Wednesday, September 5, 2012

आइए, कहानी-कविता चुराएं


-अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार मुझको बता रहे थे, ‘पाकेटमारी और चोरी दो अलग-अलग विधाएं हैं। पाकेटमारी कला का जन्म और विकास अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद हुआ था। मेरे परदादा बताते थे कि शाहजहां के शासनकाल में जब पहला अंग्रेज भारत आया था, तो गोवा में मेरे लक्कड़दादा के लक्कड़दादा ने उनकी पाकेट मार दी थी। उसके पाकेट में इंग्लैंड के अलावा एक जहांगीरी सिक्का भी था। यह जहांगीरी सिक्का आज भी हमारे परिवार का मुखिया अपने उत्तराधिकारी को सौंप जाता है। लेकिन यह मुई चौरवृत्ति वैदिक युग से ही चली आ रही है। चौरकर्म का प्रमाण पहली या दूसरी शताब्दी में गुप्तकाल में रची गई शूद्रक की मृच्छकटिकम में भी मिलता है। इसमें एक चोर ब्राह्मण रात में अपनी जनेऊ से नाप-नापकर कलात्मक सेंध तैयार करता है और सुबह हो जाने की वजह से पकड़ा जाता है।’
‘लेकिन आप मुझे यह सब क्यों बता रहे हैं?’ आजिज आकर मैंने पूछा। आज सुबह सोकर उठा भी नहीं था कि उस्ताद गुनहगार लगभग नक्सलियों की तरह घर में आ घुसे। मैं उनको देखते ही समझ गया कि हो गया दिन का सत्यानाश। कहां सोचा था कि बारह बजे तक सोकर छुट्टी का जश्न मनाऊंगा। उस्ताद गुनहगार ने तंबाकू फांकते हुए कहा, ‘वही बताने तो मैं सुबह-सुबह आया हूं, वरना न तो तू कोई देव है और न ही तेरा घर कोई तीर्थस्थान। कल एक पार्क में ‘कपि गोष्ठी’(कवि गोष्ठी को गुनहगार यही कहते हैं) हो रही थी। मैंने सोचा, चलो एकाध अच्छी कविताएं सुनने को मिलेंगी। इसी आशा में वहां बिछी दरी पर जा बैठा। वहां एक ‘जवानी दिवानी’ टाइप की कवयित्री भी आई हुई थीं। माइक पकड़कर वह पहले तो अपने लटके-झटके दिखाती रहीं और फिर उन्होंने गोपालदास नीरज की एक गजल अपनी कहकर हम सब के सिर पर दे मारा। हद तो यह थी कि सारे बेवकूफ श्रोता उस जवानी दिवानी के हर लफ्ज पर ‘वाह...वाह’ कहते रहे।’
गुनहगार की बात सुनकर मैं गंभीर हो गया। मैंने कहा, ‘उस्ताद, साहित्यिक चोरियां तो इधर कुछ सालों से बहुत बढ़ गई हैं। मैं आपको एक किस्सा बताऊं! मेरे एक कवि मित्र हैं ढपोरशंख जी। उनका यह तखल्लुस इतना चर्चित हुआ कि लोग असली नाम भूल गए। वे पिछले दस सालों से इनकी गजल, उनके गीत, फलाने का मुक्तक, ढमकाने का छंद अपने घर में रखे साहित्यिक खरल में डालते हैं और उसे दस-बीस घंटे तक घोंटते रहते हैं। और फिर, उस खरल से नए-नए गीत, छंद, गजल और मुक्तक मनचाही मात्रा में निकाल लेते हैं। गली-मोहल्ले में होने वाली कवि गोष्ठियों से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों में वे बड़ी हनक से अपनी कहकर गीत, गजल और छंद पढ़ते हैं। मजाल है कि इस साहित्यिक हेराफेरी पर कोई चूं-चपड़ कर सके।’
मेरी बात सुनकर गुनहगार सिर हिलाते रहे। फिर बोले, ‘हां मियां! साहित्यिक चोर तो कबीरदास, तुलसीदास और रहीमदास से लेकर निराला, पंत, महादेवी वर्मा तक और आज के तमाम प्रख्यात कवियों, कथाकारों और कहानीकारों की ‘वॉट’ लगाने पर तुले हुए हैं। इन रचनाओं के रीमिक्स तैयार किए जा रहे हैं। कोई माई का लाल विरोध करने वाला भी नहीं है। मैं तुम्हें क्या बताऊँ। मेरे एक परिचित लेखक हैं। कई पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। पहली पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी, तभी कुछ लोगों ने दबी जुबान से उन पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया था। बाद में प्रकाशित होने वाली पुस्तकों को लेकर भी लोगों ने यही आरोप दोहराया, तब भी मुझे विश्वास नहीं हुआ। दो साल पहले जब मैं एक मासिक पत्रिका का संपादक बनाया गया, तो वे मुझे मिलने मेरे दफ्तर आए। बड़ी गर्मजोशी से मिले और जाते समय अपनी तीन रचनाएं मुझे थमा गए। मैंने उनसे तीनों रचनाएं एक-एक करके छाप दी। इन रचनाओं के छपने के चार-पांच महीने बाद एक दिन मेरे नाम नोटिस आई कि मेरे परिचित ने अपनी बताकर जो तीनों रचनाएं मेरी पत्रिका में छपवाई थीं, वे तीनों रचनाएं वास्तव में महात्मा गांधी, दक्षिण भारत के एक प्रख्यात दार्शनिक और मोहम्मद अली जिन्ना की थीं।’
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘उस्ताद! साहित्यिक चोरी की गंगोत्री में जब सभी डुबकी मार रहे हों, तो फिर हम लोग ही इतनी मगजमारी क्यों करें। आइए, हम लोग भी दूसरों की कहानी-कविता, लेख चुराकर राष्ट्रीय स्तर के कवि, कहानीकार और लेखक बन जाते हैं।’ ‘चुपकर नासपीटे! ऐसा करके बाप-दादाओं का नाम डुबोएगा क्या? खबरदार! जो ऐसा करने की सोची, खाल खींच लूंगा तेरी।’ इतना कहकर उस्ताद उठे और चलते बने।

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