Sunday, May 20, 2012

कार्टूनिस्टों को फांसी दो

-अशोक मिश्र
जब मैं कॉफी हाउस में घुसा, तो कुछ चोंचवादी निठल्ले चिंतन कर रहे थे। एक व्यक्ति कह रहा था,‘कुछ भी हो। कार्टून मुद्दे को संसद में नहीं उठाना चाहिए। भला यह भी कोई तुक हुई कि जिस व्यक्ति को लेकर कार्टून बनाया गया, उसने जीते-जी कभी विरोध नहीं किया। अब उनकी औलादें खामख्वाह कटाजुज्झ मचा रही हैं।’
दूसरे निठलले चिंतक ने कॉफी का घूंट भरते हुए कहा, ‘नहीं, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। मैं तो कहता हूं कि इस देश के व्यंग्यकारों, कलाकारों, कार्टूनिस्टों, कवियों और लेखकों के साथ वही होना चाहिए, जो मुगलिया सल्तनत के शंहशाह शाहजहां ने किया था। ताजमहल बनाने वाले वास्तुविदों के हाथ काटकर उन्होंने पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल कायम की थी। देखो, व्यवस्था और युग भले ही बदल जाए, लेकिन शासकों का चरित्र कभी नहीं बदलता है। कलाकार, चित्रकार और भी जितने ‘कार’ इस दुनिया में पाए जाते हैं, वे सिर्फ और सिर्फ देश और समाज पर बोझ होते हैं। उनकी समाज में कोई उपयोगिता नहीं है। इनके ‘होने या न होने’ पर समाज पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता।’ पहले चोंचवादी ने कहा, ‘भइए! इस देश में लोकतंत्र नाम की कोई चिड़िया बसती भी है कि नहीं। सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिसकी जो मर्जी होगी, वह लिखेगा, पढ़ेगा। जरूरत पड़ी, तो कार्टून भी बनाएगा। तुम कौन होते हो, उन्हें रोकने या उनके हाथ काटने वाले।’
दूसरे व्यक्ति ने पहले गहरी सांस भरी और फिर बाकी बची कॉफी हलक में उतारने के बाद गुर्राया, ‘इसका क्या मतलब हुआ? आप जो चाहेंगे, वही लिख देंगे। जिस किसी का चाहेंगे, कार्टून बना देंगे। गांधी, नेहरू, अंबेडकर, जिन्ना, गुरु गोलवकर, लोहिया, कांशीराम के विचारों का विरोध करने लग जाएंगे। यह तो नाफरमानी है। हुकुम उदूली है। व्यवस्था का विरोध है। मेरी समझ में एक बात नहीं आती है कि ये तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इस व्यवस्था के विरोध में सोचने की हिम्मत कैसे जुटा लेते हैं। कैसे ये कल्पना की उड़ान भर लेते हैं? उन्हें ममतावादियों, अंबेडकरवादियों, कांग्रेसियों, भाजपाइयों, बसपाइयों, सपाइयों, वामपंथियों सहित इस देश के गली-कूंचे के छुटभये नेताओं का जरा भी भय नहीं लगता?’
पहला व्यक्ति व्यंग्यात्मक लहजे में हंसा, ‘अगर इन्हें डर ही लगता, तो ये चिंतन ही क्यों करते? व्यवस्था के खिलाफ कोई रचना कैसे करते?’ दूसरे व्यक्ति ने समझाने की कोशिश की, ‘बंधु! सच पूछो, तो इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज ही नहीं है। बस, ‘दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है’ जैसी हालत है इसकी। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि कार्टून, व्यंग्य, लेख या कविता लिखने या बनाने से पहले रचनाकार अपनी थीम को लिखकर शहर के किसी चर्चित चौराहे पर टांग दें। अगर उस थीम में अंबेडकरवादियों, ममतावादियों, मनुवादियों, भाववादियों जैसे तमाम वादियों को आपत्तिजनक नहीं लगता है, तो वे उसका सृजन करें और सृजन के बाद भी यही प्रक्रिया अपनाएं। जो व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, कवि या लेखक को ऐसा नहीं करता है, उसे इस देश में रहने का अधिकार जब्त कर लेना चाहिए। उसे किसी निर्जन कुछ भी रचने का अधिकार नहीं होना चाहिए।’
यह कहकर वह व्यक्ति थोड़ी देर सांस लेने के लिए रुका। फिर बोला, ‘मेरी तो राय है कि इस देश में जितने भी कार्टूनिस्ट, व्यंग्यकार, लेखक और कवि अपने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पहरुआ मानते हों, उन्हें या तो फांसी पर लटका देना चाहिए या फिर उन्हें कालेपानी की सजा देकर किसी निर्जन द्वीप पर यह कहते हुए छोड़ देना चाहिए कि अब इस निर्जन द्वीप पर तुम मन चाहे जितने कार्टून बनाओ, व्यंग्य लिखो, या कल्पना उड़ान भरो। तुम्हें रोकने वाला कोई नहीं है। लेकिन खबरदार! तुम्हारी कल्पना की उड़ान सभ्य समाज की ओर से होकर नहीं गुजरनी चाहिए। वरना कोई ममता, कोई माया, कोई सिब्बल तुम्हारा सिर कलम करने को स्वतंत्र होगा। फिर लोकतंत्र की दुहाई देते हुए मत घूमना।’ इतना कहकर दोनों निठल्ले उठे और कॉफी का बिल पेमेंट कर चलते बने। मैं कॉफी देर तक उनके निठल्ले चिंतन पर बेतुका चिंतन करता रहा और अपने दरबे में आकर सो गया।

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