Thursday, May 31, 2012

गधों की रेव पार्टी

-अशोक मिश्र
जियामऊ गांव में एक गधा चरने के साथ-साथ ‘ढेंचू-ढेंचू’ करके गर्दभ राग में गाता जा रहा था, ‘तू कहे तो मैं बता दूं, मेरे दिल में आज क्या है?’ वह काफी देर से चर रहा था, इसलिए उसका पेट लगभग भर गया था। पेट भर जाने की वजह से उसे भी इंसानों की तरह मस्ती सूझने लगी थी। यही वजह से वह पहले एक गफ्फा घास का मुंह में भरता और पेट में घास ढकेलने के बाद गाने लगता। तभी कालिदास मार्ग की तरफ से दूसरा गधा लंगड़ाता हुआ आया और पहले वाले गधे के पास ही जल्दी-जल्दी चरने लगा। उसके चरने की स्टाइल बता रही थी कि उसने हरी घास काफी दिनों बाद देखी है।
पहले से चर रहा गधा उसके पास गया और बोला, ‘काफी दिनों बाद हरी घास चरने का मौका मिला है क्या?’ कालिदास मार्ग की तरफ से आए गधे ने एक हल्की-सी दुलत्ती झाड़ते हुए अभिवादन किया और बोला, ‘ऐसी बात नहीं है, लेकिन यह घास कुछ ज्यादा मुलायम है, इसलिए अच्छी लग रही है।’ पहले वाले ने पूछा, ‘तुम लंगड़ा क्यों रहे हो? तुम्हारे मालिक ने पीटा है क्या?’ दूसरे ने जवाब दिया, ‘नहीं, रेव पार्टी में गया था? वहीं चोट लग गई।’
‘यह रेव पार्टी क्या होती है?’ पहले वाले गधे चरना बंद कर दिया था। ‘रेव पार्टी...इसका आनंद तो शब्दों से बता पाना काफी मुश्किल है।’ दूसरा गधा पिछली रात में हुई रेव पार्टी के आनंद में खो गया। उसने कहा, ‘रेव पार्टी में सभी जवान गधे-गधी इकट्ठे होकर नाचते-गाते हैं, खाते-पीते हैं। खूब मौज-मस्ती करते हैं और अपने-अपने बाड़े में जाकर सो जाते हैं।’
‘लेकिन तुम्हें चोट कैसे लग गई?’ पहले वाले ने पूछा। दूसरे ने एक बार तो पहले वाले गधे को घूरा और फिर बोला, ‘सुरैया के बाड़े में कल रात हम लोग इकट्ठे हुए थे। सुरैया का बाड़ा काफी बड़ा है। उसके मालिक ने एक जमीन को चारों ओर से लकड़ी और बांस से घेर कर बाड़े का रूप दे दिया है। उस रेव पार्टी में मैं था, रामधनी की गधी सुरैया थी, बाचू का गधा पतिंगा था। अब तुम यह बात इस तरह समझो कि मैं यानी धनधूसर, सुरैया, पतिंगा, रमरतिया, गॉटर, रेखा, श्यामा, हलकट जैसे लगभग बीस-पच्चीस गधे-गधी इस रेव पार्टी में थे। कोई अपने घर से हरी घास लाया था, तो कोई चूनी, कोई भूसी। रमरतिया अपने मालिक के घर से कच्ची दारू की बोतल ही मुंह में दबाकर ले आई थी। पहले तो रामधनी के घर में बज रहे फिल्मी गीतों पर हम सब डांस करते रहे। रात बारह बजे के बाद हम लोगों ने घरों से कुछ चोरी, कुछ मांग कर लाई गई घास, भूसी-चूनी को भर पेट खाया। खाने के बाद हमने रमरतिया द्वारा लाई गई शराब का सेवन किया। कसम गर्दभ राग की, क्या मस्त वाइन थी! मजा आ गया।’
इतना कहकर धनधूसर पार्टी की रंगीनियों में खो-सा गया। काफी देर तक जब वह नहीं बोला, तो पहले वाले ने पूछा, ‘धनधूसर भाई! फिर क्या हुआ? बताओ न, काफी अच्छा लग रहा है तुम्हारी बात। अब तो मुझे भी किसी रेव पार्टी में शामिल होने की इच्छा हो रही है। सुना है कि इंसान भी रेव पार्टी आयोजित करते हैं।’
धनधूसर ने बताना शुरू किया, ‘वाइन चढ़ते ही हम गधों पर मस्ती छा गई। हमने रमरतिया से थोड़ी दारू और लाने को कहा। वह चुपके से अपने मालिक की दूसरी बोतल उठा लाई। दूसरी बोतल की दारू पीने के बाद हमने फिर नाचना शूरू किया। इसी बीच पतिंगा ने गॉटर की प्रेमिका सुरैया को छेड़ दिया। बस फिर क्या था। ‘बातन-बातन बत बढ़ होइ गई औ बातन में बढ़ गई रार’ वाली स्टाइल में पतिंगा और गॉटर एक दूसरे से भिड़ गए। दोनों एक दूसरे पर दुलत्तियां झाड़ने लगे। पहले तो हम सबने एक दूसरे को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन बाद में हम सभी किसी न किसी की तरफ से लड़ने लगे। हम सभी लड़ ही रहे थे कि छापा पड़ गया।’
‘छापा पड़ गया? मतलब?’ पहले वाले ने उत्सुकता से पूछा। धनधूसर ने कहा, ‘छापा पड़ गया मतलब...छापा पड़ गया। हम लोगों के दुलत्तियां झाड़ने और लड़ने-भिड़ने के चलते बाड़े के टूटने से पैदा हुई आवाज सुनकर सुरैया का मालिक रामधनी एक मोटा डंडा लेकर निकला और लगा हम लोगों पर बरसाने। सारे लोग तो भागने में सफल हो गए। सबसे पहले मैं मिला, सो सबसे ज्यादा उसकी कृपा मुझ पर ही बरसी। इसके बाद कृपा पाने वालों में सुरैया का नंबर दूसरा था। वह बेचारी भाग कर कहां जाती! उसे तो वहीं रहना था।’ इतना कहकर धनधूसर चरने लगा।

Tuesday, May 22, 2012

लल्लन टॉप चैनल

अशोक मिश्र
शाम को थका-मांदा घर पहुंचकर टीवी आॅन किया। चैनल ‘लल्लन टॉप’ पर खबरें प्रसारित हो रही थीं। न्यूज एंकर भानुमती की सुरीली आवाज गूंज रही थी, ‘लल्लन टॉप न्यूज चैनल की खास पेशकश...अभी हम आपको दिखाएंगे थोड़े से ब्रेक के बाद।’ इसके बाद सिरदर्द से लेकर गोरे होने की क्रीम तक के विज्ञापनों को देखते-देखते माथा और भन्ना गया। चैनल बदलने की सोच ही रहा था कि न्यूज एंकर भानुमती अपने लटके-झटके के साथ एक बार फिर नमूदार हुई, ‘हम आपको बता दें कि इस समय आप देख रहे हैं ‘लल्लन टॉप’ चैनल।
अब हम आपको ले चलते हैं, दौलतपुर जिले के एक गांव नथईपुरवा में। इस गांव की धरती पर पैदा हुए हैं तीन बछड़े एक साथ। हम आपको बता दें कि दौलतपुर जिले के नथईपुरवा गांव में पैदा हुए तीन जुड़वा बछड़ों की एक्सक्लूसिव स्टोरी सबसे पहले आप तक लाया है लल्लन टॉप चैनल। तो दोस्तो! हम आपको बता दें कि दौलतपुर की धरती ने आज उस समय इतिहास रच दिया, जब दौलतपुर जिले के नथईपुरवा गांव में एक गाय ने तीन बछड़ों को एक साथ जन्म दिया। तीनों बछड़े स्वस्थ हैं। इन बछड़ों की देखभाल जिला मुख्यालय से आई एक टीम कर रही है। कैमरामैन प्रदीप के साथ हमारे संवाददाता चंद्रबख्श जी इस समय नथईपुरवा गांव में हैं। आइए, हम अपने संवाददाता चंद्रबख्श जी से पूछते हैं कि वहां का क्या माहौल है?
स्क्रीन पर माइक संभाले चंद्रबख्श नजर आते हैं। न्यूज एंकर पूछती है, ‘चंद्रबख्श जी, आप हमारी बात सुन पा रहे हैं? आप हमारे दर्शकों को बताइए कि वहां का माहौल कैसा है? लोग इस संबंध में क्या बातें कर रहे हैं। तीन बछड़ों को जन्म देने के बाद गाय कैसा महसूस कर रही है?’ चंद्रबख्श की आवाज आती है, ‘हां, भानुमती, मैं आपकी बात अच्छी तरह से सुन रहा हूं। जहां तक माहौल की बात है, नथईपुरवा के लोग सुबह से ही पटाखे फोड़ रहे हैं। गाय भी काफी खुश है। आप देख सकती हैं कि गाय इस समय हरा-चारा खा रही है। उसके चेहरे पर गर्व और प्रसन्नता की झलक साफ देखी जा सकती है। उसने दौलतपुर के इतिहास में एक सुनहरा अध्याय जोड़ दिया है, इसकी सबसे ज्यादा खुशी गाय को है। आइए, हम बात करते हैं गाय के मालिक बलिराम जी से।’ स्क्रीन पर झक्कास कुर्ता-पायजामा पहने बलिराम जी के साथ चंद्रबख्श प्रकट होते हैं। चंद्रबख्श पूछते हैं, ‘बलिराम जी! क्या आपको पहले से उम्मीद थी कि आपकी गाय तीन बछड़ों को जन्म देगी? क्या आपने पहले कोई जांच कराई थी? मेरा मतलब कोई अल्ट्रा साउंड वगैरह...?’  बलिराम मूंछों पर ताव देते हुए बताते हैं, ‘नहीं कोई जांच तो नहीं कराई थी, लेकिन हमें पूरा विश्वास था कि हमारी गाय कबरी कोई न कोई कारनामा जरूर करेगी। तीस साल पहले कबरी की दादी ने भी एक साथ तीन बछियों को जन्म दिया था। इसकी मां भूरी ने भी चार साल पहले दो बछड़ों को एक साथ जन्म दिया था।’इसके बाद कैमरा बलिराम के चेहरे से पैन होता हुआ कबरी तक जाता है। कुछ देर तक चारा खाती कबरी और गांव में नाचती-गाती  और पटाखे फोड़ती भीड़ को दिखाते हैं, फिर नाचती हुई एक महिला से पूछते हैं, ‘आपको इस उपलब्धि पर कैसा महसूस हो रहा है?’ महिला के पीछे कुछ लड़के और लड़कियां अपना चेहरा दिखाने की नीयत से धक्का-मुक्की करते हैं, इसी बीच वह महिला कहती है, ‘हमका खुसी है कि कबरी माता हमरे गांव की लाज रख लिहिन। देश मा इतना नाम हुआ, यहके लिए हम सभी बहुत खुस हैं।’ इसके बाद चंद्रबख्श विदा हो जाते हैं। स्क्रीन पर एंकर का चेहरा नमूदार होता है। वह कहती है, ‘अब हम अपने दर्शकों को ले चलते हैं दिल्ली स्टूडियो, जहां हमारे साथ मौजूद हैं देश के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एमएनए सुब्रह्मण्यम राधास्वामी जी। चलिए, उनसे पूछते हैं कि इससे देश और प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’ राधा स्वामी जी पहले गला खंखारकर साफ करते हैं, फिर बोलते हैं, ‘मैं समझता हूं कि इससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। हां, बलिराम की विकास दर देश या प्रदेश की विकास दर से थोड़ा ज्यादा रहेगी।’
 इसके बाद एंकर की आवाज आती है, ‘अब समय हो चला है एक छोटे से ब्रेक का। दर्शकों, ब्रेक के बाद हम अपने दर्शकों के सामने फिर हाजिर होंगे। हमारे साथ होंगे सत्ताधारी दल के एक नेता, एक वरिष्ठ पत्रकार और नेता प्रतिपक्ष धमकैया सिंह, जिनके साथ हम चर्चा करेंगे कबरी के अर्थव्यवस्था में योगदान की। तब तक के लिए हम आपसे विदा लेते हैं।’ इसके बाद न्यूज एंकर गायब हो जाती है। मैं चादर ओढ़कर सो जाता हूं।

Sunday, May 20, 2012

कार्टूनिस्टों को फांसी दो

-अशोक मिश्र
जब मैं कॉफी हाउस में घुसा, तो कुछ चोंचवादी निठल्ले चिंतन कर रहे थे। एक व्यक्ति कह रहा था,‘कुछ भी हो। कार्टून मुद्दे को संसद में नहीं उठाना चाहिए। भला यह भी कोई तुक हुई कि जिस व्यक्ति को लेकर कार्टून बनाया गया, उसने जीते-जी कभी विरोध नहीं किया। अब उनकी औलादें खामख्वाह कटाजुज्झ मचा रही हैं।’
दूसरे निठलले चिंतक ने कॉफी का घूंट भरते हुए कहा, ‘नहीं, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। मैं तो कहता हूं कि इस देश के व्यंग्यकारों, कलाकारों, कार्टूनिस्टों, कवियों और लेखकों के साथ वही होना चाहिए, जो मुगलिया सल्तनत के शंहशाह शाहजहां ने किया था। ताजमहल बनाने वाले वास्तुविदों के हाथ काटकर उन्होंने पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल कायम की थी। देखो, व्यवस्था और युग भले ही बदल जाए, लेकिन शासकों का चरित्र कभी नहीं बदलता है। कलाकार, चित्रकार और भी जितने ‘कार’ इस दुनिया में पाए जाते हैं, वे सिर्फ और सिर्फ देश और समाज पर बोझ होते हैं। उनकी समाज में कोई उपयोगिता नहीं है। इनके ‘होने या न होने’ पर समाज पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता।’ पहले चोंचवादी ने कहा, ‘भइए! इस देश में लोकतंत्र नाम की कोई चिड़िया बसती भी है कि नहीं। सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिसकी जो मर्जी होगी, वह लिखेगा, पढ़ेगा। जरूरत पड़ी, तो कार्टून भी बनाएगा। तुम कौन होते हो, उन्हें रोकने या उनके हाथ काटने वाले।’
दूसरे व्यक्ति ने पहले गहरी सांस भरी और फिर बाकी बची कॉफी हलक में उतारने के बाद गुर्राया, ‘इसका क्या मतलब हुआ? आप जो चाहेंगे, वही लिख देंगे। जिस किसी का चाहेंगे, कार्टून बना देंगे। गांधी, नेहरू, अंबेडकर, जिन्ना, गुरु गोलवकर, लोहिया, कांशीराम के विचारों का विरोध करने लग जाएंगे। यह तो नाफरमानी है। हुकुम उदूली है। व्यवस्था का विरोध है। मेरी समझ में एक बात नहीं आती है कि ये तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इस व्यवस्था के विरोध में सोचने की हिम्मत कैसे जुटा लेते हैं। कैसे ये कल्पना की उड़ान भर लेते हैं? उन्हें ममतावादियों, अंबेडकरवादियों, कांग्रेसियों, भाजपाइयों, बसपाइयों, सपाइयों, वामपंथियों सहित इस देश के गली-कूंचे के छुटभये नेताओं का जरा भी भय नहीं लगता?’
पहला व्यक्ति व्यंग्यात्मक लहजे में हंसा, ‘अगर इन्हें डर ही लगता, तो ये चिंतन ही क्यों करते? व्यवस्था के खिलाफ कोई रचना कैसे करते?’ दूसरे व्यक्ति ने समझाने की कोशिश की, ‘बंधु! सच पूछो, तो इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज ही नहीं है। बस, ‘दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है’ जैसी हालत है इसकी। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कार्टून, व्यंग्य, लेख या कविता लिखने या बनाने से पहले रचनाकार अपनी थीम को लिखकर शहर के किसी चर्चित चौराहे पर टांग दें। अगर उस थीम में अंबेडकरवादियों, ममतावादियों, मनुवादियों, भाववादियों जैसे तमाम वादियों को आपत्तिजनक नहीं लगता है, तो वे उसका सृजन करें और सृजन के बाद भी यही प्रक्रिया अपनाएं। जो व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, कवि या लेखक को ऐसा नहीं करता है, उसे इस देश में रहने का अधिकार जब्त कर लेना चाहिए। उसे किसी निर्जन कुछ भी रचने का अधिकार नहीं होना चाहिए।’
यह कहकर वह व्यक्ति थोड़ी देर सांस लेने के लिए रुका। फिर बोला, ‘मेरी तो राय है कि इस देश में जितने भी कार्टूनिस्ट, व्यंग्यकार, लेखक और कवि अपने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पहरुआ मानते हों, उन्हें या तो फांसी पर लटका देना चाहिए या फिर उन्हें कालेपानी की सजा देकर किसी निर्जन द्वीप पर यह कहते हुए छोड़ देना चाहिए कि अब इस निर्जन द्वीप पर तुम मन चाहे जितने कार्टून बनाओ, व्यंग्य लिखो, या कल्पना उड़ान भरो। तुम्हें रोकने वाला कोई नहीं है। लेकिन खबरदार! तुम्हारी कल्पना की उड़ान सभ्य समाज की ओर से होकर नहीं गुजरनी चाहिए। वरना कोई ममता, कोई माया, कोई सिब्बल तुम्हारा सिर कलम करने को स्वतंत्र होगा। फिर लोकतंत्र की दुहाई देते हुए मत घूमना।’ इतना कहकर दोनों निठल्ले उठे और कॉफी का बिल पेमेंट कर चलते बने। मैं कॉफी देर तक उनके निठल्ले चिंतन पर बेतुका चिंतन करता रहा और अपने दरबे में आकर सो गया।

Wednesday, May 9, 2012

...नौ दिन चले अढ़ाई कोस

अशोक मिश्र
अभी कुछ दिन पहले मैं घर के खर्च का हिसाब-किताब जोड़ता-घटाता चला जा रहा था कि कूड़े के ढेर पर मुझे कागज के कुछ टुकड़े दिखाई पड़े। वे पीले पड़ गए थे। मुझे लगा कि कहीं कोई पुरानी पुस्तक की पांडुलिपि न हो? एक अजीब-सा कश्मकश मन में चलने लगा। यदि कहीं सिर्फ रद्दी हुई, तो लोग मुझे कूड़े के ढेर से रद्दी चुनते देखकर मजाक उड़ाएंगे। और खुदा न खास्ता, अगर कहीं किसी पुराने ग्रंथ की पांडुलिपि हुई, तो मैं उसे खोज निकालने की वाहवाही लूटने से वंचित हो जाऊंगा। कुछ मिनट की ऊहापोह के बाद दिल ने चंदबरदाई की तरह कहा, 'कूड़ा-करकट की सोच मत, न कर जगहंसाई का ध्यान, कूड़े पर पांडुलिपि है, मत चूको चौहान।Ó मैं उस पांडुलिपि पर एेसा झपटा, जैसे चील मांस के टुकड़े पर झपटती है।
उस पांडुलिपि को सीने से लगाकर घर लाया और सीधा अपने कमरे में गया। खिड़की-दरवाजा बंद करने के बाद उत्तेजित हृदय और कंपकंपाते हाथ के साथ मैंने उस पांडुलिपि का अवलोकन करना शुरू किया। मित्रो! एक पैराग्राफ पढऩे के बाद मुझे अपने पर कोफ्त हुई कि मैंने उस रद्दी के टुकड़े को किसी ग्रंथ की पांडुलिपि समझने की भूल कैसे की? जानते हैं, वह क्या था? वह आज से दस-बारह साल पहले दसवीं कक्षा के छात्र की हिंदी विषय के तृतीय प्रश्नपत्र की उत्तर पुस्तिका थी। बीच में एक पन्ना पता नहीं कैसे खराब होने से बच गया था। उसमें प्रश्न लिखा था कि 'पोस्ती ने ली पोस्त, नौ दिन चले अढ़ाई कोसÓ कहावत का उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए। उस छात्र ने भी जो जवाब लिखा था, वह भी कम रोचक नहीं था। पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए छात्र का उत्तर ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है।
छात्र ने लिखा था, इस कहावत में रचियता कवि का पोस्ती से तात्पर्य अफीमची नहीं, सत्ता लोलुपों और पोस्त का अफीम से नहीं, सत्ता से है। यानी सत्ता के लोलुप जब तक सत्ता से बाहर रहते हैं, तो वे पोस्त और पोस्तियों (सत्ता और सत्ताधीशों यानी सरकार) की कमियां गिनाते रहते हैं। सरकार अगर आम जनता की ओर मुंह करके छींक दे, तो गैर पोस्ती (अर्थात विपक्षी) सरकार की नाक में दम कर देते हैं। उन्हें अपनी पार्टी के अध्यक्ष, महामंत्री, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेताओं के पहाड़ जैसे भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, जनविरोधी कार्य नहीं दिखते हैं, लेकिन सरकार की राई जैसी गलतियां पहाड़ जैसी दिखती हैं। वे आवाम को जनसभाओं, मीडिया और सोशल साइट्स पर विश्वास दिलाने लगते हैं कि हे भाग्य विधाता रूपी मतदाताओं! अगर इस बार आपने मेरी पार्टी की सरकार बनवा दी, तो आज लूट-खसोटकर अपना घर भरने वाले मंत्रियों, सांसदों या विधायकों के आलीशान बंगलों और कोठियों को खोदकर खलिहान बनवा दूंगा। लेकिन जब यही गैरपोस्ती पोस्ती हो जाते हैं, यानी विपक्ष से सत्तापक्ष में बैठने लगते हैं, तो ये भी पूर्ववर्तियों की तरह सत्ता की पोस्त चाट लेते हैं, यानी इन पर भी सत्ता का नशा चढ़ जाता है। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा किए गए घोटालों और भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार बनने के दूसरे दिन गठित होने वाले इन्क्वायरी कमीशन हवा हो जाते हैं। जिस तरह खूब खाया पिया और मोटा हो गया अजगर बहुत जरूरी होने पर ही रेंगता है, काफी जोर लगाने और आत्मबल बटोरने के बाद नौ दिन में सिर्फ अढ़ाई कोस चल पाता है। वैसे ही सरकार भी रेंगने लगती है। अपने देश में रेंगने का दायित्व आजादी के बाद सबसे पहले और सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी ने निभाया। इसके बाद कुछ राजनीतिक पार्टियां मिल-जुलकर रेंगी, लेकिन वे इस बात पर लड़ पड़ीं कि तुम ज्यादा रेंगे कि मैं। फिर कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय स्तर के सरीसृप, बसपा, सपा, जनता दल, राष्ट्रीय जनता, तृणमूल कांग्रेस, द्रुमुक और अन्ना द्रुमुक जैसे छोटे या मंझोले सरीसृपों को साथ लेकर रेंगे। तब से कभी ये, तो कभी वे पारी अदल-बदलकर रेंग रहे हैं। ऐसी संभावना है कि ये भविष्य में भी इसी तरह रेंगते रहेंगे, लेकिन आम आवाम के हित में बनने वाली योजनाएं और परियोजनाएं भी इनके साथ रेंगती रहेंगी।
विशेष : इससे एक बात और जाहिर होती है कि कवि न केवल सभी तरह के नशीले पदार्थों का विशेषज्ञ है, बल्कि उसे जीव विज्ञान के बारे में महारत हासिल है।

Tuesday, May 1, 2012

आओ ‘सीडी-सीडी’ खेलें

अशोक मिश्र
कुछ बच्चे मोहल्ले के पार्क में तीन-चार मीटर लंबी और एक मीटर चौड़ी साफ-सुथरी जगह पर दस-बारह चौकोर खाने खींचकर खेल रहे थे। बच्चों को खेलता और धूप से हलकान होकर थोड़ी देर सुस्ताने की नीयत से पास ही उगे पेड़ की छाया में बनी सीमेंटेड बेंच पर बैठकर उनका खेल देखने लगा। सबसे बड़ा बच्चा सात साल का था और सबसे छोटी बच्ची चार साल की। एक बच्चे के हाथ में एक ‘सीडी’ थी। उनसे से एक बच्चा पहले चौकोर खाने के पास खड़ा होकर बोला, ‘अब मेरी बारी।’
बड़े बच्चे ने उसे सीडी थमाई। चौकोर खाने की ओर पीठ करके वह बच्चा खड़ा हो गया और उसने सीडी को चूमकर पीछे की ओर उछाली, ‘पापा की सीडी।’ उस बच्चे की बात सुनकर मैं उछल पड़ा। मानो, किसी ने बिजली का नंगा तार मेरी पीठ पर छुआ दिया हो। मेरी जगह कोई भी होता, तो चौंक गया होता, बशर्ते उसने सीडियों का ‘कमाल’ देखा होता। इन मुई सीडियों ने बड़े-बड़े महारथियों को पैदल कर दिया है। मैं दिल्ली के एक नेता जी को जानता हूं। बेचारे पार्टी के लिए उन्होंने पूरी जिंदगी खपा दी। उनका बाप पार्टी में बड़ा नेता था, तो उत्तराधिकार में उन्हें चल-अचल संपत्ति के साथ ही नेतागीरी भी मिली। पार्टी ने उनके बाप की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया। वे पार्टी की ओर से मीडिया में नैतिकता और सच्चरित्रता का प्रवचन देने लगे। वे विरोधियों की राई भर की गलती को पहाड़ बनाकर वाहवाही लूटते। उनकी वाक्पटुता के पार्टी वाले ही नहीं, विरोधी भी कायल थे, लेकिन एक दिन पता नहीं, किस नामाकूल ने मीडिया को एक सीडी जारी कर दी। सीडी क्या जारी हुई, कल तक सिर-माथे पर बिठाया जाने वाला यह नेता अछूत हो गया। पार्टी के विभिन्न पदों से इस्तीफा देकर राजनीतिक वनवास भोगने को मजूबर होना पड़ा।
इस करमजली सीडी ने नेताओं की ही भट्ठी नहीं बुझाई है, आम लोगों के भी जीवन में जहर घोला है। मेरे पड़ोस में रहते है परसद्दी लाल। कोई बड़े आदमी नहीं हैं। एक दम खांटी आम जनता हैं। बेचारे सीधे इतने कि मोहल्ले के लोग उन्हें गऊ बोलते हैं। महीने भर पहले वे किसी काम से अपने आठ वर्षीय बेटे गॉटर प्रसाद के साथ अपनी ससुराल गए। उन दिनों परसद्दी लाल की साली भी अपने मायके आई हुई थी। दो दिन ससुराल में रहकर परसद्दी लाल लौट आए थे। एक दिन उनके बेटे गॉटर ने बहुत खुश होकर बताया, ‘अम्मा! बप्पा ने मौसी के साथ एक सीडी बनाई है। बप्पा उस सीडी को अपने झोले में लेकर आए हैं।’
दरअसल, परसद्दी लाल की ससुराल में भागवत कथा का आयोजन किया गया था, जिसमें भाग लेने वह गए थे। इस पूरे आयोजन की वीडियो रिकॉर्डिंग की गई थी, जिसमें वह अपनी साली के साथ बैठे प्रवचन सुन रहे थे। परसद्दीलाल के मजदूरी करके घर लौटने पर उनकी बीवी ने पहले तो बातों-बातों में मायके में बनी सीडी की चर्चा की। साली को लेकर मजाक की नीयत से पहले तो वह खूब इठला-इठलाकर पत्नी को चिढ़ाते रहे। फिर यह मजाक धीरे-धीरे रंग लाता गया और फिर मियां-बीवी में तकरार शुरू हो गई। बात मारपीट तक पहुंची और गुस्से में आकर मोहल्ले में गऊ कहे जाने वाले परसद्दी लाल ने बीवी को बाहर निकालकर अंदर से घर का दरवाजा बंद कर लिया। गुस्सा शांत होने पर उन्होंने बीवी को अंदर बुलाना चाहा, तब तक उनकी बीवी बेटे को लेकर मायके जा चुकी थी। हालांकि, मायके पहुंचने पर परसद्दी लाल की बीवी को सीडी की असलियत मालूम हुई, लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका था। अब वह हेठी के भय से नहीं ससुराल जा रही है और न ही परसद्दी लाल उसे लिवाने जा पा रहे हैं।
मैंने बच्चों को बुलाकर कहा, ‘बच्चों! तुम्हें यह खेल किसने सिखाया है? यह गंदा खेल है, इसे मत खेलो।’ उन बच्चों में से एक ने कहा, ‘अंकल! कल टीवी पर लिखा था ‘सीडी का खेल।’ अब यह खेल तो समझ में आया नहीं कि कैसे खेलते हैं, सो हम लोग आज ‘सिकड़ी’ खेल को ही बदल कर ‘सीडी-सीडी’ खेलने लगे। आप ये जो बारह खाने देख रहे हैं, इनमें से हर खाने का एक नाम है, जैसे मम्मी, पापा, भइया, दीदी, मौसी आदि। जिस खाने में यह सीडी गिरती है, तो हम कहते हैं कि मम्मी की सीडी, पापा की सीडी। हर खाने का एक स्कोर है। इसके साथ ही खेलने वाले को एक टांग पर बिना कोई खाना छलांग लगाए या इन लकीरों पर पैर रखे, उस सीडी को उठाना होता है और फिर एक टांग पर ही उसे लौटना भी होता है। इस तरह जो ज्यादा स्कोर हासिल करता है, वह जीतता है।’ तभी एक लड़का चिल्लाया, ‘अबे सुरेश! चल तू अपनी चाल चल। अंकल तो पागल हो गए हैं। खेल भी कहीं गंदा होता है।’ मैं चुपचाप बैठा रहा और बच्चे खेलते रहे।

कामरेड! पहले खुद तो पढ़ें मार्क्सवाद

देश में वामपंथी आंदोलन की अगुवा मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लॉक से लेकर गली-कूचे में अपने को मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, ट्राटस्कीवादी, स्टालिनवादी कहने वाली पार्टियों ने आज तक ‘निजी संपत्ति तेरा नाश हो’ की बात कही हो, तो बताइए?
अशोक मिश्र
पिछले कुछ दिनों से प. बंगाल में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता और मानववादी दार्शनिक कार्ल्स मार्क्स और उनके सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स की जीवनी को ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से हटाने को लेकर तृणमूल कांग्रेस सरकार की आलोचना हो रही है। वामपंथी नेता और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं और इतिहास के प्रमुख पात्रों को पाठ्यक्रम से क्यों हटाया जा रहा है? यह अनावश्यक और दुर्भाग्यपूर्ण है। छात्रों के मार्क्स और एंगेल्स या रूसी क्रांति का इतिहास पढ़ने का यह मतलब नहीं है कि वे वामपंथी बन जाएंगे। सच भी यही है कि सिर्फ कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स या ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन की जीवनी पढ़ने से कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी हो जाता, तो सबसे पहले हिंदुस्तान के वामपंथी नेता और उनके कार्यकर्ता सही मायने में मार्क्सवादी-लेनिनवादी हो गए होते।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इस फैसले की अपनी-अपनी रुचि और रुझान के आधार पर निंदा या स्वागत किया जा सकता है। जब केंद्र में एनडीए सरकार थी, तो उसने भी शिक्षा में कुछ मूलभूत सुधार की कोशिश की थी। तब एनडीए की केंद्र सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाया गया था। आज भी जिन प्रदेशों में भाजपा या भाजपा गठबंधन की सरकारें हैं, वह अगर शिक्षा के मामले में कोई परिवर्तन होता है या भाजपाई दर्शन के अनुसार बदलाव किया जाता है, तो वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग उसका विरोध करते हैं। जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी, तब भी शिक्षा के वामपंथीकरण का आरोप तत्कालीन वामपंथी सरकार पर लगता रहता था। आज सत्ता में आकर तृणमूल कांग्रेस शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन कर रही है, कल अगर वामपंथी सरकार को मौका मिलता है, तो वह अपनी रुचि और दार्शनिक सोच के मुताबिक नौनिहालों को शिक्षा देने का प्रयास करेगी। पिछले तीस-बत्तीस साल से पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकारें यही तो करती रही हैं। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था के संचालकों की नूरा-कुश्ती है। मुख्य सवाल यह है कि जिस मानवतावादी कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स या लेनिन का नाम लेकर या रामनामी लबादे की तरह मार्क्सवादी-लेनिनवादी लबादा ओढ़कर हिंदुस्तान की ये वामपंथी पार्टियां देश की श्रमिक-शोषित जनता को गुमराह करती रही हैं, अब भी कर रही हैं, वे खुद मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन को कितना आत्मसात कर सकी हैं। आइए, हम आपको ले चलते हैं सन् 1871 के पेरिस कम्यून के इतिहास की ओर। मार्क्सवादी साहित्य से जरा भी रुचि रखने वाले जानते हैं कि पेरिस कम्यून वह पहला अवसर था, जब मजदूर वर्ग ने अपनी संगठित शक्ति के साथ पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ ‘हल्ला’ बोला था। 18 मार्च 1871 को मजदूर नेताओं के नेतृत्व में पूंजीवादी सरकार को हटाकर पेरिस में मजदूरों का आधिपत्य कायम हुआ था। यह कम्यून 64 दिन तक कायम रहा और बाद में पूंजीवादी शक्तियों ने पेरिस कम्यून को छिन्न-भिन्न कर दिया। हिंदुस्तान के वामपंथी नेताओं को शायद याद हो कि पेरिस कम्यून की स्थापना से पहले द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ (जिसे हिंदुस्तान के कम्युनिस्टों ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र बना दिया है) में लिखा कि यद्यपि अभी क्रांति की परिस्थितियां परिपक्व नहीं हैं, लेकिन जब मजदूरों ने अपने स्वर्ग पर धावा बोल दिया है, ऐसे में दुनिया भर के क्रांतिकारियों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे इस क्रांति को अपनी पूरी ताकत से सफल बनाएं।  संयोग देखिए, मात्र 64 दिनों बाद पेरिस कम्यून विफल हुआ और तब कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में संशोधन करते हुए कहा कि इस पेरिस कम्यून की विफलता ने एक बात सिद्ध कर दी है कि मजदूर वर्ग इस पूंजीवादी व्यवस्था की बनी-बनाई मशीनरी पर कब्जा करके मजदूर राज कायम नहीं कर सकता है। मजदूर वर्ग को साम्यवादी व्यवस्था कायम करने के लिए सबसे पहले पूंजीवादी व्यवस्था का ध्वंस और उन्मूलन करना होगा और उस पर एक नई समाज शास्त्रीय व्यवस्था कायम करनी होगी। इसके लिए मजदूरों को सबसे पहले निजी संपत्ति का खात्मा करना होगा। (फ्रांस और गृहयुद्ध : कार्ल मार्क्स) तब मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में दुनिया भर के मजदूरों को संबोधित करते हुए कहा, ‘दुनिया के मजदूरो! एक हो। निजी संपत्ति तेरा नाश हो।’ लेकिन जरा इस मार्क्सवादी शिक्षा के आलोक में हिंदुस्तान की तमाम वामपंथी पार्टियों के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक का आचरण परख कर देखिए कि वे कितने मार्क्सवादी हैं। देश में वामपंथी आंदोलन की अगुवा मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक से लेकर गली-कूचे में अपने को मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, ट्राटस्कीवादी, स्टालिनवादी कहने वाली पार्टियों ने आज तक ‘निजी संपत्ति तेरा नाश हो’ की बात कही हो, तो बताइए। दरअसल, ये पार्टियां न तो निजी संपत्ति का नाश चाहती हैं और न ही इस पूंजीवादी व्यवस्था का ध्वंस और उन्मूलन। अपने को वामपंथी कहने वाली पार्टियां दरअसल कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों की ही तरह सुधारवादी आंदोलन चलाकर मजदूर आंदोलन की धार को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं। इन पार्टियों का आचरण मौलिक रूप से कांग्रेस या भाजपा से भिन्न नहीं है। वामपंथी पार्टियां देश के मजदूरों, किसानों और खेतिहर मजदूरों को सुधारवादी आंदोलन में उलझाकर पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक यानी मंत्री, सांसद, विधायक आदि बनकर अपना हित साध रहे हैं। कौन नहीं जानता है कि केरल और पश्चिम बंगाल में पिछले कई दशक से शासन करने वाले वामपंथी नेताओं ने कितनी अकूत संपत्ति कमाई है। इसलिए अगर देश के मजदूर आंदोलन की अगुवाई करके मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत के मुताबिक क्रांति करनी है, तो कामरेड! सबसे पहले आपको अपनी निजी संपत्ति का त्यागकर एक उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। वरना...।