Wednesday, May 9, 2012

...नौ दिन चले अढ़ाई कोस

अशोक मिश्र
अभी कुछ दिन पहले मैं घर के खर्च का हिसाब-किताब जोड़ता-घटाता चला जा रहा था कि कूड़े के ढेर पर मुझे कागज के कुछ टुकड़े दिखाई पड़े। वे पीले पड़ गए थे। मुझे लगा कि कहीं कोई पुरानी पुस्तक की पांडुलिपि न हो? एक अजीब-सा कश्मकश मन में चलने लगा। यदि कहीं सिर्फ रद्दी हुई, तो लोग मुझे कूड़े के ढेर से रद्दी चुनते देखकर मजाक उड़ाएंगे। और खुदा न खास्ता, अगर कहीं किसी पुराने ग्रंथ की पांडुलिपि हुई, तो मैं उसे खोज निकालने की वाहवाही लूटने से वंचित हो जाऊंगा। कुछ मिनट की ऊहापोह के बाद दिल ने चंदबरदाई की तरह कहा, 'कूड़ा-करकट की सोच मत, न कर जगहंसाई का ध्यान, कूड़े पर पांडुलिपि है, मत चूको चौहान।Ó मैं उस पांडुलिपि पर एेसा झपटा, जैसे चील मांस के टुकड़े पर झपटती है।
उस पांडुलिपि को सीने से लगाकर घर लाया और सीधा अपने कमरे में गया। खिड़की-दरवाजा बंद करने के बाद उत्तेजित हृदय और कंपकंपाते हाथ के साथ मैंने उस पांडुलिपि का अवलोकन करना शुरू किया। मित्रो! एक पैराग्राफ पढऩे के बाद मुझे अपने पर कोफ्त हुई कि मैंने उस रद्दी के टुकड़े को किसी ग्रंथ की पांडुलिपि समझने की भूल कैसे की? जानते हैं, वह क्या था? वह आज से दस-बारह साल पहले दसवीं कक्षा के छात्र की हिंदी विषय के तृतीय प्रश्नपत्र की उत्तर पुस्तिका थी। बीच में एक पन्ना पता नहीं कैसे खराब होने से बच गया था। उसमें प्रश्न लिखा था कि 'पोस्ती ने ली पोस्त, नौ दिन चले अढ़ाई कोसÓ कहावत का उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए। उस छात्र ने भी जो जवाब लिखा था, वह भी कम रोचक नहीं था। पाठकों के ज्ञानवर्धन के लिए छात्र का उत्तर ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है।
छात्र ने लिखा था, इस कहावत में रचियता कवि का पोस्ती से तात्पर्य अफीमची नहीं, सत्ता लोलुपों और पोस्त का अफीम से नहीं, सत्ता से है। यानी सत्ता के लोलुप जब तक सत्ता से बाहर रहते हैं, तो वे पोस्त और पोस्तियों (सत्ता और सत्ताधीशों यानी सरकार) की कमियां गिनाते रहते हैं। सरकार अगर आम जनता की ओर मुंह करके छींक दे, तो गैर पोस्ती (अर्थात विपक्षी) सरकार की नाक में दम कर देते हैं। उन्हें अपनी पार्टी के अध्यक्ष, महामंत्री, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेताओं के पहाड़ जैसे भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, जनविरोधी कार्य नहीं दिखते हैं, लेकिन सरकार की राई जैसी गलतियां पहाड़ जैसी दिखती हैं। वे आवाम को जनसभाओं, मीडिया और सोशल साइट्स पर विश्वास दिलाने लगते हैं कि हे भाग्य विधाता रूपी मतदाताओं! अगर इस बार आपने मेरी पार्टी की सरकार बनवा दी, तो आज लूट-खसोटकर अपना घर भरने वाले मंत्रियों, सांसदों या विधायकों के आलीशान बंगलों और कोठियों को खोदकर खलिहान बनवा दूंगा। लेकिन जब यही गैरपोस्ती पोस्ती हो जाते हैं, यानी विपक्ष से सत्तापक्ष में बैठने लगते हैं, तो ये भी पूर्ववर्तियों की तरह सत्ता की पोस्त चाट लेते हैं, यानी इन पर भी सत्ता का नशा चढ़ जाता है। पूर्ववर्ती सरकार द्वारा किए गए घोटालों और भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार बनने के दूसरे दिन गठित होने वाले इन्क्वायरी कमीशन हवा हो जाते हैं। जिस तरह खूब खाया पिया और मोटा हो गया अजगर बहुत जरूरी होने पर ही रेंगता है, काफी जोर लगाने और आत्मबल बटोरने के बाद नौ दिन में सिर्फ अढ़ाई कोस चल पाता है। वैसे ही सरकार भी रेंगने लगती है। अपने देश में रेंगने का दायित्व आजादी के बाद सबसे पहले और सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी ने निभाया। इसके बाद कुछ राजनीतिक पार्टियां मिल-जुलकर रेंगी, लेकिन वे इस बात पर लड़ पड़ीं कि तुम ज्यादा रेंगे कि मैं। फिर कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय स्तर के सरीसृप, बसपा, सपा, जनता दल, राष्ट्रीय जनता, तृणमूल कांग्रेस, द्रुमुक और अन्ना द्रुमुक जैसे छोटे या मंझोले सरीसृपों को साथ लेकर रेंगे। तब से कभी ये, तो कभी वे पारी अदल-बदलकर रेंग रहे हैं। ऐसी संभावना है कि ये भविष्य में भी इसी तरह रेंगते रहेंगे, लेकिन आम आवाम के हित में बनने वाली योजनाएं और परियोजनाएं भी इनके साथ रेंगती रहेंगी।
विशेष : इससे एक बात और जाहिर होती है कि कवि न केवल सभी तरह के नशीले पदार्थों का विशेषज्ञ है, बल्कि उसे जीव विज्ञान के बारे में महारत हासिल है।

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