Thursday, April 5, 2012

केंद्र सरकार माने गरीब की जोरू

-अशोक मिश्र

जो लोग मुझे जानते हैं, वे इस बात को बड़ी शिद्दत से मानते हैं। लेकिन अफसोस है कि मैं पिछले डेढ़ दशक से घरैतिन को यह विश्वास दिलाने में असफल रहा हूं कि मैं मूलत: रसिक हूं, अय्याश नहीं। और रसिक होना कोई ऐब नहीं है। इस बात को लेकर आए दिन गृहस्थी के बरतन आपस में टकरा जाते हैं। कुछ बर्तन टूटते भी हैं, लेकिन टूट-फूट सिर्फ मेरे हिस्से ही आती है। आप सब मतलब तो समझ ही गए होंगे। अब कल का ही वाकया लें। शाम को आम पतियों की तरह सब्जियों का थैला हाथ में लटकाए हांफता-कांपता बाजार से आ रहा था। अपने घर के दरवाजे पर खड़ी छबीली से मुलाकात हो गई। दुआ-सलाम के बाद शुरू हुई बातचीत गरीबी की नई परिभाषा पर बहस में कब तब्दील हो गई, मुझे पता ही नहीं चला। हम दोनों अपने-अपने तरकश से तर्कों के तीर चलाकर एक दूसरे को निशस्त्र करने की कोशिश में जूझ ही रहे थे कि तभी मेरी घरैतिन घर से बाहर निकल आईं।

मुझे छबीली से बतियाता देखकर ‘अगिया बैताल’ हो गई। घर आने पर मैंने उसे लाख समझाया कि मैं छबीली से सिर्फ बातचीत कर रहा था, नैन मटक्का नहीं। लेकिन घरैतिन हैं कि मानती ही नहीं। कई बार सफाई देने पर भी जब उसका मुंह फूला ही रहा, तो मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने रोष भरे स्वर में कहा, ‘क्या तुम मुझे ‘गरीब की जोरू’ समझती हो?’ मेरे दस वर्षीय सुपुत्र चिंटू प्रसाद अपनी किताब लिए पास में ही बैठे पढ़ने का ढोंग कर रहे थे। उनका ध्यान पढ़ाई को ओर कम, हम दोनों की तकरार की ओर ज्यादा था। उन्होंने ऊंट की तरह किताब के पीछे छिपा अपना सिर उठाया और बोले, ‘पापा! आपका मतलब ‘नीबर कै जोय, सब कै सरहज’ से है न।’

मैंने अपने क्रोध को काबू में करते हुए कहा, ‘हां बेटा।’ मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर बेचारगी भरी मुस्कान बिखर गई। उसने कहा, ‘पापा! मैं इस कहावत का माने-मतलब तो समझ रहा हूं, लेकिन एकाध उदाहरण नहीं सूझ रहा है। अगर आप उदाहरण सहित व्याख्या कर दें, तो हिंदी के एक्जाम में दूसरों से बाजी मार सकता हूं।’ अब आप सब लोग जानते ही होंगे कि भारत में अपने पिता को पढ़ाई के नाम पर ब्लैकमेल करने का अधिकार हर पुत्र को जन्मजात मिला हुआ है। घरैतिन से हुई ‘तू-तू, मैं-मैं’ भूलकर मैं बेटे को कहावत का उदाहरण सहित अर्थ समझाने लगा। मैंने बेटे से कहा, ‘तुम्हें मैं दो उदाहरणों से समझाने की कोशिश करता हूं। पहला, तो यह कि हर परिवार का मुखिया यानी पिता और पति अपने परिवार के सदस्यों के सामने गरीब की जोरू की तरह रहता है। परिवार के हर सदस्य को जन्मत: यह हक होता है कि वह जब चाहे, जैसे चाहे, अपने पिता या पति को मंदिर के घंटे की तरह बजाए। उससे हंसी-ठिठोली करे। उसका आर्थिक दोहन करे।’

मेरे इतना कहते ही बेटा उछल पड़ा। उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘अच्छा! आपके कहने का मतलब यह है कि आप मेरे, मेरी मम्मी और दीदी के लिए ‘गरीब की जोरू’ के समान हैं।’ मैंने कहा, ‘इस देश का शायद ही कोई पिता या पति मेरी तरह डंके की चोट पर इस बात को स्वीकार कर सके, लेकिन हकीकत सौ फीसदी यही है।’
‘और दूसरा उदाहरण?’ सुपुत्र चिंटू प्रसाद ने सवाल दागा। मैंने कहा, ‘वर्तमान सरकार... इसकी दशा तो गरीब की जोरू से भी बदतर है। उसके पति की भूमिका में ‘दीदी’ हैं, ‘बहन’ जी हैं, ‘नेताजी’ हैं, अभी कुछ साल पहले तक ‘अम्मा जी’ भी थीं। एकदम द्रौपदी बनकर रह गई है केंद्र सरकार। जो जैसे चाहता है, वैसे नचाता है। और बेचारी केंद्र सरकार है कि तलाक के डर से गठबंधन धर्म निभाए जा रही है। कभी दीदी कहती हैं कि तुमने घाटे में चल रहे रेल विभाग को दुरुस्त करने के लिए यात्री किराया बढ़ाकर गलती की है, कान पकड़ो। और सरकार के बेचारे मुखिया जी डर कर दोनों हाथों से कान पकड़कर खड़े हो जाते हैं। लो दीदी! मान ली आपकी बात, अब कोई गलती नहीं करूंगा। बस, आप सरकार को गिरने मत देना।’ इतना कहकर मैं दूसरे कमरे में गया। टीवी चालू करके एक चैनल पर प्रसारित हो रहे ‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’ गाने पर कैटरीना का डांस देखने में मशगूल हो गया।

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