Tuesday, March 20, 2012

मतदाताओं की थोड़ी-सी बेवफाई

अशोक मिश्र

चुनाव परिणाम आ चुका था। चुनाव से पहले काफी जोर-जोर से गरजने वाले बादल बरसकर न जाने कहां बिला चुके थे। चुनावी सर्वेक्षण की धुंध छंट चुकी थी। मेरे पड़ोस में रहने वाले चुन्नीलाल चुनाव हार चुके थे। उनकी पटकनी भी उनके ही एक शिष्य ने दी थी। शाम जैसे-जैसे गहराती गई, मैं एक अजीब-सी बेचैनी महसूस करने लगा। मुझे पता नहीं क्यों लग रहा था कि एक बार चुन्नी लाल से मिलकर उन्हें सांत्वना दी जानी चाहिए। आखिर वे चुनाव परिणाम आने से पहले तक इस इलाके के माई-बाप थे। पीडब्ल्यूÞडी विभाग, नहर विभाग जैसे तमाम विभागों के बड़े-बड़े अधिकारी उनके ही इशारे पर उठते-बैठते थे। आज वे भूतपूर्व विधायक हो गए हैं, तो क्या उनके कार्यों को भुलाया जा सकता है। पिछले पांच साल में जितने भी विकास हुए, उनकी मर्जी से। अगर विकास नहीं हुए, तो इसमें भी उनकी ही मेहरबानी रही। सो, मैं उन्हें सांत्वना देने पहुंच गया उनके ‘डेरे’ पर। घर पर वे आज वैसे भी नहीं मिलते, जीतते तो भी, नहीं जीते तो भी। अब आप उलझन में पड़ गए होंगे कि यह डेरा और घर का क्या चक्कर है। तो मैं आपको समझाता हूं।

पुश्तैनी जमीन पर ईंट और गारों से बने चार-पांच कमरों को वे घर कहते हैं। यहां उनके बीवी, बच्चे रहते हैं। नाते-रिश्तेदार आते हैं, ठूंस-ठूंसकर खाते हैं और फिर कुछ दिन रहकर चले जाते हैं। उन्होंने निजी कार्यों के लिए घर से थोड़ी दूर एक कोठी किराए पर ले रखी है जिसे वे डेरा कहते हैं। यहां उनके चमचे रहते हैं, चेलियां रहती हैं। विधायक जी को जब एहसास होता है कि इस असार संसार में सब कुछ मिथ्या है। यह दुनिया क्षणभंगुर है, न कुछ साथ लेकर आए थे, न कुछ साथ लेकर जाना है। तो वे बेचैन हो उठते हैं। तब वे डेरे की ओर भागते। उन्हें डेरे पर चेलियों-चमचों के बीच ही शांति मिलती है। जब मैं चुन्नी लाल के डेरे पर पहुंचा, वे कुछ चमचों और चेलियों से घिरे बैठे अपना गम गलत (भुला) कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘विधायक जी! दोपहर तक तो लग रहा था कि आप पटखनी दे रहे हैं, लेकिन शाम को आप पटखनी खा गए। ऐसे कैसे हो गया?’

विधायक जी (अब भूतपूर्व) रुआंसे स्वर में बोले, ‘बेवफाई ले डूबी।’ मैंने तपाक से पूछा, ‘किसकी? आपकी या आपके चेले-चेलियों की?’ मेरा सवाल सुनते ही चुन्नी लाल जी का चेहरा तमतमा उठा, ‘मतदाताओं की। बड़ी वफा से निभाई हमने मतदाताओं की थोड़ी-सी बेवफार्ई। लेकिन इस बार मतदाताओं ने पूड़ी-सब्जी मेरी खाई, दारू मेरे पैसे की पी, पोलिंग बूथ तक मेरी गाड़ियों में गए, लेकिन बटन विरोधियों की दबा आए। हालांकि ऐसा करने के लिए चुनाव आयोग को किस तरह गच्चा दिया, यह मैं ही जानता हूं। मुझे हर मोहल्ले में अपने कार्यकर्ताओं की शादियां करवानी पड़ीं, ताकि भुक्खड़ मतदाता खा-पीकर एहसान स्वरूप मुझे वोट दें। आपने पिछले हफ्ते अपने पड़ोसी गॉटर के बेटे धुन्ना प्रसाद की शादी में जो ‘मटन-चिकन’ सूत था, उसमें मेरा ही पैसा लगा था।’ आया तो मैं चुन्नी लाल जी के जख्मों पर सांत्वना की मलहम लगाने, लेकिन उनकी बातों से पता नहीं क्यों लगा कि वे मतदाताओं के बहाने मुझ पर तंज कस रहे हैं। मैंने तल्ख स्वर में कहा, ‘चुन्नी लाल जी! पहले बेवफाई किसने की? आपने या मतदाताओं ने? पिछली बार मतदाताओं ने आपको इसीलिए न जितवाया था कि आप विकास करेंगे। सड़कें बनवाएंगे, बिजली-पानी की व्यवस्था करेंगे। बच्चों के लिए स्कूल-कालेज खुलवाएंगे, लेकिन आपने कुछ भी नहीं किया। विकास के नाम पर आया सारा पैसा ठेकेदारों, दलालों और अधिकारियों से मिलकर आप हड़प गए। हां, अगर कुछ खुलवाए भी, तो दारू के ठेके, शॉपिंग माल्स। बड़ी-बड़ी कंपनियों के हित में किसानों की जमीन सस्ते में बिकवाकर आपने खूब कमाई की। आपने पांच साल जनता को ठेंगा दिखाया। जब उसकी बारी आई, तो उसने ठेंगा दिखा दिया। बस, हो गया हिसाब-किताब बराबर।’ इतना कहकर मैं उठा और अपने घर चला आया। चुन्नी लाल जी एक खूबसूरत चेली के पहलू में शांति तलाशने लगे।

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