Monday, April 16, 2012

बिकने दीजिए चश्मा-चरखा

-अशोक मिश्र
मैं सूनसान रास्ते से लंबे डग भरता चला जा रहा था कि पीछे से आवाज आई, ‘बेटा! सुनो तो।’ मैंने घूमकर देखा, अपनी पारंपरिक वेशभूषा में बापू खड़े थे। बापू बोले तो अपने राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी। मैं भौंचक रह गया। मुझे लगा कि कहीं मेरे दिमाग में भी कोई केमिकल लोचा तो नहीं पैदा हो गया है। फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में संजय दत्त को भी केमिकल लोचा के चलते बापू दिखाई देने लगते हैं। और फिर, एक गुंडे का हृदय परिवर्तन होता है और वह गांधीगीरी करने लगता है। मैंने अपनी आंखें झपकाई, सिर को झटका, लेकिन बापू फिर भी दिखते रहे। बापू थोड़ा आगे बढ़े और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए क्षीण स्वर में बोले, ‘बेटा! सुनो तो, मैं तुमसे ही बात कर रहा हूं।’ मैंने सोचा, चलो बापू से बात कर ही लेते हैं। अगर वाकई बापू हुए, तो कोई बात नहीं। अगर दिमाग में केमिकल लोचा हुआ, तो कल ही किसी हास्पिटल में जाकर चेकअप कराऊंगा।
मैंने बापू से कहा, ‘हां बताइए। मैं आपके किस काम आ सकता हूं।’ उन्होंने दीन स्वर में कहा, ‘बेटा! मेरा चश्मा और चरखा बिक रहा है। किसी तरह उसे बिकने से बचा लो। उसे बिकने न दो।’ मैं उनकी बात सुनकर भौंचक रह गया, ‘बापू! इस देश का मैं एक अदना-सा आम आदमी हूं। मैं भला आपके चश्मे और चरखे को बिकने से कैसे बचा सकता हंू? इसके लिए आपको सत्ता के गलियारे में गुहार लगानी चाहिए। उनकी मर्जी न हो, तो आपका चश्मा और चरखा क्या, देश का एक तिनका भी नहीं बिक सकता। खरीद-फरोख्त का धंधा भी तो वही करते हैं।’
बापू बोले, ‘मैं गया था सबके पास गुहार लगाने, लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं है। कई नेताओं के तो दरबान ने ही झिड़ककर भगा दिया। मंत्रियों से मिलने की कोशिश की, तो पता चला कि पहले से टाइम लिए बिना कोई उनसे मिल ही नहीं सकता। अब इस लोकतंत्र में आम आदमियों से ही उम्मीद बची है।’
बापू की बात सुनते ही पता नहीं क्यों, इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का कथित भाग्य विधाता किंतु हकीकत में सबसे निरीह आम आदमी का गुस्सा मुझमें आ समाया। मैंने रोष भरे शब्दों में कहा, ‘बापू! इसके लिए भी आप ही दोषी हैं। आपकी भौतिक मृत्यु भले ही बाद में हुई हो, लेकिन दार्शनिक मौत तो आपके जीवित रहते ही हो गई थी। आपके जिंदा रहते जब आपके चेले गांधीवादी दर्शन को बेचकर कमाने-खाने का जरिया बना रहे थे, तब आपने कोई प्रतिरोध नहीं किया। इधर आपकी मौत हुई, उधर आपके अपनों ने ही गांधीवादी दर्शन का क्रिया-कर्म कर डाला। खादी और चरखे का हुंडी की तरह भुनाकर अपनी तिजोरी भरने लगे। पहले ईमान बेचा, फिर देश बेचने लगे। जब ईमान की कीमत दो कौड़ी की रह गई, तो अब वे आपका चश्मा, घड़ी, लाठी और आपकी लंगोट बेचने पर तुले हुए हैं।’
मैं धारा प्रवाह बोलता जा रहा था और बापू चुपचाप खड़े सुन रहे थे, ‘बापू! शायद आपको पता न हो, आपकी इन चारों वस्तुओं का अब तक। आपकी घड़ी पर शुरू से ही पूंजीपतियों की निगाह थी, सो वे ले गए। लाठी नेताओं के हाथ आई, जिसके सहारे वे अपनी लड़खड़ाती राजनीति को सहारा देने लगे। जरूरत पड़ती थी, तो आपके ‘वैष्णव जन’ यानी आम जनता की पीठ पर बरसा लेते थे। गरीबी, बेकारी, भुखमरी और अपमान से बेजार जनता इन राजनीतिज्ञों के खिलाफ बगावत न कर दे, इसीलिए सन सैंतालिस से ही आपके चहेतों ने ‘गांधीवादी चश्मा’ देश की जनता को पहना दिया था। बापू! अगर आप गौर करें, तो लंगोट भी आपकी नहीं रह गई थी। लंगोट तो इस देश के लंपटों ने पहन रखी थी। आपके दर्शन को यदा-कदा फिल्मी दुनिया वाले बिकाऊ माल की तरह जनता में बेच रहे हैं। अब अगर नेता आम जनता की आंखों पर चढ़ा चश्मा और इस औद्योगिक युग में बेकार हो चुके चरखे को बेच देना चाहते हैं, तो उसे बेच देने दीजिए। इन भौतिक वस्तुओं को बचाकर आप करेंगे भी क्या?’
मैं बोलता जा रहा था, बोलता जा रहा था। पीछे-पीछे चले आ रहे बापू मेरी बात गौर से सुन रहे हैं या नहीं, यह जानने के लिए मुड़कर देखा, तो पता चला कि कोई है ही नहीं। मैं अकेला ही बड़बड़ाता चला जा रहा हूं। मुझे लगा कि मेरे दिमाग में कोई केमिकल लोचा पैदा हो गया है। मैं कहीं पागल तो नहीं हो गया हूं। आपका क्या ख्याल है!

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