे आफिस के लिए दे हो रही है।’
प्रपंची राम ने घूरते हुए कहा, ‘कहूंगा तो है ही। कहने के लिए ही तो तुम्हारा थोबड़ा सुबह-सुबह देख रहा हूं, वरना तू ‘सनी लियोन’, मलाइका अरोड़ा खान या मल्लिका शहरावत नहीं है कि तेरे दीदार को सुबह-सुबह अपने दरवाजे पर खड़ा रहूं। बात दरअसल यह है कि तम्हारे साहबजादे जनाब खुरपेंची राम अभी थोड़ी देर पहले मेरे घर के सामने से होकर स्कूल जा रहे थे। संयोग से उसी समय मेरी बेटी ‘बिल्लो रानी’ भी स्कूल जाने के लिए घर से निकली। मेरी बेटी को देखते ही आपके लख्तेजिगर ने अपने स्कूली बैग से प्रेमपत्र निकाला और मेरी बेटी को जबरदस्ती पकड़ा दिया। उसके बाद वह शायराना अंदाज में मेरी बेटी से बोला, डॉर्लिंग! मेरा प्रेमपत्र पढ़कर तुम नाराज ना होना। इसके बाद वह नामाकूल ‘बिल्लो रानी! कहो तो अभी जान दे दूं’ गाता हुआ चला गया। मैं दरवाजे के पीछे खड़ा सब सुन रहा था। पहले तो सोचा कि तुम्हारे सुपुत्र को लगाऊं एक हाथ, ताकि तबीयत हरी हो जाए। लेकिन फिर अभी कुछ ही दिन पहले एक मुख्यमंत्री का दिया गया बयान याद आया कि यदि कोई अपराध करे, तो उसके बाप को पकड़ो और उसे पीटो। अगर कोई बेटा आवारा, बदचलन, चोर-डाकू निकलता है, तो इसके लिए उसका बाप दोषी है। इसलिए आप तुम्हारे बेटे की खता की सजा तुझे भोगनी पड़ेगी।’
प्रपंची राम की शिकायत सुनकर मुसद्दी लाल चौंक गए। मन गी मन कहने लगे, ‘हूंऊ...साहबजादे मेरा ही रिकॉर्ड तोड़ने चले हैं। आज से पच्चीस साल पहले मेरा और छबीली का टांका तो चौदह साल की उम्र में भिड़ा था। लेकिन मेरे ‘नूरेनजर’ खुरपेंची राम के तो अभी दूध के दांत भी टूटे नहीं हैं। बारह साल की उम्र में चले हैं इश्क फरमाने।’ मुसद्दी लाल ने प्रपंची राम से कहा, ‘अरे भाई! ठंड रखो...ठंड। पहले सच-सच यह बताओ कि जब मेरे बेटे ने आपकी बेटी बिल्लो रानी को प्रेम पत्र दिया, तो आपकी बेटी ने क्या कहा, उसके चेहरे का भाव कैसा था?’
प्रपंची राम ने सोचने वाली मुद्रा अख्तियार कर ली। बोले, ‘पत्र पाकर पहले तो मेरी बेटी शरमाई और फिर उसने झट से बैग में रख लिया और बोली, सुनो! तुम स्वीटी से बात मत किया करो। मुझे अच्छा नहीं लगता।’ अब गरजने की बारी मुसद्दी लाल की थी, ‘जब इश्क लड़ाने के अपराध में तुम्हारी बेटी भी बराबर की भागीदार है, तो सिर्फ मेरी या मेरे बेटे की पिटाई क्यों? तुम्हारी भी पिटाई होनी चाहिए। बोलो क्या कहते हो?’ मुसद्दी लाल ने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बरखुरदार! इन स्थितियों के लिए दोषी भी हम ही लोग हैं। हमारे पास इतनी फुरसत ही नहीं है कि हम यह देख सकें कि हमारे बेटे-बेटियां क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं? क्या पढ़-लिख रहे हैं? हमने उन्हें तमाम सुख-सुविधाएं देकर समझ लिया है कि हमारा कर्तव्य पूरा हो गया। हमने उनसे दोस्ती करने, उनके साथ बोलने-बतियाने, खेलने-कूदने की जरूरत ही नहीं समझी। हमने तो सिर्फ पैसा कमाने और उसे परिवार पर खर्च को ही अपना कर्तव्य मान लिया है। ऐसे में यह नई पीढ़ी क्या करेगी। वह ऐसे ही गुल-गपाड़े करेगी और हम उन पर अंकुश लगाएंगे, तो वे बगावत करेंगे। आप निश्चिंत रहें, अपने बेटे को समझाऊंगा। उसके साथ दोस्ती करके उसका विश्वास जीतूंगा और उसे कुछ बनने को प्रेरित करूंगा। आप भी अपनी बेटी के दोस्त बनकर उसे समझाएं। सही रास्ते पर लाएं।’ इतना कहकर मुसद्दी लाल चलते बने।

आखिर कब होगा विहान?


अशोक मिश्र   

देश के अन्य राज्यों के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा, बलरामपुर, बस्ती, बहराइच, बाराबंकी आदि जिलों में एक जनजाति बसती है थारू। थारू जनजातियों की महिलाओं को न तो अपना अधिकार मांगना पड़ता है, न ही उन्हें इसके लिए किसी पंचायत, न्यायालय या पुलिस के पास जाने की जरूरत होती है। यह उनकी परंपरा में है। यदि पुरुष को मनचाही स्त्री को रखने की इजाजत है, तो स्त्री को भी यह अधिकार मिला हुआ है कि वह जब चाहे अपनी पसंद के पुरुष के साथ रह सकती है ( ठीक लिव इन रिलेशन की तरह), उसके साथ पहले पति को त्यागकर विवाह कर सकती है। हां, इसके लिए बस जातीय पंचायत में अपनी बात रखनी होगी। इस जनजाति में न तो नारी दलित है, उत्पीड़ित है, न शोषित है, और न ही शोषक की भूमिका में है। यहां न दहेज की समस्या है, न ही दैहिक या मानसिक शोषण की। स्त्री और पुरुष जनजातीय मर्यादाओं और परंपराओं में बंधे होने के बावजूद स्वतंत्र होते हैं। इनकी जनजातीय व्यवस्था में शोषण का कहीं कोई स्थान नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि इनका शोषण, दोहन या उत्पीड़न नहीं होता है। इनका शोषण, दोहन और उत्पीड़न का माध्यम बनती हैं इनकी जातीय व्यवस्था से इतर की व्यवस्थाएं।
ऐसा क्यों है? इसका विश्लेषण करने पर एक बड़ा रोचक तथ्य सामने आता है। वह यह कि थारू और इनकी जैसी अन्य जनजातियां ज्यादातर आज भी घुमंतू ही हैं। इनके पास निजी संपत्ति के नाम पर तंबू, कनात, छेनी, हथौड़ी, कुल्हाड़ी, पेशागत अन्य औजार, बकरी, भैंस आदि ही होते हैं।
खेत या खलिहान जैसी व्यवस्था घुमंतूपन की वजह से इनके किसी काम की नहीं है। परिवार का मुखिया स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी हो सकता है, लेकिन उस परिवार के सभी सदस्यों का उत्पादन के साधनों यानी निजी संपत्ति पर समान अधिकार होता है। यदि किसी वजह से इस जनजाति की स्त्री या पुरुष के बीच संबंध विच्छेद होते हैं, तो सभी चीजों का बराबर बंटवारा होता है। यही वजह है कि इन जनजातियों में स्त्रियां स्वतंत्र होती हैं। महिलाओं की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को सुधारने में इस आदिवासी मॉडल को अपनाया जा सकता है। यदि नहीं, तो महिलाओं की राजनीतिक और सामाजिक चेतना और उनकी बदतर स्थिति को सुधारने में महिला आरक्षण विधेयक को पास कर, उसे कानून बनाकर उनमें आत्म विकास की ज्योति जगाई जा सकती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी का निहितार्थ समझते थे, तभी तो पहली लोकसभा के गठन के बाद सन 1952 में उन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ाने की अपील की थी। उन्होंने अपने पत्र में लिखा था, ‘आज जब मैं संसद के दोनों सदनों के लगभग सात सौ सदस्यों के साथ मिल रहा था, तो मैंने पाया कि इन सदस्यों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। मैं समझता हूं कि ऐसा ही विधानसभाओं और कौंसिलों में भी होगा। यह किसी का विरोध करने या किसी की तरफदारी करने का मामला नहीं है। यह मेरा विश्वास है कि हमारा वास्तविक और आधारभूत विकास तभी हो सकता है, जब सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहने की पूर्ण स्वतंत्रता महिलाओं को मिले।’ नेहरू की मंशा को न तो तब किसी ने समझने की जरूरत समझी और न ही आज उन्हें समझने का प्रयास किया जा रहा है। यदि राजनीतिक दलों ने आपसी भेदभाव भुलाकर महिलाओं की उन्नति की दिशा में प्रयास किया होता, तो शायद आज महिलाओं की यह दयनीय दशा नहीं हुई होती।
काफी जद्दोजहद के बाद 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 में पारित कर सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देकर उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। नतीजा सबके सामने है। आज देश में लगभग साढ़े सात लाख ग्राम पंचायतें हैं जिनमें से लगभग साढ़े चार लाख चुनी गई महिला सरपंच गांव और समाज के विकास में अहम भूमिका अदा कर रही हैं। महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सरकार का यह कदम मील का पत्थर साबित हो रहा है।
अगर हम इन पंचायतों में चुनी गई महिलाओं की गणना करें, तो यह विश्व में संसद, विधानसभाओं और अन्य क्षेत्रों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या से बहुत ज्यादा है। इसके बावजूद स्थिति संतोषजनक नहीं है। आजादी के पैंसठ सालों में देश ने कई मामलों में उल्लेखनीय प्रगति की। दूरसंचार, सैन्य, औद्योगिक विकास और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हमारे देश की प्रगति ने अमेरिका, चीन, रूस जैसी महाशक्तियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, लेकिन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण के मामले में हमने कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं हासिल की है। राजनीतिक पार्टियां संसद से बाहर तो महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की तरफदारी करते हुए नहीं अघाती हैं, लेकिन संसद सत्र के दौरान उनका हृदय परिवर्तन हो जाता है। आम राय के नाम पर महिला आरक्षण बिल आज तक लटका हुआ है।
ऐसी स्थिति सिर्फ हमारे देश में ही हो, ऐसा भी नहीं है। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में रवांडा, स्वीडेन, क्यूबा, फिनलैंड, नेपाल, अफगानिस्तान और साउथ अफ्रीका जैसे पिछड़े और अविकसित देश दुनिया की महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका, रूस, चीन और भारत से कहीं आगे हैं। अविकसित   और पिछड़े देशों में शुमार साउथ अफ्रीका सन 2004 में निम्न सदन के लिए हुए चुनाव में 400 में से 132 महिलाएं और सर्वोच्च सदन के लिए हुए चुनाव में 54 में से 22 महिलाएं चुनी गई थीं। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् 2006 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में 435 सीटों में से महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 73 थी, वहीं उच्च सदन में सौ सीटों के मुकाबले 16 महिलाएं ही पहुंची थी। सन 2009 में हुए आम चुनाव में भारतीय महिलाओं के लोकसभा में पहुंचने का आंकड़ा इन देशों के मुकाबले तो और भी कम रहा। 543 सीटों के लिए हुए चुनाव में सिर्फ 59 महिलाएं ही संसद में पहुंच सकीं, उस पर भी इस देश की नेताओं ने यह कहकर अपनी पीठ थपथपाई कि सन 1952 से लेकर आज तक इतनी महिलाएं लोकसभा में नहीं पहुंची थीं। यदि महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण मिल जाता है, तो भी उनकी स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। आज भी हमारे देश की महिलाओं की दशा कई पिछड़े और अविकसित कहे जाने वाले देशों के मुकाबले बदतर है।

कम भ्रष्ट बनाम ज्यादा भ्रष्ट


-अशोक मिश्र
नवगठित ‘मन्ना पार्टी’ के प्रदेश कार्यालय में भारी भीड़ थी। ‘मन्ना पार्टी’ का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर जब राम निहोर जी पहली बार पार्टी कार्यालय आए, तो पिछले कई महीने से राम निहोर जी की गणेश परिक्रमा कर रहे कुछ मुंहलगे कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय नेतृत्व के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए एक समारोह प्रदेश कार्यालय में आयोजित किया। इसमें पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव ‘अनशन प्रसाद’ भी बुलाए गए। राष्ट्रीय महासचिव अनशन प्रसाद, नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष राम निहोर जी सहित कई छुटभैये नेताओं के मंचासीन होते ही कार्यकर्ताओं ने जोश में नारे लगाना शुरू किया, ‘भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाएंगे, मन्ना जी को प्रधानमंत्री बनाएंगे!...भ्रष्टाचार का नाश हो! सदाचार की जय हो!’ कार्यक्रम का संचालन कर रहे ‘लंबित लोकपाल’ ने सदाचारी कार्यकर्ताओं को शांत रहने का इशारा करते हुए कहा, ‘साथियो! आप सबको मालूम है कि दूसरे गांधी के खिताब से नवाजे गए मन्ना जी भारत को भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बनाने के संकल्प के साथ एक राजनीतिक विकल्प खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। इसी प्रयास के तहत राम निहोर जी को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। आप सब यह जानते ही होंगे कि मन्ना पार्टी में आने से पहले राम निहोर जी ‘राष्ट्रीय हेराफेरी संस्थान’ के अध्यक्ष थे, लेकिन आदरणीय मन्ना जी के आह्वान पर ये अपना सर्वस्व त्यागकर पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता बने और अब प्रदेश अध्यक्ष। मैं राष्ट्रीय महासचिव अनशन प्रसाद जी से आग्रह करता हूं कि वे दो शब्द कहकर हमें दिशा-निर्देश दें, ताकि हम उनके बताए मार्ग पर चल सकें।’
सबसे पहले बुलाए जाने से खफा महासचिव अनशन प्रसाद ने माइक को मजबूती से पकड़कर लगभग गुर्राते हुए कहा, ‘साथियो! आप सबके बीच अपने को पाकर मैं धन्य महसूस कर रहा हूं। एक बात आप साथियों से कहने का मन हो रहा है। बात यह है कि मन्ना दादा ने अनशन खत्म करने की घोषणा भले ही की हो, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अभी जारी है। हमारा केंद्रीय नेतृत्व देश भर में घूम-घूमकर भ्रष्टाचार के खिलाफ वातावरण तैयार कर रहा है। चूंकि अभी पूरा देश भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो सका है, ऐसे में पार्टी की मजबूरी है कि वह कुछ मामलों में लचीला रुख अपनाए। अत: जरूरत पड़ी, तो सिर्फ बीस फीसदी भ्रष्ट या दागी नेताओं को संगठन और पंद्रह फीसदी से कम भ्रष्ट व्यक्ति को सरकार में शामिल किया जाएगा।’
-इतना कहकर अनशन प्रसाद ने कार्यकर्ताओं पर एक निगाह डाली, ‘साथियो! अगर हम साफ-सुथरे और बेदाग छवि वाले अपेक्षित उम्मीदवारों को चुनने में असफल रहे, तो देश-विदेश से लाखों-करोड़ों रुपये अनुदान लेकर गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) चलाने वालों को प्राथमिकता दी जाएगी। एक ही शहर में आयोजित दो कार्यक्रमों में भाग लेने के बाद दोनों संस्थाओं से आने-जाने का किराया लेकर डकार जाने वाले को चुनाव के दौरान पार्टी टिकट देने में सत्रह फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। लाखों रुपये आयकर बकाया रखने वालों को भी प्रमुखता दी जाएगी। ‘अब या तो मेरी लाश ही यहां से उठेगी या फिर सरकार मांगे मानेगी’ कहकर आमरण अनशन पर बैठने और बाद में सेहत की आड़ में अनशन से भाग लेने वालों को मन्ना पार्टी न केवल मंत्रिमंडल में शामिल करेगी, बल्कि उसे दूसरे राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान प्रचार भेजा जाएगा।’
महासचिव की बात सुनकर नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष राम निहोर जी मुस्कुराए और फिर एकाएक गंभीर हो गए। उधर, महासचिव अनशन प्रसाद अपनी रौ में बोलते जा रहे थे, ‘आप लोग तो पिछले पैंसठ साल की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह समझ ही गए होंगे कि इस देश में बेदाग और सदाचारी लोगों की बहुत कमी है। आजादी के एकाध दशक तक तो ईमानदार, सद्चरित्र और नैतिक आचरण को आत्मसात करने वाले मंत्री, सासंद, विधायक, नेता और अधिकारी बीस-पच्चीस फीसदी पाए जाते थे, लेकिन अब पूरी आबादी में एकाध प्रतिशत ही ऐसे लोग बचे होंगे। हमारी पार्टी ऐसे गुणी व्यक्तियों को विलुप्त प्राय मानती है और इनको संरक्षित करने के लिए चुनाव टिकट देने से लेकर पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण पद देने का प्रयास कर रही है। इस पर भी बात नहीं बनी, तो हमारी पार्टी कम भ्रष्ट लोगों को टिकट देकर उन्हें पहले संसद और विधानसभा में पहुंचाएगी और फिर हृदय परिवर्तन कर उन्हें सद्चरित्र, ईमानदार और नैतिक बनाने का प्रयास करेगी। लेकिन, एक बात आप लोगों के सामने स्पष्ट कर दूं, हमारी पार्टी की सरकार बनने पर दाल में नमक बराबर भ्रष्टाचार करने वालों को तो आम माफी दी जाएगी, लेकिन इससे ज्यादा भ्रष्ट लोगों को इस देश में रहने की कोई जगह नहीं मिलेगी।’ इतना कहकर महासचिव अनशन प्रसाद ने उपस्थित भीड़ को अभिवादन किया और अपनी जगह पर बैठ गए।

आइए, कहानी-कविता चुराएं


-अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार मुझको बता रहे थे, ‘पाकेटमारी और चोरी दो अलग-अलग विधाएं हैं। पाकेटमारी कला का जन्म और विकास अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद हुआ था। मेरे परदादा बताते थे कि शाहजहां के शासनकाल में जब पहला अंग्रेज भारत आया था, तो गोवा में मेरे लक्कड़दादा के लक्कड़दादा ने उनकी पाकेट मार दी थी। उसके पाकेट में इंग्लैंड के अलावा एक जहांगीरी सिक्का भी था। यह जहांगीरी सिक्का आज भी हमारे परिवार का मुखिया अपने उत्तराधिकारी को सौंप जाता है। लेकिन यह मुई चौरवृत्ति वैदिक युग से ही चली आ रही है। चौरकर्म का प्रमाण पहली या दूसरी शताब्दी में गुप्तकाल में रची गई शूद्रक की मृच्छकटिकम में भी मिलता है। इसमें एक चोर ब्राह्मण रात में अपनी जनेऊ से नाप-नापकर कलात्मक सेंध तैयार करता है और सुबह हो जाने की वजह से पकड़ा जाता है।’
‘लेकिन आप मुझे यह सब क्यों बता रहे हैं?’ आजिज आकर मैंने पूछा। आज सुबह सोकर उठा भी नहीं था कि उस्ताद गुनहगार लगभग नक्सलियों की तरह घर में आ घुसे। मैं उनको देखते ही समझ गया कि हो गया दिन का सत्यानाश। कहां सोचा था कि बारह बजे तक सोकर छुट्टी का जश्न मनाऊंगा। उस्ताद गुनहगार ने तंबाकू फांकते हुए कहा, ‘वही बताने तो मैं सुबह-सुबह आया हूं, वरना न तो तू कोई देव है और न ही तेरा घर कोई तीर्थस्थान। कल एक पार्क में ‘कपि गोष्ठी’(कवि गोष्ठी को गुनहगार यही कहते हैं) हो रही थी। मैंने सोचा, चलो एकाध अच्छी कविताएं सुनने को मिलेंगी। इसी आशा में वहां बिछी दरी पर जा बैठा। वहां एक ‘जवानी दिवानी’ टाइप की कवयित्री भी आई हुई थीं। माइक पकड़कर वह पहले तो अपने लटके-झटके दिखाती रहीं और फिर उन्होंने गोपालदास नीरज की एक गजल अपनी कहकर हम सब के सिर पर दे मारा। हद तो यह थी कि सारे बेवकूफ श्रोता उस जवानी दिवानी के हर लफ्ज पर ‘वाह...वाह’ कहते रहे।’
गुनहगार की बात सुनकर मैं गंभीर हो गया। मैंने कहा, ‘उस्ताद, साहित्यिक चोरियां तो इधर कुछ सालों से बहुत बढ़ गई हैं। मैं आपको एक किस्सा बताऊं! मेरे एक कवि मित्र हैं ढपोरशंख जी। उनका यह तखल्लुस इतना चर्चित हुआ कि लोग असली नाम भूल गए। वे पिछले दस सालों से इनकी गजल, उनके गीत, फलाने का मुक्तक, ढमकाने का छंद अपने घर में रखे साहित्यिक खरल में डालते हैं और उसे दस-बीस घंटे तक घोंटते रहते हैं। और फिर, उस खरल से नए-नए गीत, छंद, गजल और मुक्तक मनचाही मात्रा में निकाल लेते हैं। गली-मोहल्ले में होने वाली कवि गोष्ठियों से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में वे बड़ी हनक से अपनी कहकर गीत, गजल और छंद पढ़ते हैं। मजाल है कि इस साहित्यिक हेराफेरी पर कोई चूं-चपड़ कर सके।’
मेरी बात सुनकर गुनहगार सिर हिलाते रहे। फिर बोले, ‘हां मियां! साहित्यिक चोर तो कबीरदास, तुलसीदास और रहीमदास से लेकर निराला, पंत, महादेवी वर्मा तक और आज के तमाम प्रख्यात कवियों, कथाकारों और कहानीकारों की ‘वॉट’ लगाने पर तुले हुए हैं। इन रचनाओं के रीमिक्स तैयार किए जा रहे हैं। कोई माई का लाल विरोध करने वाला भी नहीं है। मैं तुम्हें क्या बताऊँ। मेरे एक परिचित लेखक हैं। कई पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। पहली पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी, तभी कुछ लोगों ने दबी जुबान से उन पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया था। बाद में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों को लेकर भी लोगों ने यही आरोप दोहराया, तब भी मुझे विश्वास नहीं हुआ। दो साल पहले जब मैं एक मासिक पत्रिका का संपादक बनाया गया, तो वे मुझे मिलने मेरे दफ्तर आए। बड़ी गर्मजोशी से मिले और जाते समय अपनी तीन रचनाएं मुझे थमा गए। मैंने उनसे तीनों रचनाएं एक-एक करके छाप दी। इन रचनाओं के छपने के चार-पांच महीने बाद एक दिन मेरे नाम नोटिस आई कि मेरे परिचित ने अपनी बताकर जो तीनों रचनाएं मेरी पत्रिका में छपवाई थीं, वे तीनों रचनाएं वास्तव में महात्मा गांधी, दक्षिण भारत के एक प्रख्यात दार्शनिक और मोहम्मद अली जिन्ना की थीं।’
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘उस्ताद! साहित्यिक चोरी की गंगोत्री में जब सभी डुबकी मार रहे हों, तो फिर हम लोग ही इतनी मगजमारी क्यों करें। आइए, हम लोग भी दूसरों की कहानी-कविता, लेख चुराकर राष्ट्रीय स्तर के कवि, कहानीकार और लेखक बन जाते हैं।’ ‘चुपकर नासपीटे! ऐसा करके बाप-दादाओं का नाम डुबोएगा क्या? खबरदार! जो ऐसा करने की सोची, खाल खींच लूंगा तेरी।’ इतना कहकर उस्ताद उठे और चलते बने।

कमाल के आदमी है बेनी बाबू


-अशोक मिश्र
‘बेनी बाबू कमाल के आदमी हैं। वे जो कुछ भी बोलते हैं, एकदम बिंदास। खांटी नेता जो ठहरे। और जो खांटी होता है, वह ऐसा ही होता है। चाहे वह नेता हो या मुझे जैसा पाकेटमार। खांटी हमेशा हानि-लाभ के समीकरण से ऊपर होता है। वैसे भी बाबा तुलसीदास कह गए हैं कि हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ। जब सब कुछ लोकतांत्रिक विधि यानी मतदाताओं के हाथ में है, तो काहे दूसरों की लल्लो-चप्पो की जाए। सीधे मतदाताओं को न पटाया जाए। जियो राजा बनारस! तुम्हारी इसी बेबाकी के मुरीद तो हम सब हैं।’ काफी दिनों बाद आज मेरे घर पधारे उस्ताद मुजरिम ‘बेनी प्रसंग’ छिड़ने पर बनारसी अंदाज में अपने सद्विचार प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होंने प्याले में फूंकमार कर ‘सुर्र...’ की आवाज करते हुए चाय सुड़की और बोले, ‘क्या मजेदार बात कही है, अपने बेनी बाबू ने। वाकई इतना बड़ा जिगरा है किसी नेता में। सब गुड़ खाकर ‘गुलगुले’ से परहेज करते हैं। ढोंगी हैं सबके सब।’
उस्ताद मुजरिम धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। उस्ताद की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मैंने मुजरिम की बात काटते हुए कहा, ‘उस्ताद! एक बात बताएं। जिसने जेठ की चिलचिलाती दुपहरिया में सूखते कंठ से खेतों में हल चलाने की पीड़ा ने झेली हो, सावन-भादो की अंधेरी रात में छत से टपकती पानी की बूंदों से बचाने के लिए अपनी कथरी-गुदरी को बचाने की कोशिश में रातभर जागा न हो या माघ-पूस की पाले वाली रात में भूखे पेट न सोया हो, वह गरीबों और किसानों की व्यथा का अंदाजा लगा सकता है। मैं तो इस बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं कि जाके पैर न फटी बिंवाई, वह क्या जाने पीर पराई। आप इसे बेनी बाबू की बेबाकी कहते हैं। यह उनकी बेबाकी नहीं, सत्ता की ठसक है। वे मंत्री पद के नशे में चूर हैं। अगर बेनी बाबू किसी निजी कंपनी में दस-दस, बारह-बारह घंटे खटने के बाद पांच-दस हजार रुपये कमाते, तब उनसे पूछता कि महंगाई बढ़ने से उनका कितना फायदा हुआ है। बीवी की फटी धोती से झांकते अंगों को ढक न पाने की बेबसी, दवाइयों के अभाव में रात भर कराहती बूढ़ी मां की पीड़ा और बच्चे की फीस के तगादे के बीच वे बढ़ती महंगाई का जश्न कैसे मनाते, यह मैं भी देखता। बेनी बाबू मंत्री हैं, उनके पास अकूत पैसा है, उन्होंने अपनी सात पुश्तों की व्यवस्था कर ली। वे चाहें तो बिसलरी पानी से नहा सकते हैं, रोज मुर्ग मुसल्लम खा सकते हैं, उनके लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं है।’
मेरी बात सुनकर उस्ताद मुजरिम पहले तो मुस्काराए, ‘नहीं रे लल्लू! यह सत्ता की ठसक नहीं, सावन-भादों में बौराई छिछली नदी की तरह गरीबों के प्रति उमड़ता उनका प्रेम है। वे सच्ची बात बोलते हैं। बेनी बाबू जैसा सच बोलने वाले इस दुनिया में विरले ही होते हैं। अब देखो न! बेनी बाबू ने सच क्या बोला, विपक्षियों को तो छोड़िए, उनकी ही पार्टी के लोग उनका टेंटुआ दबाने को तैयार हैं। मीडिया वाले अलग छाती पीटकर स्यापा कर रहे हैं। हाय बेनी बाू ने यह क्या कह दिया, हाय बेनी बाबू ने ऐसा क्यों कह दिया। अरे भइया! बेनी बाबू को जो कहना था, कह दिया। आप क्यों हाय-तौबा मचाए हुए हो। सच्ची बात तो यह है कि छाती पीट-पीटकर स्यापा करने वाले इन मीडिया कर्मियों और नेताओं में सच कहने, लिखने और दिखाने की हिम्मत तो बची नहीं, सुबह से शाम तक ख्याली पुलाव पकाने वालों को सच्ची बात कैसे पच सकती है। खुदा न खास्ता, उनके बीच कोई सच्चा बंदा पहुंच जाता है, तो ये झू्ठे और चोट्टे नेता उसी का गला दबाने पर उतारू रहते हैं।’
मैंने कहा, ‘उस्ताद! आपसे यह उम्मीद नहीं थी। लोगों की पाकेट मारते-मारते कहीं आप अपनी आत्मा को तो नहीं मार बैठे?’ मेरी बात सुनकर मुजरिम ठहाका लगाकर हंसे और बोले, ‘नहीं रे! मेरी आत्मा मरी नहीं है। मैं तो यह देखना चाहता था कि तुम्हारी आत्मा जिंदा है या नहीं। वैसे तुम्हारी बात ठीक है। मैं उससे इत्तफाक रखा हूं।’ इतना कहकर उस्ताद मुजरिम उठे और छड़ी से टेकते हुए खरामा-खरामा (धीरे-धीरे) अपने घर चले गए।

काश! गाजी मियां होते...



-अशोक मिश्र
एक थे गाजी मियां। उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में कहीं रहते थे। एकाध दशक पहले नहीं, दो चार सदी पहले पैदा हुए थे। अवध क्षेत्र में उनसे बड़ा लंतरानीबाज कोई पैदा नहीं हुआ है। न भूतो न भविष्यति। उनके बारे में एक से बढ़कर एक लंतरानियां और किस्से मशहूर हैं, कुछ श्लील भी, तो अश्लील भी। जो काम कोई नहीं कर सकता, उसे अपने गाजी मियां चुटकी बजाते ही कर डालते थे। अवध क्षेत्र के लाल बुझक्कड़, नजूमी या भविष्यवता आप जो कुछ भी समझें, वह सब कुछ थे गाजी मियां। किसी के बेटा होगा या बेटी? परदेश गया पिया लौटेगा या वहीं किसी के चंचल के नयनों का शिकार होकर रह जाएगा? इसकी पूरी जानकारी रखते थे गाजी मियां। अवध के नवाब साहब की नइकी बेगम किसी खानसामे के साथ गहना-गुरिया लेकर रफूचक्कर हो गई, तो उसको पकड़ मंगाने का जिम्मा गाजी मियां का। नवाब साहब की बकरी को उधर जुकाम हुआ नहीं कि गाजी मियां काढ़ा लेकर तैयार खड़े हैं। गाजी मियां तो सावन-भादों में होती मूसलाधार बारिश को तब तक के लिए रोक रखने में सक्षम थे, जब तक नवाब साहब शिकार से वापस नहीं आ जाते। सूरज-चांद, सितारों से लेकर आंधी, पानी, आग सब कुछ गाजी मियां के माध्यम से नवाब साहब के गुलाम थे। ऐसे थे अवध क्षेत्र की मशहूर शख्स गाजी मियां।
आप कल्पना कीजिए। अगर आज के युग में गाजी मियां पैदा हुए होते, तो क्या होता। अपने अन्ना दादा को न तो बार-बार अनशन पर बैठने की जरूत थी, न ही अन्ना टीम को राजनीतिक पार्टी बनाने की जहमत उठाने की। अन्ना दादा के संकेत करने भर की देर थी, गाजी मियां ऐसा मंत्र फूंकते कि सारे सांसदों का हृदय परिवर्तन हो जाता और वे एक सुर में लोकपाल विधेयक को पास करा देते। स्वामी रामदेव को बेकार में ‘कालाधन-कालाधन’ चिल्लाने की कतई जरूरत नहीं थी। गाजी मियां मात्र एक ‘पल्टासन’ से विदेशी बैंकों का खाता ही उलट-पलट देते। जो भारतीय आज अपना काला-सफेद धन लेकर विदेशी बैंकों की ओर भाग रहे हैं, गाजी मियां की एक घुड़की विदेशी बैंकों के अवसान ढीले कर देती। सारे विदेशी बैंक अपने यहां के ग्राहकों को अपना पैसा न केवल भारतीय बैंकों में जमा कराने को प्रोत्साहित करते, बल्कि अपने यहां जमा पैसा भी विदेशी बैंक हमारे यहां लाइन लगाकर जमा करते। लेकिन अफसोस है कि गाजी मियां को जब पैदा होना चाहिए था, तब वे पैदा नहीं हुए। जब उनकी कोई जरूरत नहीं थी, तो वे ‘पट्ट’ से धरती पर आ टपके। शायद विधाता से यहीं चूक हो गई।
पिछले पैंसठ सालों से हमारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हर साल गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस पर ऐलान करते आ रहे हैं कि हमारी पहली प्राथमिकता देश से गरीबी, बेकारी, भुखमरी और शोषण को दूर करना है। हम अपने देश की जनता को खुशहाल देखना चाहते हैं। लेकिन आज तक न गरीबी दूर हुई, न बेरोजगारी में कहीं कोई कमी आई, न भ्रष्टाचार दूर हुआ। गरीब का बच्चा आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है। काश! आज अगर अपने गाजी मियां होते, तो ये सारी समस्याएं होती ही नहीं। न कोई बेरोजगार होता, न शोषण, दोहन और उत्पीड़न। प्रधानमंत्री आते, लाल किले पर झंडा फहराते और मीठी-मीठी बातें करके चले जाते क्योंकि खट्टी/कड़वी बातें करने की जरूरत ही नहीं थी। देश में जितनी भी समस्याएं होतीं, उन्हें तो अपने गाजी मियां पहले ही साल्व कर चुके होते। लेकिन दोस्तो! अगर गाजी मियां आज होते, तो इतना तय है कि गली-कूंचे से लेकर राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को कहीं मूंगफली बेचनी पड़ती या  चाट का ठेला लगाना पड़ता। इनकी राजनीतिक दुकान ही नहीं खुल पाई होती। जब देश में भ्रष्टाचार करने का मौका ही नहीं मिलता, तो भला ये नेता राजनीति में क्या भाड़ झोंकने आते। देश में रामराज्य होता, तो फिर नेताओं की जरूरत ही क्या थी? इनको तो कोई टके के भाव भी नहीं पूछता। और अगर नेता नहीं, तो शायद अपने देश में ये समस्याएं होती ही नहीं। अब आप इसे मेरी लंतरानी समझेंगे, तो समझते रहिए। मेरी बला से। एक लंतरानी आपको सुनानी थी, सो सुना दी। आप इस पर कान दें, न दें, आपकी मर्जी।

Monday, July 23, 2012

‘खटमल’ करेंगे रक्तदान


-अशोक मिश्र
मित्रो! मैं आपको अपना परिचय दे दूं। मैं खटमल हूं। मेरा जीवन ही रक्त चूसने से चलता है। मेरा दावा है कि दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति ने, चाहे वह किसी भी देश का राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो या फिर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले आम आदमी, उसने अपने जीवन में एक बार जरूर देखा होगा। मैं कुर्सियों, सोफों, बिस्तर और दीवारों के साथ-साथ कई अन्य जगहों पर भी पाया जाता हूं। आपको बहुत पहले का एक मजेदार किस्सा बताऊं। एक व्यक्ति के कंधे पर चढ़कर उत्तर प्रदेश के किसी गांव-देहात के बाजार में जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस मेले में एक खूबसूरत हीरोइन दिख गई। मेले के माहौल की वजह से मैं रोमांटिक हो चला था। मैं रेंगता हुआ, हीरोइन के जमीन पर लटक रहे दुपट्टे पर से होता हुआ चोली में पहुंच गया। चोली में पंहुचते ही पता नहीं क्यों और कैसे, मुझे शरारत सूझ गई। मैंने चुपके से काट लिया। हीरोइन तिलमिलाकर गा उठी, ‘बीच बजरिया खटमल काटे, कैसे निकालूं चोली से।’
तो अब आप इस किस्से से मेरे सब जगह मौजूद रहने की खासियत से परिचित हो ही गए होंगे। अगर मैं आपको अपने सर्वत्र मौजूदगी को इस तरह समझाऊं कि मैं ‘हिग्स फील्ड’ में अदृश्य रूप में  मौजूद रहने वाले हिग्स बोसॉन कणों की तरह हूं, जो मौजूद तो हर जगह रहता है, लेकिन वैज्ञानिकों को विशेष भौतिक वस्तु परिस्थितियों यानी प्रयोगशालाओं में ही दिखाई देता है, तो मेरा ख्याल है कि आप बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। एक बात मैं आपको और बता दूं। मेरी इस खास प्रवृत्ति पर अभी तक वैज्ञानिकों की दृष्टि नहीं पड़ी है। मैं जब चाहे, अपना रूपांतरण भी कर सकता हूं। आपको विश्वास नहीं हो रहा है, तो आपने आसपास के वातावरण को गौर से देखिए, आपको मेरी मौजूदगी का एहसास हो जाएगा।
अजी आपको मेरे रूपांतरित स्वरूप को तलाशना चाहें, तो राजनीति में सबसे ज्यादा मिलेंगे। कुछ लोग तो ‘खटमली’ प्रवृत्ति को इस तरह अख्तियार कर बैठे हैं, मानो वे पैदायशी खटमल हों। कुर्सी की चाह में पार्टी और आलाकमान से खटमल की तरह चिपके रहे, जोड़-जुगत करके किसी तरह अगर कुर्सी मिल गई, उससे चिपक गए। एक बार कुर्सी से चिपकने का मौका क्या मिला, लगे अपनी वंश वृद्धि करने। वंश वृद्धि हुई, तो पूरे कुनबे के साथ लगे आम आदमी का खून चूसने। दूसरे खटमल लाख चिल्लाते रहें कि तुम्हारा पेट भर गया हो, तो हमें भी मौका दो, लेकिन ये दूसरों को तब तक मौका नहीं देते, जब तक कुर्सी से ढकेल नहीं दिए जाते। नौकरशाही अर्थात् ब्यूरोक्रेसी का और भी बुरा हाल है। कई ब्यूरोक्रेट्स तो आम आदमी का इतनी बुरी तरह से रक्त शोषण करते हैं कि हम खटमलों को भी शर्मिंदा होना पड़ता है। तब हम वास्तविक खटमलों को लगने लगता है कि निरीह आदमियों के साथ कुछ ज्यादा ही ज्यादती हो रही है। सो, हमने पिछले दिनों ‘वास्तविक और कायांतरित खटमलों’ ने मिलकर एक मीटिंग बुलाई थी। इस मीटिंग का निष्कर्ष यह निकला कि हम लोग जिनका रक्त शोषण करते हैं, उनमें से ज्यादातर एनीमिया (खून कम होने की बीमारी) से पीड़ित हैं। ऐसे रक्त शोषितों में खून बनने की प्रक्रिया फिर से शुरू हो, इसके लिए जरूरी है कि उनकी नशों में थोड़ा-बहुत रक्त हो, इसलिए हम सबने मिलकर रक्त शोषितों के हित में रक्तदान का फैसला लिया है। जिस व्यक्ति को रक्त चाहिए, वह निस्संकोच हमसे संपर्क कर सकता है।
मित्रो! आप जानते ही हैं कि हम खटमल निरपेक्ष भाव से जो भी मिल जाता है, उसका रक्त शोषण करते हैं। इस मामले में हम जाति-धर्म, भाषा-प्रांत, अमीर-गरीब या ब्लड ग्रुप का भेदभाव नहीं करते हैं। हर तरह का ब्लड ग्रुप हमारे लिए सुपाच्य है। हमारी नशों में बहने वाला रक्त पांचवें किस्म का ब्लड ग्रुप बन जाता है जिसमें सभी किस्म के एंटीबॉडी और एंटीजन समान मात्रा में मौजूद रहते हैं। हां, धार्मिक, सीधा-सादा और परोपकारी व्यक्ति अगर हमारा खून चढ़ाए जाने के बाद चोर, कपटी, विश्वासघाती, देशद्रोही या आपराधिक प्रवृत्ति का हो जाए, तो इसके लिए हम किसी भी तरह से दोषी नहीं होंगे। ये सारे गुण आप लोगों के रक्त से होकर ही हम खटमलों तक पहुंचे हैं। खुदा हाफिज!

Tuesday, July 10, 2012

सेकेंड हैंड जवानी


-अशोक मिश्र
मेरे पड़ोस में रहते हैं  चचा गबोधर। चचा गबोधर मेरे कोई सगे-संबंधी नहीं हैं। जब से इस मोहल्ले में आया हूं, उन्हें चचा कहता आ रहा हूं। मेरी पत्नी भी उन्हें चचा कहती है, मेरे बेटी-बेटा भी उन्हें चचा ही कहते हैं। खुदा न खास्ता, अगर आज मेरे मरहूम वालिद जन्नतनशीं न हुए होते, तो वे भी उन्हें चचा ही कहते। मेरे कहने का मतलब यह है कि वे मोहल्ले के ही नहीं, पूरे जिले के चचा हैं। कई बार तो मजा तब आता है, जब कब्र में पांव लटकाए पचहत्तर वर्षीया ‘युवा’ परदादी उन्हें चचा कहती हैं, तो वे बेचारे खिसिया जाते हैं। लेकिन यह खिसियाहट मात्र कुछ ही क्षण रहती है। वे पहले की तरह फिर सामान्य हो जाते हैं। चचा गबोधर हम युवाओं में काफी लोकप्रिय हैं। उनकी लोकप्रियता का कारण उनकी खुशमिजाजी और रसिकपना है। वे ऐसी-ऐसी रसीली बातें करते हैं कि उनके पास से उठने का मन ही नहीं करता है।
रविवार की शाम को मैं उनके घर में बैठा चाय सुड़कते हुए पकौड़े भकोस रहा था। चचा की बातें ‘चटनी’ का काम कर रही थीं। अपनी पड़ोसिन छबीली और रसीली को लेकर चचा गबोधर बड़े तरन्नुम में आलाप भर रहे थे। तभी उनके बारह वर्षीय बेटे ‘डमडम’ ने प्रवेश किया। डमडम को देखते ही चचा अपनी बात कहते-कहते रुक गए। चचा ने बेटे डमडम को प्रश्नवाचक निगाहों से देखा, तो बेटे ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘पापा! जुम्मन अंकल से एक सवाल पूछना था।’ मैंने अपने मुंहबोले ‘भाई कम भतीजे’ की मदद करने की नीयत से तपाक से कहा, ‘हां...हां बेटे! पूछो क्या पूछना है?’
‘अंकल! आज सुबह चैनल पर फिल्म ‘कॉकटेल’ का एक गाना आ रहा था। उस गाने में सैफ अंकल से साथ दीपिका आंटी और एक दूसरी आंटी (जिनका नाम मुझे नहीं मालूम है।) बड़ी लिपट-चिपटकर गाती हैं ‘नहीं चाहिए मुझको तेरी सेकेंड हैंड जवानी। उसके साथ ही तुक भिड़ाने को ‘ऐंड जवानी’, ‘तेरी बैंड जवानी’ जैसे शब्द आते हैं, मैं लाख सिर खपाने के बावजूद अब तक ‘सेकेंड हैंड जवानी’ का अर्थ नहीं जान पाया हूं। अंकल, आप मुझे क्या उदाहरण सहित इस सेकेंड हैंड जवानी का अर्थ समझा देंगे।’ डमडम का सवाल सुनते ही मेरे ही नहीं, चचा गबोधर के हाथ के तोते उड़ गए। तमतमा उठे चचा। वे बेटे को डांटने वाले ही थे कि मैंने उन्हें चुप रहने का इशारा करते हुए कहा, ‘बेटे! तुम अभी छोटे हो। तुम्हें इन सब गानों के चक्कर में पड़कर अपनी पढ़ाई बरबाद मत करो।’
‘नहीं अंकल! स्कूल में मेरी गर्लफ्रेंड शोशो है न, उसको भी इसका मतलब बताना है। कल उसी ने तो मुझसे पूछा था इसका मतलब।’ डमडम ने मासूमियत से सफाई दी। पता नहीं क्यों, मुझे लगा कि अगर अभी बच्चे की उत्सुकता शांत नहीं की गई, तो वह किसी और से पूछेगा। दूसरा उसको क्या बताएगा, इसकी क्या गारंटी है। मैंने समझाने वाले लहजे में कहा, ‘जब किसी व्यक्ति की शादी हो जाती है और बाद में वह किसी लड़की से इश्क या शादी करने की सोचता है, तो उस लड़की के लिए उस व्यक्ति की जवानी सेकेंड हैंड हो जाती है।’ मेरी बात सुनकर डमडम कुछ गंभीर हुआ। उसने अपनी नाक पर गिर आए चश्मे को दुरुस्त करते हुए कहा, ‘अंकल! मैं समझ गया। अब मैं शोशो को भी इसका अर्थ संदर्भ सहित बता सकता हूं।’
मैंने उत्सुकता जताई, ‘क्या समझ गए?’ उसने उत्साहपूर्वक कहा, ‘अब जैसे उस गाने में सैफ अंकल और दीपिका और दूसरी वाली आंटी का ही मामला लें। चूंकि सैफ अंकल की शादी अमृता आंटी से एक बार हो चुकी है, तो सैफ अंकल की जवानी दीपिका और दूसरी वाली आंटी के लिए फर्स्ट हैंड तो नहीं रही न। उन दोनों आंटियों के लिए सैफ अंकल तो सेकेंड हैंड ही हुए न। एक उदाहरण और बताऊं, अंकल! अभी थोड़ी देर पहले आप और पापा छबीली और रसीली आंटी के बारे में ‘गल्लां-बातां’ (बातचीत) कर रहे थे। छबीली और रसीली आंटी के लिए मैं तो फर्स्ट हैंड हूं और ये दोनों आंटियां मेरे लिए सेकेंड हैं, लेकिन आप दोनों वे दोनों और उन दोनों के लिए आप दोनों सेकेंड हैंड ही हैं।’ इतना कहकर डमडम मुस्कुराता हुआ कमरे से बाहर चला गया। उसके जाते ही चचा गबोधर फट पड़े, ‘मियां जुम्मन! यह नई पीढ़ी तो समझो, निकम्मी निकल गई। इस पीढ़ी से अब मुझे तो कोई उम्मीद रही नहीं, एकदम बेकार है यह नई पीढ़ी। इसके अभी से पर निकल आए हैं।’ चचा गबोधर लगभग आधे घंटे तक नई पीढ़ी को उपदेश देते रहे और मैं चुपचाप सुनता रहा।

Sunday, July 1, 2012

तीन करोड़ का चूहा


-अशोक मिश्र
जांच अधिकारी मिस्टर मुसद्दी लाल ने चौकीदार कल्लन मियां से पूछा, ‘तीन करोड़ का गेहूं गायब हो गया और तुम्हें पता नहीं चला?’ कल्लन मियां ने पान की पीक गेहूं की बोरियों पर थूकते हुए कहा, ‘साहब! इस देश से बहुत कुछ गायब हो जाता है, किसी को कुछ पता चलता है क्या? फिर तीन करोड़ रुपये के गेहूं की क्या बिसात है!’
‘क्या मतलब?’ मुसद्दी लाल चौंक पड़े, ‘तुम्हारे कहने का मतलब क्या है?’ कल्लन मियां दांतों के बीच फंसी मोटी सुपाड़ी को चबाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘सर, आप अधिकारी हैं। मेरी नौकरी आपकी कलम की मोहताज है। आप चाहें, तो मेरी नौकरी ले सकते हैं और चाहें, तो बचा सकते हैं। लेकिन सर! एक बात पूछूं? इस देश के नेताओं की नैतिकता, सेवा और लोककल्याण की भावना कब गायब हो गई, आपको पता चला? अधिकारियों की कर्तव्य परायणता नामक चिड़िया कब फुर्र हो गई, किसी को पता चला? भ्रष्टाचार रूपी बाज ने देखते ही देखते सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, अधिकारियों से लेकर हम चपरासियों की ईमानदारी को निगल लिया, आपको या देश के किसी नागरिक को पता चला? दूर क्यों जाते हैं? मेरे पड़ोसी जुम्मन मियां की बेटी को कल भरे चौराहे से कोई उठा ले गया, जिन पर हम सबकी सुरक्षा का भार था, उसे पता चला? नहीं न! ठीक उसी तरह इस गोदाम से कब तीन करोड़ रुपये के गेहूं गायब हो गए, हमें पता नहीं चला।’
इस पूछताछ के दौरान गोदाम के अफसर और अन्य कर्मचारी हाथ बांधे जांच अधिकारी मुसद्दी लाल के आगे पीछे डोल रहे थे। ये गोदाम के अधिकारी और कर्मचारी चाहते थे कि मुसद्दी लाल कुछ ले-देकर मामले को रफा-दफा कर दें, लेकिन मुसद्दी लाल थे कि पूरे मामले को बेपर्दा करने पर ही उतारू थे। उन्होंने कल्लन को घूरते हुए कहा, ‘मियां! कुछ भी हो, तुम्हें तो यह बताना ही पड़ेगा कि तीन करोड़ के गेहूं आखिरकार गए कहां? यह गेहूं तुम लोगों ने या तो किसी ब्लैकमार्केटिए या बिस्कुट कंपनी को बेच दिया है या फिर खुद खा गए हो। चलो, मान लिया कि तुम लोगों की लापरवाही से यह गेहूं सड़ गया है, तो तुम लोग यह सड़ा हुआ गेहंू ही क्यों नहीं दिखा देते। मैं अपनी रिपोर्ट में लिख दूंगा। तुम लोग भी बच जाओगे और मेरी जांच भी पूरी हो जाएगी।’
कल्लन मियां को ऐसी जांचों का अच्छा खासा तजुर्बा था। वहीं, बगल में खड़े बड़े बाबू घबराहट में बार-बार जीभ फिराकर होठों को तर कर रहे थे क्योंकि चौकीदार के बाद पूछताछ उनसे ही होने वाली थी। कल्लन के मुंह की सुपारी शायद अब तक छोटे-छोटे टुकड़ों में तब्दील हो चुकी थी। उन्होंने ‘पिच्च’ से एक बार फिर बोरियों पर थूकते हुए कहा, ‘साहब! सच बताऊं। जितना भी गेहूं गायब है, वह सारा गेहूं चूहे खा गए हैं। अगर बाकी बचे गेहूं की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं होती, इसे भी चूहे खा जाएंगे और हम आप बस हाथ मलते रह जाएंगे।’
मुसद्दी लाल यह सुनकर उछल पड़े, ‘क्या चूहे खा गए? यह कैसे हो सकता है। कोई दो-चार किलो गेहूं तो था नहीं कि उसे चूहे खा जाएं और किसी को पता भी नहीं चले। यह पूरे तीन-चार सौ मीट्रिक टन गेहूं का मामला है। इतना गेहूं चूहे कैसे खा सकते हैं। कितने चूहों ने खाया होगा इतना सारा गेहूं?’ मुसद्दी लाल की बात सुनकर कल्लन मियां हंस पड़े, ‘साहब! इस देश में जिधर निगाह दौड़ाइए, मुझे तो चूहे ही चूहे नजर आते हैं। अरे! पूरे देश को चूहों ने कुतर कर रख दिया है और आप चूहों की संख्या पूछते हैं। आप किसी भी महकमे की कार्यप्रणाली देख लें। ऊपर से नीचे तक चूहे ही चूहे भरे हुए हैं। कोई कागज कुतर रहा है, तो कोई देश की पूरी अर्थव्यस्था को कुतरने में लगा हुआ है। कोई सरकारी योजनाओं को कुतर रहा है, तो कोई जनता की जेब। छत्तीसगढ़ में तो डॉक्टरों को कुछ नहीं मिला, तो वे औरतों की बच्चेदानी ही कुतर गए। अब आप कहां-कहां तक चूहेदानी लगाकर इन चूहों को पकड़ते फिरेंगे।’ इतना कहकर कल्लन मियां बगलवाले स्टोर में गए और एक चूहादानी लेकर लौटे। उसमें एक भारी भरकम चूहा कैद था। उन्होंने जांच अधिकारी मुसद्दी लाल को थमाते हुए कहा, ‘साहब! इस चूहे को ले जाइए और सरकारी खजाने में इसे जमाकर दीजिए। अपनी जांच रिपोर्ट में लिख दीजिए कि यही वह चूहा है जो तीन करोड़ रुपये के गेहूं खा गया है।’ इतना कहकर कल्लन मियां एक तरफ खड़े होकर पान चबाने लगे और मुसद्दी लाल कभी कल्लन को, तो कभी चूहे को निहारते रहे।

Wednesday, June 20, 2012

एक खत प्रधानमंत्री के नाम


 -अशोक मिश्र

आदरणीय प्रधानमंत्री जी, नमस्कार। सत्श्री अकाल! गुडमार्निंग। आपको अपना परिचय दे दूं। मैं एक मामूली-सा जेबतराश यानी पॉकेटमार हूं। मैं कबीरदास की तरह ‘मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ’ वाली कटेगरी का थंब ग्रेजुएट (अंगूठा छाप) हूं, लेकिन अपने काम में इतना माहिर हूं कि लोग मुझे उस्ताद मुजरिम कहते हैं। मेरा दावा है कि अगर मेरी अंगुलियों के नाखून में फंसा ब्लेड सुरक्षित रहे, तो मैं आपके पर्स को भी अपना बना सकता हूं। सर जी, आप जैसे बुजुर्गों और खैरख्वाहों की दुआओं के चलते अपनी ‘क्राइम यूनिवर्सिटी’ काफी अच्छी तरह से चल रही है। एक से बढ़कर एक प्रतिभावान विद्यार्थी हर साल निकल रहे हैं। प्रधानमंत्री जी, आपको यह बात बताते हुए मुझे फख्र महसूस हो रहा है कि हमारी यूनिवर्सिटी से शिक्षित-प्रशिक्षित विद्यार्थी चोर हो सकते हैं, पॉकेटमार हो सकते हैं, गुंडे-बदमाश हो सकते हैं, लेकिन वे न तो विश्वासघाती होंगे और न ही महिलाओं से जुड़ा कोई जुर्म करते हुए पाए जाएंगे। ‘उस्ताद मुजरिम क्राइम यूनिवर्सिटी’ के कई स्टूडेंट्स तो दाऊद भाई की कंपनी में अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं। डी कंपनी के कई उम्दा शूटर्स अपने ही सिखाए हुए बच्चे हैं। प्रधानमंत्री जी, अगर मैं यह कहूं कि बड़े, छोटे और मंझोले डॉन अपनी ही यूनिवर्सिटी की छात्र रह चुके हैं, तो यह छोटा मुंह बड़ी बात होगी। यही नहीं, अपने कई चेले-चपाटे तो राजनीति में घुसे हुए हैं और आपके आशीर्वाद से अच्छा कमा-खा रहे हैं। इन चेले-चपाटों के सामने एक ही दिक्कत है, जो आपके सामने इस आशा से रखना चाहता हूं कि आप उनकी कुछ मदद करेंगे।

आदरणीय प्रधानमंत्री जी, आपको शायद जानकारी न हो कि पूरे देश में कट्टा-बंदूक, बम, चाकू-छुरी बनाने का व्यवसाय कुटीर उद्योग का रूप लेता जा रहा है। आपसे निवेदन है कि यदि इस बार संसद सत्र के दौरान विधेयक लाकर इस कथित अवैध उद्योग को कुटीर उद्योग का दर्जा दिलवा दें, तो इस देश के करोड़ों छुटभैये नेता, गली-कूंचे के गुंडे और चोर और उनके परिवार आपके ऋणी रहेंगे। आप तो अर्थशास्त्री हैं, आपको तो पता ही होगा कि सरकारी स्तर पर इसे कुटीर उद्योग का दर्जा मिलते ही सांसद, विधायक, मंत्री और नौकरशाहों के साथ-साथ कुछ बड़े घराने भी इसमें पूंजी निवेश करेंगे। इससे इस दम तोड़ते उद्योग को संजीवनी मिल जाएगी। जो नेता, अधिकारी और मंत्री अपनी काली कमाई को स्वीटजरलैंड के बैंकों में जमा कराते आ रहे हैं, कुटीर उद्योग का दर्जा मिलते ही इसमें पैसा लगाना सेफ समझने लगेंगे। आपके देश की खुफिया एजेंसियां लाख प्रयत्न करने के बाद भी इंडियन मुजाहिद्दीन, सिमी जैसे देशी और कुछ विदेशी आतंकवादी संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पकड़ नहीं पातीं, लेकिन खुफिया एजेंसियों की सक्रियता के चलते हथियार और विस्फोटक वे चीन, पाकिस्तान और अमेरिका से मंगाते हैं। अगर गोला-बारूद, बम-पिस्तौल से लेकर राकेट लांचर और एलएमजी, एमएमजी जैसी चीजें देश में ही सस्ती और रियायती दरों पर उपलब्ध हो जाएं, तो आप सोचिए कि भारत में विदेशी मुद्रा का भंडार काफी बढ़ जाएगा। विदेशी आतंकी सिर्फ अपनी जेब में विदेशी करंसी और दिमाग में सीरियल बम धमाकों का प्लान लेकर आएंगे और यहां से विस्फोटक आदि खरीदकर अपनी योजना को अंजाम दे देंगे। इस उद्योग को कानूनी दर्जा न मिलने और खुफिया एजेंसियों की सक्रियता के चलते बेचारों को विस्फोटक और अन्य चीजों को पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान आदि देशों से ढोकर लाना पड़ता है।

सर जी, आपसे निवेदन यह है कि जिस तरह तेल कंपनियों को घरेलू और व्यावसायिक गैस सिलिंडरों, मिट्टी के तेल आदि की बिक्री पर सरकार सब्सिडी प्रदान करती है, उसी तरह कट्टा-बम उद्योग को भी रियायत दी जाए। हथियारों के उत्पादन और बिक्री पर भले ही मैन्यूफैक्चरिंग और सेल्स टैक्स वसूला जाए, लेकिन इन हथियारों को रखना और उपयोग में लाना कानूनी बना दिया जाए। मेरा तो दावा है कि हर घर में कुछ न कुछ हथियार होने का नतीजा यह होगा कि महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध में निश्चित रूप से कमी आएगी। अब आदमी महिलाओं को अबला समझकर छेड़छाड़ नहीं कर पाएगा। सड़क पर चलने वाली सीधी-सादी सी दिखने वाली लड़की कब पेट में चाकू हूल दे, यही सोचकर कोई भी शोहदा उसके किनारे नहीं जाएगा। आशा है कि आप मेरी बात पर विचार करेंगे और संसद में विधेयक पेश कर बम-कट्टा उद्योग को कुटीर उद्योग का दर्जा दिलवाएंगे।


आपका ही-मुजरिम।

Friday, June 15, 2012

अक्ल और बादाम का रिश्ता

-अशोक मिश्र
किसी स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने कहा है कि तंदुरुस्ती हजार नियामत है। इसी नियामत को बरकरार रखने के लिए प्रत्येक रविवार को हम बाप-बेटे अपने मोहल्ले के पार्क में सुबह उठकर दौड़ लगाते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि जब मैं आलस्य के चलते दौड़ने जाने में आनाकानी करता हूं, तो मेरा आठ वर्षीय बेटा ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ की तर्ज पर मुझे मेरा बल याद दिलाता है। बेटे के उत्साह को देखते हुए मैं भी उठकर उसके साथ हो लेता हूं। अब आपको आज का ही वाकया सुनाऊं। सुबह मैं अपने बेटे के साथ पार्क की साफ-सुथरी जगह छोड़कर गड्ढों वाली जगह पर दौड़ लगा रहा था। मैं आगे था और मेरा बेटा पीछे। तभी गड्ढे में पैर पड़ने से मेरा बेटा लड़खड़ाया और मुंह के बल गिर पड़ा। उसकी कोहनी और घुटने छिल गए थे। वह रुआंसा हो उठा। तभी पीछे से मेरी पड़ोसन छबीली दौड़ती हुई आई और बेटे को उठाती हुई बोली, ‘बेटे! बादाम-शादाम खाया करो, इससे अक्ल बढ़ती है।’
छबीली की बात सुनकर मैंने पीछे देखा और दौड़कर अपने बेटे के पास आ गया। बेटे के कपड़ों में लगी धूल को झाड़ते हुए कहा, ‘बादाम खाने से नहीं, ठोकर खाने से अक्ल बढ़ती है।’ मेरी बात सुनकर छबीली ने दोनों हाथ कमर पर रखकर अ्रखाड़ में उतरने वाले पहलवान की तरह कहा, ‘अगर ठोकर खाने से अक्ल बढ़ती, तो यूपीए सरकार को बहुत पहले अक्ल आ गई होती। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे एक ही मंच पर लोकपाल बिल और कालेधन को लेकर अनशन पर न बैठते।’
मैंने छबीली को घूरते हुए कहा, ‘क्या मतलब? अन्ना और बाबा रामदेव का मामले को बादाम से क्या लेना देना है।’ छबीली मेरी बात सुनकर पहले तो मुस्कुराई और फिर बोली, ‘इन दोनों की एकता का बादाम से नहीं, लेकिन अक्ल से तो लेना-देना है। दरअसल, मेरी समझ में बाबा और अन्ना की दोस्ती रहीमदास के दोहे ‘कहि रहीम कैसे निभे, केर-बेर के संग, वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग’ को पूरी तरह से चरितार्थ कर रही है। अभी कुछ ही दिन पहले का उदाहरण लें। बाबा और अन्ना ने दिल्ली में एक साथ अनशन किया। बाबा रामदेव ने कहा कि किसी की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जाएगी। लेकिन अन्ना हजारे के चेले-चपाटों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया। वे लगे एक-एक मंत्रियों का नाम गिनाने। फलां मंत्री ने इतने का घोटाला किया, अमुक ने इतने की कमाई की। जबकि सच बताऊं। बाबा रामदेव सुबह उठकर सबसे पहले सात-आठ बादाम की गिरी खाते हैं, एक लोटा पानी पीते हैं। उनका दिमाग कितना तेज चलता है। उन्हें मालूम है कि सियासत और व्यापार को एक साथ कैसे साधा जाता है। यह बादाम खाने का ही नतीजा है कि उन्होंने अपनी एक टांग सियासत की चौखट में फंसा रखा है, तो दूसरी टांग के सहारे खड़े होकर योग का व्यापार कर रहे हैं, स्वदेशी के नाम पर कई तरह के उत्पाद बाजार में धड़ल्ले से बेच रहे हैं।’
इतना कहकर छबीली सांस लेने के लिए रुकी। फिर उसने मेरे बेटे के सिर को सहलाते हुए कहना शुरू किया, ‘बादाम सेवन के चलते ही रामलीला ग्राउंड पर पिछले साल हुए ‘सलवार-सूट’ कांड के बाद बाबा रामदेव सतर्क हो चुके थे। उन्हें एहसास हो चुका था कि यदि सरकार अपनी पर उतर आए, तो वह किसी की भी भट्ठी बुझा सकती है। यदि वजह थी कि इस बार उन्होंने किसी भी मंत्री के खिलाफ एक भी शब्द नहीं कहा। उन्होंने तो यहां तक कहा कि पूज्य मैडम के पास जाऊंगा कालेधन के खिलाफ अलख जगाने। फलां आदरणीय नेताजी के पास जाऊंगा उनकी मदद मांगने। उधर अन्ना हजारे की टीम को ले लीजिए। मुंबई अनशन फ्लाप होने यानी समर्थकों के ठुकराने के बाद भी नहीं संभले। उनके चेले-चपाटे हर महीने को अगस्त जैसा मानकर दंभ में फूले जा रहे हैं। कभी सांसदों को चोर-लुटेरा, डाकू और बलात्कारी बता रहे हैं, तो कभी उन्हें भ्रष्टाचारी। इस आपसी सिर फुटौव्वल का नतीजा क्या हुआ? लोगों के सामने आ गया कि इन दोनों की दोस्ती ‘केर-बेर’ की दोस्ती जैसी है।’ इतना कहकर छबीली ने मेरे बेटे को ‘बॉय-बॉय’ किया। मुझे ठेंगा दिखाया और पार्क में टहल रहे लोगों पर मुस्कान की बिजलियां गिराती आगे बढ़ गई।