Tuesday, May 1, 2012

कामरेड! पहले खुद तो पढ़ें मार्क्सवाद

देश में वामपंथी आंदोलन की अगुवा मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लॉक से लेकर गली-कूचे में अपने को मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, ट्राटस्कीवादी, स्टालिनवादी कहने वाली पार्टियों ने आज तक ‘निजी संपत्ति तेरा नाश हो’ की बात कही हो, तो बताइए?
अशोक मिश्र
पिछले कुछ दिनों से प. बंगाल में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता और मानववादी दार्शनिक कार्ल्स मार्क्स और उनके सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स की जीवनी को ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से हटाने को लेकर तृणमूल कांग्रेस सरकार की आलोचना हो रही है। वामपंथी नेता और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं और इतिहास के प्रमुख पात्रों को पाठ्यक्रम से क्यों हटाया जा रहा है? यह अनावश्यक और दुर्भाग्यपूर्ण है। छात्रों के मार्क्स और एंगेल्स या रूसी क्रांति का इतिहास पढ़ने का यह मतलब नहीं है कि वे वामपंथी बन जाएंगे। सच भी यही है कि सिर्फ कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स या ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन की जीवनी पढ़ने से कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी हो जाता, तो सबसे पहले हिंदुस्तान के वामपंथी नेता और उनके कार्यकर्ता सही मायने में मार्क्सवादी-लेनिनवादी हो गए होते।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इस फैसले की अपनी-अपनी रुचि और रुझान के आधार पर निंदा या स्वागत किया जा सकता है। जब केंद्र में एनडीए सरकार थी, तो उसने भी शिक्षा में कुछ मूलभूत सुधार की कोशिश की थी। तब एनडीए की केंद्र सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाया गया था। आज भी जिन प्रदेशों में भाजपा या भाजपा गठबंधन की सरकारें हैं, वह अगर शिक्षा के मामले में कोई परिवर्तन होता है या भाजपाई दर्शन के अनुसार बदलाव किया जाता है, तो वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग उसका विरोध करते हैं। जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी, तब भी शिक्षा के वामपंथीकरण का आरोप तत्कालीन वामपंथी सरकार पर लगता रहता था। आज सत्ता में आकर तृणमूल कांग्रेस शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन कर रही है, कल अगर वामपंथी सरकार को मौका मिलता है, तो वह अपनी रुचि और दार्शनिक सोच के मुताबिक नौनिहालों को शिक्षा देने का प्रयास करेगी। पिछले तीस-बत्तीस साल से पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकारें यही तो करती रही हैं। यह इस पूंजीवादी व्यवस्था के संचालकों की नूरा-कुश्ती है। मुख्य सवाल यह है कि जिस मानवतावादी कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स या लेनिन का नाम लेकर या रामनामी लबादे की तरह मार्क्सवादी-लेनिनवादी लबादा ओढ़कर हिंदुस्तान की ये वामपंथी पार्टियां देश की श्रमिक-शोषित जनता को गुमराह करती रही हैं, अब भी कर रही हैं, वे खुद मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन को कितना आत्मसात कर सकी हैं। आइए, हम आपको ले चलते हैं सन् 1871 के पेरिस कम्यून के इतिहास की ओर। मार्क्सवादी साहित्य से जरा भी रुचि रखने वाले जानते हैं कि पेरिस कम्यून वह पहला अवसर था, जब मजदूर वर्ग ने अपनी संगठित शक्ति के साथ पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ ‘हल्ला’ बोला था। 18 मार्च 1871 को मजदूर नेताओं के नेतृत्व में पूंजीवादी सरकार को हटाकर पेरिस में मजदूरों का आधिपत्य कायम हुआ था। यह कम्यून 64 दिन तक कायम रहा और बाद में पूंजीवादी शक्तियों ने पेरिस कम्यून को छिन्न-भिन्न कर दिया। हिंदुस्तान के वामपंथी नेताओं को शायद याद हो कि पेरिस कम्यून की स्थापना से पहले द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता कार्ल मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ (जिसे हिंदुस्तान के कम्युनिस्टों ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र बना दिया है) में लिखा कि यद्यपि अभी क्रांति की परिस्थितियां परिपक्व नहीं हैं, लेकिन जब मजदूरों ने अपने स्वर्ग पर धावा बोल दिया है, ऐसे में दुनिया भर के क्रांतिकारियों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे इस क्रांति को अपनी पूरी ताकत से सफल बनाएं।  संयोग देखिए, मात्र 64 दिनों बाद पेरिस कम्यून विफल हुआ और तब कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में संशोधन करते हुए कहा कि इस पेरिस कम्यून की विफलता ने एक बात सिद्ध कर दी है कि मजदूर वर्ग इस पूंजीवादी व्यवस्था की बनी-बनाई मशीनरी पर कब्जा करके मजदूर राज कायम नहीं कर सकता है। मजदूर वर्ग को साम्यवादी व्यवस्था कायम करने के लिए सबसे पहले पूंजीवादी व्यवस्था का ध्वंस और उन्मूलन करना होगा और उस पर एक नई समाज शास्त्रीय व्यवस्था कायम करनी होगी। इसके लिए मजदूरों को सबसे पहले निजी संपत्ति का खात्मा करना होगा। (फ्रांस और गृहयुद्ध : कार्ल मार्क्स) तब मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में दुनिया भर के मजदूरों को संबोधित करते हुए कहा, ‘दुनिया के मजदूरो! एक हो। निजी संपत्ति तेरा नाश हो।’ लेकिन जरा इस मार्क्सवादी शिक्षा के आलोक में हिंदुस्तान की तमाम वामपंथी पार्टियों के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक का आचरण परख कर देखिए कि वे कितने मार्क्सवादी हैं। देश में वामपंथी आंदोलन की अगुवा मानी जाने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक से लेकर गली-कूचे में अपने को मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, ट्राटस्कीवादी, स्टालिनवादी कहने वाली पार्टियों ने आज तक ‘निजी संपत्ति तेरा नाश हो’ की बात कही हो, तो बताइए। दरअसल, ये पार्टियां न तो निजी संपत्ति का नाश चाहती हैं और न ही इस पूंजीवादी व्यवस्था का ध्वंस और उन्मूलन। अपने को वामपंथी कहने वाली पार्टियां दरअसल कांग्रेस, भाजपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों की ही तरह सुधारवादी आंदोलन चलाकर मजदूर आंदोलन की धार को कुंद करने का प्रयास कर रही हैं। इन पार्टियों का आचरण मौलिक रूप से कांग्रेस या भाजपा से भिन्न नहीं है। वामपंथी पार्टियां देश के मजदूरों, किसानों और खेतिहर मजदूरों को सुधारवादी आंदोलन में उलझाकर पूंजीवादी व्यवस्था का संचालक यानी मंत्री, सांसद, विधायक आदि बनकर अपना हित साध रहे हैं। कौन नहीं जानता है कि केरल और पश्चिम बंगाल में पिछले कई दशक से शासन करने वाले वामपंथी नेताओं ने कितनी अकूत संपत्ति कमाई है। इसलिए अगर देश के मजदूर आंदोलन की अगुवाई करके मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत के मुताबिक क्रांति करनी है, तो कामरेड! सबसे पहले आपको अपनी निजी संपत्ति का त्यागकर एक उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। वरना...।

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