Monday, January 23, 2012

भोजन-भजन करो भरि पेटा

अशोक मिश्र

किसी गांव में एक पंडित जी रहते थे। उनके कई यजमान सरकारी और गैर सरकारी विभागों में बड़े पदों पर विराजमान थे। मौका लगने पर ये थोड़ी-बहुत रिश्वत तो ले लेते थे, लेकिन रिश्वत के पीछे भागते नहीं थे। जब भी पंडित जी अपने यजमानों के यहां जाते, तो वे अपनी सामर्थ्य भर उनकी आवभगत करते और दक्षिणा देकर विदा कर देते। पंडित जी इसे बुरा भी नहीं मानते थे। एक दिन पंडित जी अपने घर के बाहर खटिया डाले सोच ही रहे थे कि आज किस यजमान के यहां जाऊं, तब तक एक व्यक्ति ने आकर उनके चरण स्पर्श किए और कहा, ‘पंडित जी, आज मेरे घर में सत्यनारायण भगवान की कथा है। कथा बांचने और गुरुमंत्र देने के लिए आपको बुलाने आया हूं।’

पंडित जी नए यजमान की महंगी गाड़ी देखकर काफी प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि आज सत्यनारायण भगवान की कृपा से अच्छी कमाई हो जाएगी। पंडित जी ने सबसे पहले यजमान के बारे में पूरी जानकारी जुटाई। गुरु जी को पता चला कि यजमान केंद्र सरकार के एक मलाईदार विभाग में क्लर्क है। काफी समय से वह उसी पद पर जमा हुआ है। जब भी उसके प्रमोशन की बात चलती, तो वह कुछ ले-देकर अपना प्रमोशन रुकवा देता। पंडित जी यजमान की गाड़ी में बैठकर उसके घर गए। आलीशान घर, बीस-पच्चीस तोले सोने और हीरे के जेवरात से लदी-फंदी उसकी घरवाली, विदेश से पढ़कर लौटे पुत्र-पुत्रियों को देखकर पंडित जी आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक क्लर्क ‘राजा-महाराजा’ की तरह रह सकता है। पंडित जी ने प्रसन्न मन से सत्यनारायण की कथा बांची और भोजन के लिए बैठे। उसी समय यजमान और उसकी पत्नी ने पंडित जी से अनुरोध किया कि वे उसे गुरुमंत्र देकर उन्हें पक्का चेला बना लें। जैसे ही गुरुमंत्र की बात चली, पंडित जी का सत्य बोध जाग उठा। उन्होंने यजमान के कान में कहा,‘जो कोई सूक्ष्म करे आहारा, न बल घटे, न पाकै बारा। अर्थात् जो व्यक्ति रिश्वत रूपी आहार सूक्ष्म रूप (यानी कम मात्रा में) से ग्रहण करता है, उसका न तो आत्मबल घटता है, न ही उसके बाल पकते हैं (यानी, आत्मबल के चलते वह जल्दी बूढ़ा नहीं होता।)’

नए शिष्य बने यजमान ने पूरी तरह से भक्तिभाव से इस तत्व को ग्रहण किया और उसी दिन से रिश्वत आदि लेना बंद कर दिया। इस घटना को छह महीने बीत गए। एक दिन पंडित जी ने सोचा कि चलो, अपने नए शिष्य का हाल-चाल ले आएं। उसके घर पहुंचे, तो सब कुछ उनकी आशा के विपरीत था।

पता चला कि रिश्वतखोरी बंद करते ही उनके विभाग के दूसरे भ्रष्ट अधिकारियों ने उसके खिलाफ जांच आयोग बिठाकर उसे जेल भिजवा दिया था। कुछ ही दिन पहले वह जेल से जमानत पर छूटा था। इस चक्कर में उसकी सारी जमापूंजी भी खर्च हो गई। पंडित जी को यह सुनकर बहुत दुख हुआ। उन्होंने कहा, ‘अरे बेवकूफ! मैंने तुम्हें सूक्ष्म रूप से रिश्वत ग्रहण करने को कहा था, बिल्कुल बंद करने को नहीं। अच्छा सुनो! मैं तुम्हें एक नया गुरुमंत्र देता हूं-भोजन भजन करो भरि पेटा, नाहीं तो मरि जैइहो बेटा! इस मंत्र का निहितार्थ यह है कि रिश्वत को भोजन बनाकर अपने वरिष्ठ अधिकारियों का खूब भजन (यानी गुणगान) करो। यदि ऐसा नहीं किया, तो एक तो तुम्हारे अधिकारी तुम्हें चैन से जीने नहीं देंगे।

दूसरे, रिश्वत न लेने पर ऐश्वर्यविहीन होने की कुंठा पालने से होने वाले उच्च रक्तचाप के चलते तुम शीघ्र ही इस दुनिया से विदा हो जाओगे।’ यह गुरु मंत्र सुनते ही यजमान ने लपककर पंडित जी के चरणस्पर्श किए और बोला, ‘क्या गुरु जी! आपको यही गुरुमंत्र पहले देना था न! बेकार में इतनी जिल्लत सही। अधिकारियों की आंख में खटका, सो अलग।’ इतना कहकर उसने पंडित जी को काफी दान-दक्षिणा देकर विदा किया। कुछ दिन बाद पंडित जी को पता चला कि उनका यह शिष्य पहले की तरह नौकरी पाकर ऐश्वर्यवान हो गया है।

1 comment:

  1. मिश्रा जी, आपने अपने चिर परिचित अंदाज में नियोजित तथा खूबसूरती के साथ अच्छे-बुरे का फर्क बताया है... हमारे जीवन में गुरुमंत्र का क्या स्थान होना चाहिए और उसका महत्त्व किस प्रकार फलदायी साबित होगा, ऐसे मुहावरों के व्याख्यान में सही मिश्रण तो बस आप की कर सकते हैं.

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