Monday, March 26, 2012

पगला गई है सरकार

अशोक मिश्र

गांव के बाग में कुछ ठेलुए जमा थे। चार लोग ताश (प्लेइंग कार्ड्स) खेल रहे थे, बाकी उनको घेरे हुए खेल का आनंद उठा रहे थे। उनमें से कुछ कोयले से चलने वाली रेलगाड़ी के इंजन की तरह मुंह से ‘भुक्क-भुक्क’ बीड़ी का धुआं उगल रहे थे, तो कुछ हथेली पर तंबाकू रखकर उसे रगड़ रहे थे, मानो अपने दुश्मन को मच्छर की तरह मसलने का इरादा रखते हों। मैंने ठेलुओं पर एक नजर डाली और एक से कहा, ‘का हो भगौती भाई, अमीरी का सुख उठा रहे हैं काम-धंधा छोड़कर?’ भगौती भाई ने तंबाकू रगड़ने के बाद चूने की गर्द झाड़ते हुए कहा, ‘काहे की अमीरी? ई महंगाई तो गिद्ध की तरह नोच-नोचकर खाए जा रही है और तुम कहते हो कि अमीरी का सुख उठा रहे हैं। बड़े भाई से मसखरी करते हो!’

मुझे लगा कि भगौती भाई नाराज हो गए हैं। मैंने तपाक से सफाई पेश की, ‘भइया नाराज न हो। यह मैं नहीं कहता। यह आपकी अपनी सरकार कह रही है जिसे आप ही लोगों ने बड़े अरमानों के साथ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए चुना था। सरकारी रिपोर्ट तो यहां तक कहती है कि गांव में जो लोग साढ़े छह सौ रुपल्ली से ज्यादा महीना भर में खर्च करते हैं, वे गरीब नहीं हैं।’ मैं या भगौती भाई कुछ कहते उससे पहले बड़कऊ काका बोल पड़े, ‘सरकार पगला गई है बच्चा। साढ़े छह सौ रुपल्ली में हम किस तरह की अमीरी भोग रहे हैं, वह दिल्ली में बैठी सरकार को कैसे पता चलेगा? ई दिल्ली वाले ‘बड़का’ अर्थशास्त्री बने फिरते हैं। साढ़े छह सौ नहीं, हजार-डेढ़ हजार रुपल्ली वाला मासिक बजट बनाकर दे दें जिसमें मियां-बीवी और दो बच्चों के खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, दवा-दारू और दो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा शामिल हो, तो मैं मान लूं कि हम सब अमीर हो गए।’ बड़कऊ काका ने यह कहते हुए अपने हाथ के पत्ते जमीन पर फेंक दिए और फिर सारे पत्ते बटोरकर लगे फेंटने। मैं चुपचाप उनको पत्ते फेंटता देखने लगा।
तभी एक युवक ने पिच्च से तंबाकू की पीक थूकते हुए कहा, ‘काका! एक बात बताऊं। मुझे तो लगता है कि पत्तेबाजी में सरकार हम सबकी बाप है। उसके पास हमेशा ट्रंप का कोई न कोई पत्ता मौजूद रहता है। जब सरकार देखती है कि वह खेल में हार रही है, तो ट्रंप कार्ड चल देती है और जनता भकुआई-सी खड़ी टुकुर-टुकुर मुंह ताकती रहती है। जनता की समझ में यह नहीं आता कि वह हंसे कि रोये। अब इसी बात को लो। यह शहर वाले भइया कहते हैं कि सरकार की नजर में अब हम सब गरीब नहीं रहे, अमीर हो गए हैं। यह तो वही बात हुई कि रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा। आग लगे ऐसी अमीरी को।’

उस युवक की बात सुनकर मैं भौंचक्का रह गया। मन हुआ कि उस युवक का हाथ चूम लूं। गांव के लोग भी बुद्धिमान होते हैं, यह मुझे पहली बार एहसास हुआ। इससे पहले मैं समझता कि भगवान सारी बुद्धि शहर वालों में बांटकर गांववालों से हाथ झाड़ लेता है। मैंने कहा, ‘आप लोगों को इस बात से खुश होना चाहिए। लेकिन मैं देख रहा हूं कि आप लोग हत्थे से उखड़े जा रहे हैं।’ भगौती भाई ने गंभीर स्वर में कहा, ‘भइया! तुम इस अमीरी के पीछे छिपी गरीबी का अर्थशास्त्र नहीं बूझ पा रहे हो। जानते हो, अब क्या होगा? सबसे पहले ‘लाल रंग’ वाला राशन कार्ड ‘पीले रंग’ में बदलेगा। अब तक जो दो-चार रुपये प्रति किलो मुट्ठी भर सड़ा-गला अनाज पेट भरने के लिए मिल जाता था, वह भी छिन जाएगा। बेटे-बेटियों को कोई सुविधा पहले से ही नहीं मिलती थी। उस पर दबंग पहले से ही डाका डाले हुए थे, लेकिन अब तो हमसे अपने को गरीब कहने का हक भी सरकार छीनने जा रही है।’ ‘लेकिन आप लोगों की गिनती टाटा, बिरला, मुकेश और अनिल अंबानी जैसे अमीरों में होगी, यह सुख कोई कम है क्या?’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अब इतने बड़े सुख के लिए छोटे-मोटे सुखों को तिलांजलि तो देनी ही होगी।’ इतना कहकर मैंने अपने घर की राह पकड़ी और बाकी लोग ताश खेलने में मशगूल हो गए।

2 comments:

  1. खूब कतर ब्योंत कर रहे हैं अशोक जी

    बढ़िया है-----मजा आ गया

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