Monday, December 23, 2013

घरेलू लोकपाल के शिकंजे में

अशोक मिश्र 
अपने दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने के बाद रात नौ बजे घर पहुंचते ही दरवाजे पर से ही मैंने हांक लगाई, ‘अरे घरैतिन! यार जरा एक गिलास गुनगुना पानी दे जाना।’ एक ही हांक पर दौड़ी चली आने वाली घरैतिन की जब आवाज ही नहीं सुनाई दी, मैं चौंक गया। कमरे में जाकर देखा कि एक बड़ी-सी मेज के सामने रखी कुर्सी पर घरैतिन बैठी हुई हैं। उनके दाईं ओर बेटी एक काला कोट पहने बैठी हुई है। इकलौते पुत्र ने पुलिसिया बेंत (रूल) की ही तरह बेलन थाम रखा था। मेज पर कुछ कागज-पत्तर रखे हुए थे। मैंने हंसने का प्रयास करते हुए कहा, ‘यार! यह सब क्या है? किसी नाटक का रिहर्सल कर रहे हो तुम लोग?’ घरैतिन गंभीर आवाज में बोलीं, ‘मिस्टर अशोक! इस समय मैं ‘घरेलू लोकपाल’ के अध्यक्ष की भूमिका में हूं। वैसे तो अब तक इस घर में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री की सारी शक्तियां मुझमें ही निहित रही हैं। आज से लोकपाल की भी समस्त शक्तियां मुझे हासिल हो गई हैं। मिस्टर मिश्रा! आप पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया है। आप पर आरोप है कि आप आपनी तनख्वाह का एक हिस्सा कहीं और खर्च कर रहे हैं। आपको इस आरोप के बारे में कुछ कहना हो, तो आप थोड़ी देर बाद चार्ज शीट पेश होने के बाद रख सकते हैं।’घरैतिन, बेटी और बेटे के तेवर बता रहे थे कि मामला गंभीर है। किसी ने या तो इनके कान भरे हैं या फिर ये कूढ़मगज लोग फालतू मुझ जैसे शरीफ व्यक्ति पर शक कर रहे हैं। मैं कुछ कहता कि इससे पहले घरैतिन एक बार फिर बोल पड़ीं, ‘मिस्टर मिश्रा! एक बात आपको बता दूं, बेटा इस समय सीबीआई की भूमिका में है। वही आपके खिलाफ लगाए गए आरोपों की सूची मुझे अभी थोड़ी देर में सौंपेगा। उसके बाद आप पर जो भी आरोप आयद होंगे, उन पर बेटी लोकपाल की ओर से  आपके से जिरह करेगी। जब तक घरेलू लोकपाल अस्तित्व में रहेगा, आप इस समयावधि में बेटे, बेटी और मुझ पर धौंस नहीं जमा सकेंगे। आपको प्यास या चाय की तलब लगने पर दस मिनट की छूट दी जाएगी, ताकि आप चाय बना सकें। अगर आप दूसरों को भी चाय, पानी या दूसरी खाने-पीने की वस्तुएं आॅफर करते हैं, तो वह उत्कोच (रिश्वत) नहीं माना जाएगा। दूसरी बात यह है कि लोकपाल की कार्रवाई के दौरान आपको सिर्फ लगाए गए आरोपों का जवाब देना है। संबंधों की दुहाई देकर आप बचने का प्रयास नहीं कर सकते हैं।’ इतना कहकर घरैतिन ने फुंकनी से मेज को तीन बार ठकठकाया और फिर बेटे को कार्रवाई आगे बढ़ाने का इशारा किया। मैंने झल्लाते हुए कहा, ‘अरे यार! तब तक मैं बैठ भी सकता हूं या नहीं। इसी तरह कब तक खड़ा रहूंगा।’ घरैतिन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘जब तक आपके मामले का निस्तारण नहीं हो जाता आपको इस तरह काल्पनिक कठघरे में खड़ा रहना पड़ेगा। पांव दुखने पर घोड़े की तरह इधर-उधर झटकने की छूट आपको रहेगी।’
बेटे ने हाथ में पकड़े बेलन को अपनी बायीं हथेली पर धीरे-धीरे मारते हुए कहा, ‘पापा..ओह सॉरी! मिस्टर मिश्रा, आप पर आरोप है कि आप अपनी पूरी तनख्वाह घर पर नहीं देते हैं। पिछले तीन साल से आप एक निश्चित रकम ही घरेलू खर्च के लिए देते हैं। आपको यह मालूम होना चाहिए कि पिछले तीन साल में महंगाई कहां से कहां पहुंच गई है। लोकपाल को पक्का पता है कि आपकी तनख्वाह तीन साल में कम से कम बीस फीसदी बढ़ी है। ऐसे में यह रकम आप घर में जमा न करके किसी महिला/पुरुष पर खर्च करते रहे हैं।’ बेटे की बात सुनते ही मैं चीख पड़ा, ‘तुम सब लोग प्रकारांतर से मुझे चरित्रहीन साबित करना चाहते हो? मैं एक बात इस लोकपाल के समक्ष साफ कर दूं। मैं चरित्रहीन नहीं हूं। हां, ‘चरित्ररिक्त’हो सकता हूं।’ मेरी बात सुनते ही मेरे दायी ओर खड़ी बेटी जोर से चिल्लाई, ‘लोकपाल मैम! आरोपी शब्दजाल में फंसाकर हमें गुमराह करना चाहता है। यह हिंदी के कठिन शब्दों का उपयोग कर लोकपाल के शिकंजे से बचना चाहता है। आरोपी को यह आदेश दिया जाए कि वह पहले ‘चरित्ररिक्त’ शब्द की व्याख्या करे।’ मैंने लोकपाल बनी घरैतिन के सामने सिर झुकाते हुए कहा, ‘देखिए, चरित्रहीन शब्द का अर्थ है कि जो चरित्र से हीन हो, दूसरी स्त्रियों या पुरुषों से विवाहेत्तर संबंध रखता हो। किसी भी समाज में चरित्रहीन होना शर्मनाक है। घृणास्पद है, लेकिन ‘चरित्ररिक्त’ होने का तात्पर्य यह है कि ऐसा व्यक्ति जिसका कोई चरित्र ही न हो। न अच्छा, न बुरा। एकदम चरित्र से शून्य। इस देश की बहुसंख्यक आबादी चरित्ररिक्त है।
न अच्छी है, न बुरी। सिर्फ जिए जा रही है। पूछो क्यों, तो इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है। जहां तक आर्थिक भ्रष्टाचार का सवाल है, मैं यह साबित कर सकता हूं कि पिछले तीन साल से मेरी तनख्वाह ही नहीं बढ़ी है। ऐसे में मैं क्या कर सकता हूं। अगर घरेलू लोकपाल मेरे संस्थान के मुखिया को तनख्वाह बढ़ाने का आदेश दे, तो संभव है कि इस आर्थिक तंगी का कोई नतीजा निकले। मैं अपनी बात तो साबित कर सकता हूं।’ इसके बाद मैंने घरैतिन को तीन साल की सैलरी स्लिप लाकर दी। कुछ देर तक उन्होंने उसका गहन अध्ययन किया और बोलीं, ‘आरोपी पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप साबित नहीं हुआ। इसलिए मुन्नू के पापा को बाइज्जत बरी किया जाता है।’ यह सुनने के बाद मैंने इस भयंकर ठंडक में भी   माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछते हुए सोचा, ‘जब घरेलू लोकपाल इतना खतरनाक है, तो फिर वास्तविक लोकपाल कैसा होगा? खुदा बचाए ऐसे लोकपाल से।’

Tuesday, December 17, 2013

अब कै राखि लेहु भगवान!

अशोक मिश्र 
पिछले दिनों मैं अपने मित्र के घर गया, तो वे अपने बेटे मतिभ्रम को बुरी तरह डांट रहे थे। मैंने मामले की पूंछ पकड़ने की कोशिश की तो पता चला कि मतिभ्रम ने नौवीं कक्षा की अर्धवार्षिक परीक्षा में हिंदी विषय में सूरदास के एक पद की संदर्भ सहित ऐसी व्याख्या की थी कि हिंदी अध्यापक से लेकर प्रधानाध्यापक तक बौखला उठे थे। अध्यापक ने मतिभ्रम के माध्यम से मेरे मित्र के अवलोकनार्थ हिंदी की उत्तर पुस्तिका भिजवाई थी। मैंने देखा, तो चकित रह गया। जिस छात्र का सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए, उसे स्कूल और घर में डांट पड़ रही थी। उत्तर पुस्तिका में लिखा था,
प्रश्न संख्या 3 (क) निम्न पद की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम-डरिया, पारधी साधे बान।
ताके डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यो सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान?
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय जय कृपानिधान॥
उत्तर : संदर्भ : प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्य पुस्तक ‘काव्य संकलन’ के सूरदास के पद नामक पाठ से ली गई हैं। इसके रचियता महाकवि सूरदास जी हैं।
व्याख्या: प्रस्तुत पद में महाकवि सूरदास जी कहते हैं कि पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। तीन राज्यों में कांग्रेस की ऐसी की तैसी हो चुकी है, दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और नवोदित पार्टी आप ‘न मैं खाऊं, न तेरे को खाने दूं’ जैसी अधोगति को प्राप्त होकर बतकूचन कर रही हैं। एक दूसरे पर झल्ला रही हैं। ऐसे में आसन्न लोकसभा चुनाव के भावी परिणाम की सोचकर एक कांग्रेसी नेता भगवान से प्रार्थना करता है, हे भगवान! पिछले दस साल के शासनकाल में हमने कई भूलें की हैं, कई घपले-घोटाले किए हैं। हम पिछले दस सालों में किए गए कर्मों-सुकर्मों-कुकर्मों के लिए माफी मांगते हैं। आपसे बस यही विनती है कि इस बार हमारी रक्षा करो। हम आपसे वादा करते हैं कि देश की जनता को न तो आगे से महंगाई झेलनी पड़ेगी, न बेरोजगारी, न किसी लड़की की देश में कहीं इज्जत से खिलवाड़ होगा, न कोई नेता, मंत्री और अधिकारी भ्रष्टाचार कर पाएगा। कांग्रेस पार्टी ही क्या, पूरा ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस’ ही इस समय अनाथ पक्षी की तरह शाखा विहीन पेड़ रूपी सत्ता पर काबिज है। उसकी इस दीन-हीन दशा को देखकर सत्ता से दूर भाजपा, बसपा, सपा, सीपीआई, सीपीएम और तमाम तरह की क्षेत्रीय पार्टियां शिकारी के रूप में हाथों में तीर-तरकश लेकर शिकार करने को आतुर हैं।
कविवर सूरदास जी आगे कहते हैं कि कांग्रेसी नेता कहता है कि इतना ही नहीं प्रभु! अगर मैं इन विपक्षी पार्टियां रूपी शिकारियों से बचकर भागना भी चाहूं, तो ऊपर सचान (बाज) रूपी चुनाव आयोग मंडरा रहा है, जो किसी भी हालत में निष्पक्ष चुनाव कराकर मुझे हराने पर तुला हुआ है। इस तरह तो दोनों तरफ से यूपीए के प्राण संकट में हैं। हे प्रभु! अब इस संकट से आपके सिवा कोई दूसरा कैसे प्राण बचा सकता है। आप चाहें, तो विपक्षी दलों का मति भ्रष्ट करके उन्हें सभी घपलों, घोटालों के प्रति उदासीन होने की प्रेरणा दे सकते हैं, चुनाव आयोग के ईमानदार अधिकारियों को समय से पूर्व रिटायरमेंट लेने का स्वप्न दिखा सकते हैं। उन्हें मतदान के दिन छुट्टी पर जाने को प्रेरित कर सकते हैं। महाकवि सूरदास जी का कहना है कि कांग्रेसी नेता के भगवान का स्मरण करते ही एकाएक मीडिया में विपक्षी नेताओं के सेक्स स्कैंडल, पैसे लेकर फर्जी चिट्ठियां लिखने, विपक्षी पार्टियों के जिन राज्यों में सत्ता है, उस प्रदेश में हुए घोटालों के मामले उजागर होने लगे, इससे विपक्षी पार्टियों को बैकफुट पर आना पड़ा। वे सत्तारूढ़ दल पर हमला करने को कौन कहे, अपने ही बचाव में इधर-उधर भागने लगे। कल तक जो लोग आक्रामक थे, वे भगवान की कृपा से अपना बचाव करते हुए मुंह छिपाकर रहने को मजबूर थे। सत्तारूढ़ दल ने विपक्षी दलों के सांसदों के वॉक आउट के दौरान एक विधेयक पेश करके पास करा लिया कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को फर्जी मतदान करने से नहीं रोकेगा। वह सभी विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को मतदान से रोकने का हर संभव प्रयास किया जाएगा। महाकवि सूरदास कहते हैं कि भगवान बहुत ही भक्तवत्सल हैं। वे अपने भक्तों का इतना ध्यान रखते हैं कि उन्हें कृपानिधान कहकर उनकी वंदना की जानी चाहिए।
तो पाठको! यह बताइए, मेरे मित्र के पुत्र मतिभ्रम की प्रतिभा अनुकरणीय और प्रशंसनीय है कि नहीं।

Saturday, December 14, 2013

हीरो आफ द सेंचुरी : नेल्सन मंडेला

अलविदा शांति दूत

अशोक मिश्र 
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार की जगह एक लोकतांत्रिक बहुनस्लीय सरकार बनाने के लिए लंबा संघर्ष और इसके लिए 27 वर्ष तक जेल काटने वाले नेल्सन मंडेला नहीं रहे। देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का पद संभालते हुए उन्होंने कई अन्य संघर्षों में भी शांति बहाल करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी।

बीसवीं सदी के दो महानायक, मोहनदास करमचंद गांधी और नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला। भारत में राष्ट्रपिता के खिताब से नवाजे गए मोहनदास करमचंद गांधी, तो दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला भी लगभग वैसी ही ख्याति और रुतबे के हकदार। गांधी और मंडेला की प्रवृत्ति और प्रकृति एक जैसी। दोनों ही अहिंसा और रक्तहीन क्रांति के पुरोधा। सामाजिक विषमता और रंगभेद की नीति के खिलाफ मुखर विरोध के हिमायती। दोनों ने बैरिस्टर के रूप में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। दोनों को ही जोहांसबर्ग की कुख्यात फोर्ट जेल में अपने राजनीतिक आंदोलनों और रंगभेद विरोधी नीतियों के कारण सजा काटनी पड़ी। रूस के महान साहित्यकार लियो टॉलस्टाय की ‘वार एंड पीस’ कृति से सत्य और अहिंसा के सिद्धांत की प्रेरणा लेने वाले मोहनदास करमचंद गांधी कालांतर में रंगभेद और उपनिवेशवाद के विरोधी नेल्सन मंडेला के प्रेरणास्रोत बने। हालांकि यह भी सत्य है कि नेल्सन मंडेला की मोहनदास करमचंद गांधी से आजीवन भेंट नहीं हो पाई। गांधीवाद को अपना सैद्धांतिक हथियार बताने वाले दक्षिण अफ्रीका के महानायक मंडेला को अपने अहिंसक आंदोलन के लिए वर्ष 1993 में विश्व का सबसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला, लेकिन गांधी इससे वंचित ही रहे। रंगभेद, शोषण और उत्पीड़न की शिकार दक्षिण अफ्रीकी जनता के लिए मुक्तिदाता बनकर दुनिया के सामने अपनी आभा बिखेरने वाले मंडेला अब हमारे बीच नहीं हैं। पिछले कई दिनों से वे अस्वस्थ थे और जीवन रक्षक प्रणाली पर थे।

गांधी और मंडेला में बुनियादी फर्क

दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, पूरी दुनिया में रंगभेद और असमानता के विरुद्ध चल रहे किसी भी तरह आंदोलन के स्तंभ पुरुष कहे जा सकते हैं नेल्सन मंडेला। उपनिवेशवाद और ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीतियों के साथ-साथ रंगभेद और नस्लभेद विरोधी नीतियों के खिलाफ अहिंसा को हथियार बनाकर उठ खड़े होने वाले नेल्सन मंडेला ने गांधीवाद को ‘एज इट इज’ स्वीकार नहीं किया। गांधीवादी अहिंसा और असहयोग में कुछ मूलभूत सुधार भी किए। उनकी अहिंसक नीति गांधी की अहिंसा नीति के बजाय बुद्ध की नीति के कहीं समीप प्रतीत होती है। गांधी के प्रेरणास्रोत लियो टॉलस्टाय का मानना था कि यदि शासक हिंसा करे, तो करे, लेकिन प्रजा को हिंसा नहीं करनी चाहिए। वहीं बुद्ध की अहिंसा नीति कहती है कि यदि शासक हिंसा न करे, तो प्रजा कभी हिंसा नहीं करती।
यही वजह है कि महात्मा बुद्ध अपनी अहिंसा का प्रचार करने के लिए राजाओं के साथ-साथ प्रजा के बीच गए। उन्होंने तत्कालीन राजाओं और महाराजाओं को अहिंसक बनाने का प्रयत्न किया। हालांकि, बाद में बुद्ध की अहिंसा नीति में उनके परिवर्तियों ने कुछ ऐसे संशोधन, परिवर्तन किए कि उसका मूल स्वरूप ही कुछ और हो गया। आप अगर पूरे गांधीवादी चरित्र को समझने का प्रयास करें, तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है। गांधीवादी अहिंसा के स्वरूप को समझने का सबसे बेहतरीन उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में ही सन् 1897 से 1899 तक चला बोअर युद्ध है। बोअर युद्ध को समझने के लिए दक्षिण अफ्रीका की तत्कालीन परिस्थितियों को समझना बहुत जरूरी है।
यह तो सभी जानते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में हीरे और सोने की खानों के लालच में हॉलैंड के डच और ब्रिटेन से अंग्रेज दक्षिण अफ्रीका गए थे। उन दिनों यह मशहूर था कि अफ्रीका में सोने और हीरे की खानें बहुतायत में पाई जाती हैं। हीरों और सोने की खानों पर कब्जे की नीयत से पहुंचे डच और अंग्रेजों ने वहां पहुंचकर उपनिवेश स्थापित करने शुरू किए। उपनिवेशों के विस्तार को लेकर डचों और अंग्रेजों में युद्ध होने लगे। हालांकि, डचों ने एक समय सीमा के बाद अफ्रीकी मूल के निवासियों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया और वहीं रहने लगे। कालांतर में इन्हीं डच मूल के अफ्रीकी निवासियों को बोअर कहा जाने लगा। अंग्रेजों के लगातार बढ़ते उपनिवेश, शोषण, दोहन और उत्पीड़न से परेशान होकर बोअर लोगों ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्ध शुरू किया।
यह संघर्ष लगातार तीव्र से तीव्रतर होता गया। डचों के नेतृत्व में अफ्रीकी मूल के निवासी सन् 1887 से 1899 के बीच निर्णयाक स्थिति में पहुंचने वाले ही थे कि दक्षिण अफ्रीका की राजनीति में मोहनदास करमचंद गांधी का पदार्पण हुआ। इसके बाद डचों और वहां के मूल निवासियों के पक्ष में पैदा होती परिस्थितियां एकाएक बदल गईं। ‘एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ (सत्य के प्रयोग) में महात्मा गांधी खुद लिखते हैं, ‘जब दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध चल रहा था, तब मेरी सहानुभूति केवल बेअरों की ओर थी। पर मैं यह मानता था कि ऐसे मामलों में व्यक्तिगत विचारों के अनुसार काम करने का अधिकार मुझे अभी नहीं प्राप्त हुआ है। इस संबंध में मंथन, चिंतन का सूक्ष्म निरीक्षण मैंने ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में किया है, इसलिए यहां नहीं करना चाहता। जिज्ञासुओं को मेरी सलाह है कि वे उस इतिहास को पढ़ें। यहां तो इतना कहना काफी होगा कि ब्रिटिश राज के प्रति मेरी वफादारी मुझे युद्ध में सम्मिलित होने के लिए जबरदस्ती घसीट ले गई। मैंने अनुभव किया कि जब मैं ब्रिटिश प्रजाजन के नाते अधिकार मांग रहा हूं, तो उसी नाते ब्रिटिश राज की रक्षा में हाथ बंटाना भी मेरा धर्म है। उस समय मेरी यह राय थी कि   हिंदुस्तान की सम्पूर्ण उन्नति ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर हो सकती है।’ इतना ही नहीं, दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीय युवाओं से अंग्रेजी फौज में भर्ती होने का आह्वान किया और खुद एंबुलेंस कोर में शामिल हो गए। बोअर युद्ध के बाद ग्यारह सौ सदस्यों वाली एंबुलेंस कोर के 39 मुखियों को प्रसन्न होकर अंग्रेजों ने युद्ध पदक देकर सम्मानित किया। सन् 1903 में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के विषय में गांधी ने इंडियन ओपीनियन में एक लेख लिखा। इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं मानता हूं कि जितना वे (दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार) अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास  करते हैं, उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है, उसे ही श्रेष्ठ जाति होनी चाहिए।’ यही क्यों, जब द्वितीय विश्व महायुद्ध चल रहा था, तो भारत में भी महात्मा गांधी ने भारतीय युवाओं से अनुरोध किया कि इन दिनों अंग्रेज संकट में हैं। हमारा धर्म है कि हम संकट के समय में अंग्रेजों की मदद करें, इसलिए इस संकट की घड़ी में ज्यादा से ज्यादा भारतीय युवाओं को ब्रिटिश फौज में भर्ती हो जाना चाहिए।

बचपन से गांधी का प्रभाव

बचपन से ही रंग और नस्लभेदी नीतियों के चलते अपमान और तिरस्कार झेलने वाले नेल्सन मंडेला पर गांधी का प्रभाव तो था, लेकिन उन्होंने हिंसक आंदोलन की भूमिका और महत्ता को कभी अस्वीकार नहीं किया। विद्यार्थी जीवन में भोगे गए अपमान ने उन्हें विद्रोही बना दिया। दक्षिण अफ्रीकी श्वेतों की सरकार वहां के मूल निवासियों को बार-बार यह अहसास दिलाती थी कि उनका रंग काला है। उन्हें शासन-प्रशासन में कोई सम्मानजनक पद और हैसियत नहीं हासिल हो सकती है। कालों को तो सड़क पर सीना तानकर चलने का भी अधिकार नहीं है। यदि वे ऐसा करते पाए जाएंगे, तो उन्हें जेल में ठूंस दिया जाएगा। ऐसी स्थितियों ने नेल्सन मंडेला के दिल और दिमाग को क्रांतिकारी बना दिया। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों और राजनीतिक विचारों के चलते काले लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल कर रहे मंडेला को अश्वेतों के लिए बनाए गए एक विशेष कॉलेज हेल्डटाउन से निष्कासित कर दिया गया। कॉलेज परिसर में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कॉलेज से निकाले जाने के बाद मंडेला अपने माता-पिता के पास ट्रांस्की लौट आए। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर वैवाहिक बंधन में बांधने की तैयारी में जुटे परिवार को झटका तब लगा, जब वे एक दिन घर से भाग खड़े हुए और जोहांसबर्ग की एक सोने की खदान में चौकीदार की नौकरी करने लगे। जोहांसबर्ग की एक बस्ती अलेक्जेंडरा उनका ठिकाना बनी। जोहांसबर्ग में उनकी मुलाकात ह्यवाल्टर सिसुलूह्ण और ह्यवाल्टर एल्बरटाइनह्ण से हुई जिनका प्रभाव पूरी जिंदगी मंडेला पर बना रहा। बाद में खदान की चौकीदारी छोड़कर मंडेला ने एक कानूनी फर्म में लिपिक की नौकरी कर ली। 1944 में मंडेला ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण में शामिल हो गए। जल्दी ही उन्होंने टाम्बो, सिसुलू और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग का निर्माण किया। 1947 में मंडेला को इस संस्था का सचिव और ट्रांसवाल एएनसी का अधिकारी नियुक्त किया गया।
इसी बीच नेल्सन मंडेला ने कानून की पढ़ाई शुरू कर दी, लेकिन व्यस्तता के कारण वे एलएलबी की परीक्षा पास नहीं कर सके। तब उन्होंने अटॉर्नी के तौर पर काम करने को पात्रता परीक्षा पास करने का फैसला किया। इसी बीच ह्यअफ्रीकन नेशनल कांग्रेसह्ण को चुनावों में करारी पराजय का सामना करना पड़ा। 1951 में नेल्सन को यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। नेल्सन ने दक्षिण अफ्रीकियों की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए 1952 में एक कानूनी फर्म की स्थापना की। कुछ ही समय में उनकी फर्म अश्वेतों द्वारा चलाई जा रही देश की पहली फर्म हो गई। गोरी सरकार को नेल्सन की बढ़ती हुई लोकप्रियता फूटी आंख नहीं सुहा रही थी। उसने मंडेला के राजनीतिक सभाओं में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया और कई तरह के झूठे आरोप लगाकर उन्हें जोहांसबर्ग से बाहर भेज दिया गया। सरकार के दमनचक्र से बचने के लिए नेल्सन और आॅलिवर टाम्ब ने एम (मंडेला) प्लान बनाया। तय हुआ कि कांग्रेस को टुकड़ों में तोड़कर काम किया जाए। जरूरत पड़े तो भूमिगत रहकर काम किया जाए। इसी बीच अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) ने स्वतंत्रता का चार्टर क्या स्वीकार किया, गोरी सरकार का दमन चक्र शुरू हो गया। देश में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। एएनसी के अध्यक्ष और नेल्सन के साथ एक सौ छप्पन नेता गिरफ्तार किए गए। आंदोलन नेतृत्व विहीन हो गया। नेल्सन और उनके साथियों पर देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने और देशद्रोह का आरोप लगाया गया। इस अपराध की सजा मृत्युदण्ड थी। 1961 में नेल्सन और 29 साथी निर्दोष साबित हुए।
सरकारी दमन बढ़ने से अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस और नेल्सन का जनाधार बढ़ाता जा रहा था। लोगों के संगठन से जुड़ने पर आंदोलन दिनोंदिन मजबूत होता जा रहा था। रंगभेदी सरकार ने इसी बीच कुछ ऐसे कानून पास किए गए, जो अश्वेतों की गरिमा के खिलाफ थे। मंडेला ने इन कानूनों का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में दक्षिण अफ्रीकी पुलिस ने शार्पविले शहर में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। 180 लोग मारे गए, 69 लोग घायल हुए। बस इसी घटना ने नेल्सन मंडेला का अहिंसा पर से विश्वास उठा दिया। उन्होंने समझ लिया कि दक्षिण अफ्रीका में रंग और नस्लभेद का खात्मा अहिंसा से नहीं हो सकता है।
बिना हथियार उठाए दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासियों को उनका हक मिलने वाला नहीं है। रंगभेदी सरकार के अत्याचार, शोषण और दोहन सभी सीमाएं तोड़ते जा रहे थे। अपने मानवीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए पिछले कई दशकों से संघर्षरत अश्वेतों के खून से दक्षिण अफ्रीका की धरती लाल हो रही थी। एएनसी और दूसरे प्रमुख दलों ने सशस्त्र युद्ध का फैसला किया। मुक्तिकामी दलों ने अपने-अपने जुझारू दल बनाकर गोरी सरकार के नुमाइंदों पर हमला शुरू कर दिया। हालांकि पिछले कई दशक से अहिंसक आंदोलन चला रहे नेल्सन मंडेला के सिद्धांत और प्रवृत्ति के ये हिंसक कार्रवाइयां खिलाफ थीं, लेकिन दक्षिण अफ्रीका की औपनिवेशिक और बर्बर सरकार को नेस्तनाबूत करने के लिए आवश्यक थी। एएनसी ने अपने जुझारू दल का नाम रखा, ह्यस्पीयर आॅफ दी नेशनह्ण। नेल्सन मंडेसा नए गुट के अध्यक्ष बनाए गए। दबी-कुचली, शोषित-पीड़ित दक्षिण अफ्रीकी जनता के लिए मंडेला को यह रास्ता मंजूर था। दक्षिण अफ्रीकी जनता को न्याय और सम्मान दिलाने जैसा पवित्र उद्देश्य और लक्ष्य उनके सामने था। गुप्त लड़ाका दल बनते ही जैसे रंगभेदी सरकार और क्रूर हो उठी। उसने मूल निवासियों के साथ-साथ क्रांतिकारी संगठनों को बर्बरतापूर्वक दबाना शुरू किया। दक्षिण अफ्रीका की जेलें मुक्तिकामी संगठनों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिकों से भरे जाने लगे। जिस पर भी रंगभेदी सरकार को थोड़ा-सा भी शक हुआ, वह जेल में ठूंस दिया गया, उस पर बेइंतहा जुल्म ढाए गए। दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने नस्लभेदी दक्षिण अफ्रीकी सरकार की आलोचना की, कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए, खेलों में उसके खिलाड़ियों का बहिष्कार किया गया, लेकिन अफ्रीकी सरकार अपनी क्रूरता से पीछे नहीं हटी।

मंडेला के खात्मे पर ध्यान

सरकार का पूरा ध्यान नेल्सन मंडेला को गिरफ्तार कर पूरे संगठन को खत्म करने पर था। इस त्रासदी से बचने के लिए उन्हें चोरी से देश के बाहर भेजा गया, ताकि वे स्वतंत्र रहकर दक्षिण अफ्रीकी जनता का नेतृत्व कर सकें। देश से बाहर आते ही उन्होंने सबसे पहले अदीस अबाबा में अफ्रीकी नेशनलिस्ट लीडर्स कान्फ्रेंस को संबोधित किया। वहां से वे   अल्जीरिया चले गए और लड़ने की गुरिल्ला तकनीक का गहन प्रशिक्षण लिया। इसके बाद उन्होंने लंदन में ओलिवर टाम्बो को साथ लेकर विपक्षी दलों के साथ नेताओं से मुलाकात की और अपनी बात समझाने की कोशिश की। इसके बाद वे एक बार फिर दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। राष्ट्रद्रोह और सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के अपराध में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। उन्हें आम जनता से दूर रखने के लिए रोबन द्वीप पर भेज दिया गया, जहां वे सत्ताइस साल तक नजरबंदी की हैसियत में रहे। अंतत: जब 1989 में नस्ल और रंगभेद विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था, तभी दक्षिण अफ्रीका में हुए चुनाव में सत्ता की बागडोर उदारवादी एफ डब्ल्यू क्लार्क के हाथों में आई। सत्ता संभालते ही क्लार्क ने देश में सुधारवादी रवैया अपनाते हुए सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने के साथ-साथ सभी राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध खत्म कर दिया। अश्वेतों को भी श्वेत नागरिकों के समान अधिकार दिए गए। उन्हें भी इंसान माना गया। नेल्सन मंडेला का संघर्ष रंग लाया और जब 1994 में जब दक्षिण अफ्रीका में चुनाव हुए, तो  10 मई 1994 को इतिहास रचते हुए नेल्सन मंडेला ने पहले अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की।
दक्षिण अफ्रीका की वर्तमान दशा
दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति बनने के बाद नेल्सन मंडेला ने कई तरह के सुधारवादी कार्य किए। श्वेत और अश्वेत में सदियों से किया जा रहा भेदभाव ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि गरीबी, बेकारी, भुखमरी आदि के खिलाफ भी सरकारी योजानाएं बननी शुरू हुईं। इसके बावजूद दक्षिण अफ्रीका की ही नहीं, अफ्रीकी देशों में रहने वाली करोड़ों जनता का जीवन स्तर संतोषजनक नहीं है। पिछले साल के अंतिम दिनों जर्मनी में आयोजित ‘इफेक्टिव को-आपरेशन फॉर एक ग्रीन अफ्रीका’ के पहले अधिवेशन में ओबांग मेथो की पेश की गई रिपोर्ट पर विचार करें, तो दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ अन्य अफ्रीकी देशों में भारत, चीन, सउदी अरब, अमेरिका आदि देशों की सरकारों और कारपोरेट कंपनियों में वहां की जमीन पर कब्जे की एक होड़ शुरू हो चुकी है। अफ्रीका के अनेक देशों की जनविरोधी सरकारें पैसे की लालच अपने ही देश की जनता के खिलाफ काम कर रही हैं। अपार प्राकृतिक संपदा से भरपूर उपजाऊ जमीनों को विकसित और विकासशील देशों को बेचती जा रही हैं। विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के खिलाफ जनता का प्रतिरोध बढ़ने से उन्हें दमन का सामना करना पड़ रहा है।
इथोपिया के एक अनजान जनजातीय समूह अनुवाक से आए ओबांग मेथो के मुताबिक, अफ्रीका की लूूटपाट का यह दूसरा दौर शुरू हो गया है। वे बताते हैं कि अफ्रीकी देशों के सामने आज सबसे बड़ा खतरा वहां की आबादी को अपने जमीन से वंचित होने का है। अनेक देशों में जमीन हड़पने वालों ने न तो उस जमीन पर बसने वालों को कोई मुआवजा दिया और न उनके जीने का कोई उपाय उपलब्ध कराया है। विदेशी निवेशकों ने इन देशों की भ्रष्ट सरकारों के साथ जो गुप्त समझौते किए उसकी जानकारी भी यहां के बाशिंदों को नहीं मिल सकी। 1985 में बर्लिन सम्मेलन के दौरान साम्राज्यवादी देशों ने पूरे अफ्रीका को आपस में बांट लिया था। अफ्रीका की यह पहली लूट थी। 2008 से आज तक तकरीबन 20 करोड़ 40 लाख एकड़ जमीन सारी दुनिया में लीज पर दी गई है। इसका अधिकांश हिस्सा अफ्रीकी देशों में आता है। दक्षिण अफ्रीका में आज हालात यह है कि वहां की जमीनों पर तेजी से कब्जा होता जा रहा है। स्थानीय लोगों को जबरन उनकी जमीन से हटाकर सरकार द्वारा बनायी गई बस्तियों में रखा जा रहा है।

अफ्रीका की स्वतंत्रता का इतिहास

अफ्रीका महाद्वीप के नाम के पीछे कई कहानियां एवं धारणाएं हैं। 1981 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति बरबर भाषा के शब्द इफ्री या इफ्रान से हुई है, जिसका अर्थ गुफा होता है जो गुफा में रहने वाली जातियों के लिए प्रयोग किया जाता था। एक और धारणा के अनुसार अफ्री उन लोगों को कहा जाता था, जो उत्तरी अफ्रीका में प्राचीन नगर कार्थेज के निकट रहा करते थे। कार्थेज में प्रचलित फोनेसियन भाषा के अनुसार अफ्री शब्द का अर्थ है धूल। कालांतर में कार्थेज रोमन साम्राज्य के अधीन हो गया और लोकप्रिय रोमन प्रत्यय -का (जो किसी नगर या देश को जताने के लिए उपयोग में किया जाता है) को अफ्री के साथ जोड़ कर अफ्रीका शब्द की उत्पत्ति हुई।
अफ्रीका के इतिहास को मानव विकास का इतिहास भी कहा जा सकता है। अफ्रीका में 17 लाख 50 हजार वर्ष पहले पाए जाने वाले आदि मानव का नामकरण होमो इरेक्टस अर्थात उर्ध्व मेरूदण्डी मानव हुआ है। होमो सेपियेंस या प्रथम आधुनिक मानव का आविर्भाव लगभग 30 से 40 हजार वर्ष पहले हुआ था। लिखित इतिहास में सबसे पहले वर्णन मिस्र की सभ्यता का मिलता ह,ै जो नील नदी की घाटी में ईसा से 4000 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई। इस सभ्यता के बाद विभिन्न सभ्यताएं नील नदी की घाटी के निकट आरम्भ हुई और सभी दिशाओं में फैली। आरम्भिक काल से ही इन सभ्यताओं ने उत्तर एवं पूर्व की यूरोपीय एवं एशियाई सभ्यताओं एवं जातियों से परस्पर सम्बन्ध बनाने आरम्भ किए जिसके फलस्वरूप महाद्वीप नई संस्कृति और धर्म से अवगत हुआ। ईसा से एक शताब्दी पूर्व तक रोमन साम्राज्य ने उत्तरी अफ्रीका में अपने उपनिवेश बना लिए थे। ईसाई धर्म बाद में इसी रास्ते से होकर अफ्रीका पहुंचा। ईसा से 7 शताब्दी पश्चात इस्लाम धर्म ने अफ्रीका में व्यापक रूप से फैलना शुरू किया और नई संस्कृतियों जैसे पूर्वी अफ्रीका की स्वाहिली और उप-सहारा क्षेत्र के सोंघाई साम्राज्य को जन्म दिया। इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार से दक्षिणी अफ्रीका के कुछ साम्राज्य जैसे घाना, ओयो और बेनिन अछूते रहे। उन्होंने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। इस्लाम के प्रचार के साथ ही ह्यअरब दास व्यापारह्ण की भी शुरुआत हुई जिसने यूरोपीय देशों को अफ्रीका की तरफ आकर्षित किया। अफ्रीका को एक यूरोपीय उपनिवेश बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। 19 वीं शताब्दी से शुरू हुआ यह औपनिवेशिक काल 1951 में लीबिया के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ख़त्म होने लगा और 1993 तक अधिकतर अफ्रीकी देश उपनिवेशवाद से मुक्त हो गए।

संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम : नेल्सन रोहिल्हाला मंडेला
जन्म : 18 जुलाई, 1918 ई.
मृत्यु  : ०5 दिसंबर 2013
जन्मभूमि : मबासा नदी के किनारे मवेजों गांव, ट्रांस्की
माता-पिता : गेडला हेनरी (पिता), नेक्यूफी नोसकेनी (माता)
जीवन संगिनी : इवलिन मेस (प्रथम पत्नी), नोमजामो विनी मेडीकिजाला (द्वितीय पत्नी) तथा ग्रेस मेकल (तीसरी पत्नी)
नागरिकता : दक्षिण अफीका
प्रसिद्धि : रंगभेद विरोधी नेता के रूप में ख्याति प्राप्त
पार्टी : अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग
पद : पूर्व राष्ट्रपति दक्षिण अफ्रीका
शिक्षा : मेथडिस्ट मिशनरी स्कूल, क्लाकर्बेरी मिशनरी स्कूल और हेल्डटाउन कॉलेज [स्नातक]
पुरस्कार-उपाधि : भारत रत्न (1990 ई.), नोबेल पुरस्कार
(1993 ई.)

Friday, December 13, 2013

बस..नीयत सौ टंच होनी चाहिए

-अशोक मिश्र 
चार राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित होने वाले दिन सुबह अपने इलाके के विधानसभा उम्मीदवारों से मिलकर उनका हाल-चाल जानने और जीतने-हारने पर उनकी प्रतिक्रिया लेने को खूब लकदक कपड़े पहनकर निकलने लगा, तो घरैतिन ने टोक दिया, ‘किसी छमिया से मिलने जा रहे हैं क्या? एक दूल्हे राजा बनकर!’ घरैतिन के टोकने से कुछ परसेंट उत्साह कम तो हुआ, लेकिन मनसूबों पर पानी फिरने से बच गया। मैंने मतदाताओं की तरह इठलाते हुए कहा, ‘हां..तुम्हें कोई आपत्ति?’ घरैतिन मुस्कुराईं और बोलीं, ‘नहीं..मुझे कोई आपत्ति नहीं है। एक बात बताऊं, है बड़े मार्के की। अगर खुश हो जाएं, तो कोई गहना-गुरिया खरीद दीजिएगा, बाकी आपकी मर्जी..। ‘बाबा तुलसीदास’ जी ने एक बात बहुत पते की कही है, जस करनी तस भोगो ताता, नरक जात काहे पछताता। जैसा आप करेंगे, वैसा तो भोगना ही पड़ेगा। छमिया से मिलने जा रहे हैं, तो जाइए। अब तो रोकने की जरूरत भी नहीं है। कहीं किसी दिन छमिया का मूड बिगड़ा, तो ‘उलटे बांस बरेली को लदते’ कितनी देर लगेगी। सुनिए..अब वह जमाना लद गया, जब जीजा अपनी सालियों से रस ले-लेकर मजाक करते थे। अब तो जीजा को अपनी सालियों और सलहजों से किया गया मजाक भारी पड़ सकता है। अपने पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तव जी हैं न! उन्होंने अपनी पचपन साल की साली से कहीं मजाक भर कर लिया था। उस दिन उनकी साली की अपने पति से थोड़ा बहुत नोक-झोंक गई थी। बस, बना दिया तिल का ताड़। पहुंच गए श्रीवास्तव जी जेल। तीन दिन बात बड़ी मुश्किल से जमानत हुई है। वह भी बेचारी साली के रो-रोकर अपनी गलती मांगने और श्रीवास्तव जी के शरीफ होने की दुहाई देने पर। अब तो बेचारे श्रीवास्तव जी साली, सलहज जैसे शब्दों से ऐसे बिदकते हैं, मानो किसी सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो।’
घरैतिन की बात सुनकर मुझे ताव आ गया। मुझे लगता है कि अपने कश्मीरी चचा फारुख को भी ऐसे ही किसी वजहों से ताव आया होगा और वे पता नहीं किस मनहूस घड़ी में कह बैठे, ‘अब तो हालात इतने बदतर हैं कि मैं किसी महिला को अपना सेक्रेटरी तक रखने से डरने लगा हूं।’ जिस घड़ी को मैं बड़े धैर्य से टालने की कोशिश में था, वह आ ही गई, ‘तू..बार-बार सालियों का उदाहरण देकर क्या साबित करना चाहती है..आंय? मैं लफंगा हूं, तेरी बहनों और भाभियों से नैन मटक्का करता हूं। उन्हें छेड़ता हूं, उनके साथ ऐसे-वैसे मजाक करता हूं। अरे..मैं तो घास भी नहीं डालता उनके आगे। तुम्हारी बहनें अपने आप को समझती क्या हैं? तुम्हारी बहनों के अलावा बहुत सारी लड़कियां हैं, जो मुझ पर आज भी मरती हैं। अगर मैं इस उम्र में भी बन-ठनकर निकल जाऊं, ‘उह..आह की आवाज है आती हर ओर से।..होश वालीं भी मदहोश आएं रे नजर..।’ कोई इधर इठलाती हुई कहती है, जीजा..ऐसे मत देखो। कोई उधर ठुनकती है, जीजा जी... आप कुछ बोलते क्यों नहीं? मुझसे नाराज हो? जीजा..देखो, मैं सुंदर लग रही हूं न! अजीब हालत हो जाती है मेरी। सालियों और सलहजों को निहारो, तो तुम्हारा मुंह चौखंभे मीनार की तरह बन जाता है, न देखो, तो यह सुनने को मिलता है, जीजा जी..घमंडी हो गए हैं, उन्हें पता नहीं किस बात का घमंड है, बोलते-चालते ही नहीं हैं। सच बताऊं, तुम्हारी बहनों और भाभियों ने मुझे जीजा नहीं चकरघिन्नी बना दिया है। जब से शादी हुई है, मैं नाच रहा हूं तुम तीनों के बीच।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन ठहाका लगाकर हंस पड़ीं, ‘आप मर्दों ने कैसी-कैसी खुशफहमियां पाल रखी हैं अपने मन में।  कोई तुम्हारी ओर सामान्य नजर से ही देख ले, तो तुम्हें लगता है कि सामने वाली तुम पर मर-मिट गई है। मेरे मायके जाते ही सबसे पहला काम मेरी बहनों और भाभियों को मस्का मारना ही होता है। शालू, तुम अच्छी लग रही हो। कामिनी..तुम्हें देखता हूं, तो मेरा दिल राजधानी एक्सप्रेस हो जाता है। अंकिता, तुम मुझे ऐसे मत देखा करो, दिल में कुछ-कुछ होने लगता है। जिन बातों और कामों को मेरे भाई देखकर बिदकते हैं, तुम मेरी भाभियों के उसी काम और बातों की प्रशंसा में ऐसे कसीदे काढ़ते हो, मानो कोई चारण-भाट अपने अन्नदाता महाराज की प्रशंसा में विरुदावलि गा रहा हो। ऐसे में वे क्या करें बेचारी। तुम्हारा मान रखने के लिए उन्हें आपकी बातों पर हंसने-मुस्कुराने का नाटक करना पड़ता है।’
घरैतिन की बात सुनते ही मुझे झटका लगा। मन ही मन सोचने लगा, ‘अच्छा..तो सुमन (मेरी सबसे छोटी साली) की वह ‘बलिहारी जाऊं’ वाली नजर सिर्फ मात्र छलावा है, धोखा है। कितनी बड़ी एक्टर हैं, मेरी ये सालियां और सलहजें? हाय..हाय..मेरे जैसा सीधा-सादा अधेड़ ‘युवक’ अपने ससुरालवालियों के कहे को सच मानकर उनके आगे-पीछे घूमता रहा।’ घरैतिन की बात सुनकर मैं मायूस हो गया, तो घरैतिन ने पुचकारते हुए कहा, ‘मेरी बहनों या भाभियों से डरने की तब तक जरूरत नहीं है, जब तक आपकी नीयत ठीक है। साली, सलहजें हैं, तो मजाक होगा ही। बस, आपकी नीयत सौ टंच होनी चाहिए। वरना..।’ मैं अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछता हुआ बाहर आ गया। पिछली बार ससुराल जाने पर सालियों से की गई बातचीत बहुत देर तक कान में गूंज-गूंजकर हलाकान करती रही।

Thursday, December 5, 2013

हाय राम! दाढ़ी पर भी संकट

-अशोक मिश्र 
मैं रविवार की सुबह थोड़ा देर तक सोता हूं। मेरा ख्याल है कि हिंदुस्तान के सत्तर फीसदी मर्द ऐसा ही करते होंगे। आज भी ऐसा ही हुआ। बेगम ने चाय बनाने के बाद आवाज दी, तो मैं उसे महटिया (टाल) गया। बेगम ने बड़े प्रेम से बचे खुचे बालों में हाथ फेरते हुए जगाया और चाय के साथ अखबार थमा दिया। उनके इस असमय प्रेम प्रदर्शन पर मैं सतर्क हो गया। लगा कि मेरी कुंडली के सातवें घर में पिछले काफी दिनों से छिपकर बैठा राहु जेब कटवाने के फेर में है। जब-जब बेगम ने असमय प्रेम प्रदर्शन किया है, तब-तब उनका यह प्रेम प्रदर्शन जेब पर भारी पड़ा है। मैंने पुराने अनुभवों को देखते हुए मामले की गेंद को कवर ड्राइव की ओर खेल दिया, ‘बेगम! आज खरीदारी करने का विचार है क्या?’ मेरी बात सुनकर बेगम मुस्कुराईं और बोलीं, ‘नहीं..बस, आप जल्दी से चाय पी लीजिए और बाल कटवा आइए, बहुत बड़े-बड़े हो गए हैं।’ मैंने सतर्क आवाज में कहा, ‘बेगम! आपको मेरे इन बचे खुचे बालों से क्या दुश्मनी है? ठीक तो लग रहे हैं।’ तब तक बेगम भी अपनी चाय लेकर आ चुकी थीं। उन्होंने कहा, ‘मेरी आपके बालों से कोई दुश्मनी नहीं है। कटवाइए..या न कटवाइए। मेरी बला से। लेकिन भगवान के लिए आप आज दाढ़ी जरूर छिलवा लीजिए।’
बेगम की बात सुनकर मैं भौंचक रह गया। मैंने कहा, ‘अरे बेगम! क्या गजब करती हो। मैं दाढ़ी कैसे छिलवा सकता हूं। जानती हो, यही दाढ़ी मेरी पत्रकारिता का ट्रेडमार्क है। दाढ़ी मुंडवा लूंगा, तो लोग क्या कहेंगे? और फिर...यह दाढ़ी मुझ पर कितनी फबती है? शादी से पहले जब तुम्हें देखने आया था, तो तुमने इसी दाढ़ी की कितनी प्रशंसा की थी। याद है तुम्हें, तुम्हारी ममेरी बहन तो इसी दाढ़ी पर इतनी रीझ गई थी कि वह मुझसे शादी करने को तैयार थी। अगर तुम अड़ ना जातीं, तो तुम्हारी ममेरी बहन आज मेरी बेगम होती और तुम मेरी बड़ी साली।’ मुझे ताज्जुब हुआ कि बेगम का पारा आज इस पर भी थर्मामीटर तोड़ने पर आमादा नहीं हुआ। बेगम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैं यह मान लेती हूं कि तब मैं पागल थी और आज मेरा दिमाग सही हुआ है, लेकिन आपको आज इस खिचड़ी दाढ़ी से मुक्ति पानी ही होगी। चाय पी लिया हो, तो फटाफट सैलून में जाकर इस मुई दाढ़ी से छुटकारा पाइए।’ बेगम की बात सुनकर मैं गंभीर हो गया। मैंने पूछा, ‘मेरी इस दाढ़ी को लेकर तुमने कहीं कोई खराब सपना तो नहीं देखा है। देखो! दाढ़ियां तो हमारे देश में शान मानी जाती हैं। अगर दाढ़ियों को लेकर कोई ऐसी वैसी बात होती, तो हमारे ऋषि-मुनि, साधु-संन्यासी गज-गज भर लंबी दाढ़ियां क्यों रखते। तुम कोई भी ऐसा ऋषि-मुनि या तपस्वी बता दो, जिसके दाढ़ियां न रही हों। हां, देवता इसके अपवाद रहे हैं। दाढ़ी रखने का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि रोज-रोज दाढ़ी बनाने के झंझट से मुक्ति मिल जाती है। कुंडली की चाल को बदलने वाले राहु-केतु भी इन दाढ़ियों में उलझकर रह जाते हैं और कोई बुरा नहीं कर पाते हैं।’
बेगम ने हाथ पकड़कर मुझे उठाते हुए कहा, ‘आपकी सारी बातें सही हैं, लेकिन मैं नहीं चाहती कि अधेड़ावस्था में आप किसी ऐसे-वैसे आरोप में जेल जाएं।’ मैं चौंक गया, ‘क्या बकती हो? दाढ़ी से जेल जाने का क्या संबंध है? तुम भी न...कमाल करती हो।’ बेगम ने जिद भरे स्वर में कहा, ‘देखिए..आपके भले के लिए कह रही हूं। मान जाइए। इन दिनों जितने दाढ़ी वाले लोग हैं, वही ऐसे वैसे आरोपों में पकड़े जा रहे हैं। एक पत्रकार को ले लीजिए, संत शिरोमणि को ले लीजिए, उनके सुपुत्र को भी देख लीजिए। आजकल देश में दाढ़ियां बड़ी उत्पाती हो गई हैं। दाढ़ी चाहे छोटी हो या लंबी, इन दाढ़ियों के दुष्प्रभाव के चलते व्यक्ति दुष्कर्म के लिए प्रेरित हो रहा है। वह लड़कियों पर हमला कर रहा है, उसके साथ बुरा कार्य कर रहा है। अभी कल एक प्रसिद्ध ज्योतिषी बाबा आए थे। उन्होंने कहा था कि जो व्यक्ति दाढ़ी रखते हैं, उनकी कुंडली का मंगल और शुक्र मिलकर तृतीयेश में बैठे राहु के साथ बलात्कार योग का निर्माण करते हैं। आपकी भी कुंडली के पांचवें घर में बैठा शुक्र, नवें घर में बैठे बुध और दूसरे घर में बैठे केतु आपकी दाढ़ी के चलते पातक योग का निर्माण कर रहे हैं। इसलिए आप मेरी मानिये, झट से दाढ़ी मुंडवा लीजिए, ताकि पाप कटे।’ मैंने बेगम से पूछा, ‘यह बताओ..तुम्हारे ये ज्योतिषी महाराज कैसे थे? मतलब क्लीन शेव या दाढ़ी-मूंछ वाले?’ बेगम ने तत्परता से जवाब दिया, ‘उनके तो ये..लंबी-लंबी दाढ़ी थी।’ उन्होंने पेट के पास हाथ रखते हुए दाढ़ी की लंबाई बताने का प्रयास किया। मैंने कहा, ‘अरे बेवकूफ औरत! अगर दाढ़ी किसी को पापकर्म के लिए प्रेरित कर सकती होती, तो सबसे पहले आपके ज्योतिषी महाराज को प्रेरित करती न! उनके तो मेरे से कहीं ज्यादा लंबी दाढ़ी थी। मेरी तो अभी मात्र इंच-डेढ़ इंच लंबी दाढ़ी है। मुझे लगता है कि कोई तुम्हें बुद्धू बनाकर सौ-पचास रुपये ठग ले गया।’ मेरी बात सुनते ही बेगम अवाक रह गईं। बोली, ‘हां यार! यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। आने दो, दोबारा उस दाढ़ीजार को, उसकी दाढ़ी न नोच ली, तो कहना।’ इतना कहकर बेगम किचन में घुस गईं।

Monday, November 25, 2013

हमें बदलनी है झारखंड की तस्वीर : हेमंत सोरेन

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पहली प्राथमिकता विकास

अपेक्षाओं के ढेर पर बैठे हेमंत सोरेन के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं, लेकिन जिस रफ्तार से वे इससे निपट रहे हैं, वह काबिलेतारीफ है। ऐसे में यही उम्मीद की जा सकती है कि उनके हाथ में जब तक कमान रहेगी, झारखंड प्रगति की राह पर आगे बढ़ता रहेगा...
अशोक मिश्र
‘झारखंड की मीडिया में खराब तस्वीर पेश की जा रही है। झारखंड में उतनी गड़बड़ियां नहीं हैं, जितनी बताई जा रही हैं। पिछले कुछ महीनों से झारखंड में बहुत कुछ अच्छा हुआ है और आगे भी हम बेहतर करने की कोशिश में लगे हुए हैं।’ यह कहना है झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का। दिल्ली में पत्रकारों से अनौपचारिक मुलाकात के दौरान उन्होंने यह बात कही। उन्होंने कहा कि झारखंड की स्थापना के चौदह वर्ष के बाद भी अभी वहां बहुत कुछ किया जाना बाकी
  दिल्ली में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ विचार विमर्श करते हुए ‘हमवतन’ के संपादक आरपी श्रीवास्तव, स्थानीय संपादक अशोक मिश्र और विशेष संवाददाता अनंत अमित।
है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वहां कुछ हुआ ही नहीं है। हां, जब भी झारखंड की बात चलती है, तो लोग इसे पिछड़ा और आदिवासी बहुल राज्य बताकर इसकी हैसियत कम आंकने की कोशिश करते हैं, जो सही नहीं है। उन्होंने कहा कि झारखंड में जितने प्राकृतिक संसाधन हैं, उनका अगर सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो झारखंड में रहने वालों की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकता है। यहां के जंगल, जमीन और खदानें किसी सोने की खदानों से कम नहीं हैं। बस, इनका उपयोग राज्य और समाज की भलाई के लिए होना चाहिए। आदिवासी समाज के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। उन्हें उनका हक दिलाने की दिशा में सरकार लगी हुई है। जब तक आदिवासी समाज विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़ता, तब तक विकास का कोई मतलब नहीं है। विकास के साथ-साथ उनकी भाषा, रीति-रिवाज और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी जरूरी है। आदिवासी समुदाय को यह नहीं लगना चाहिए कि विकास के नाम पर राज्य सरकार योजनाओं को उन पर थोप रही है। वे विकास की धारा में सहज रूप से शामिल हों, यही हमारी प्राथमिकता है।
अफसोस है कि केंद्र सरकारों ने इन प्राकृतिक संसाधनों के बदले प्रदेश को दिया बहुत कम, जिसका नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद से ही यह विकास की मुख्यधारा में आने से पिछड़ गया। जिन उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर झारखंड राज्य का गठन किया गया, उस लक्ष्य को हम अभी तक नहीं प्राप्त कर पाए हैं। यह भी सही है कि हमारे सामने चुनौतियां कम नहीं हैं, सीमित समय और सीमित संसाधनों में हमें काफी बड़ा लक्ष्य हासिल करना है। हम इस दिशा में कोशिश भी कर रहे हैं। हमारी सरकार इसके कारणों की पहचान के साथ-साथ किसी प्रकार के विवाद से दूर रहकर आगे बढ़कर लक्ष्य हासिल करने में विश्वास करती है।
पिछले दिनों भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पटना रैली के दौरान हुए विस्फोट के आरोपियों के झारखंड से तार जुड़ने के मामले में उन्होंने कहा कि ये बातें बार-बार उठाकर हमारी सरकार की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है। आज आंतकवाद, माओवाद और नक्सलवाद से प्रभावित कई राज्य हैं। आतंकी घटनााओं में शामिल समाज विरोधी तत्व इन राज्यों में भी पकड़े जा रहे हैं, लेकिन बार-बार झारखंड को ही क्यों हाईलाइट किया जा रहा है। हमारी सरकार काफी शिद्दत से नक्सलियों और आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। जो भी राज्य के विकास में अपनी भूमिका तलाशना चाहता है, हम उसका खुले दिल से स्वागत करते हैं।
बातचीत के दौरान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि चार महीने ही हमारी सरकार का गठन हुए हुआ है। इस दौरान हमने कई ऐसे कार्य किए हैं जिनकी चर्चा की जानी चाहिए, लेकिन होती नहीं है। हमारी सरकार ने पत्रकारों के लिए पांच लाख रुपये की बीमा योजना और पत्रकार कल्याण ट्रस्ट स्थापित करने की योजना साकार रूप दिया है। हमने यह महसूस किया कि पत्रकार इसी समाज का हिस्सा है और उसकी भी अपनी कुछ समस्याएं हैं। यह समुदाय समाज के सभी लोगों के हितों का ध्यान रखते हुए अपने कर्तव्य में लगा रहता है, लेकिन किसी भी सरकार ने उसकी समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया। गैरमान्यता प्राप्त पत्रकार के आस्कमिक निधन या विकलांगता पर उसके परिवार को कितनी तकलीफ होती है, इसे हमारी सरकार ने महूसस किया। हमने इस दिशा में आगे बढ़कर कार्य किया और हमें सफलता भी मिली। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी भावी योजनाओं पर चर्चा करते हुए कहा कि उनकी सबसे पहली प्राथमिकता राज्य के विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार मुक्त माहौल का निर्माण करना है। भ्रष्टाचार की शिकायत मिलते ही हमने अधिकारियों को सख्त कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। आम जनता को बेहतर प्रशासन मिले, इसके लिए हम हर संभव प्रयास कर रहे हैं। इसमें हमें काफी हद तक सफलता भी मिली है। हमारी सरकार बेरोजगार युवकों को रोजगार मुहैया कराने की दिशा में भी बड़ी जोर-शोर से लगी हुई है। झारखंड राज्य के गठन के लिए चलने वाले आंदोलन के दौरान शहीद हुए लोगों के परिजनों को सम्मान और नौकरी देने की घोषणाएं कई बार की गईं, लेकिन उन्हें नौकरी के साथ-साथ सम्मान देने का महत्वपूर्ण कार्य हमारी सरकार ने किया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बताया कि उनकी सरकार ने 65 साल से अधिक   उम्र के सभी वृद्धों को सम्मानजनक पेंशन देने की व्यवस्था की है। यह हमारा अपने बुजुर्गों के प्रति सम्मान व्यक्त करने का तरीका है। हम अपने राज्य के युवाओं को संदेश देना चाहते हैं कि जब तक हम अपने बुजुर्गों का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक परिवार और समाज का विकास संभव नहीं हैं। हमें अपने बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ उठाना चाहिए।

मैं भी बन सकता हूं पीएम?

-अशोक मिश्र
मैं आफिस में बैठा कतरब्योंत कर रहा था कि एक आदमी मेरे पास आया और बोला, ‘भाई जी! मुझे आपसे कुछ सलाह करनी है। सुना है कि आप सलाह बहुत अच्छी देते हैं। आपकी जो भी फीस होगी, मैं भुगतने को तैयार हूं।’ मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और धीरे से उसके कान में फुसफुसाया, ‘आप आफिस के बाहर चाय की दुकान पर पहुंचिए, मैं आता हूं।’ थोड़ी देर बाद मैंने चाय की दुकान पर पहुंचकर उससे कहा, ‘हां..अब बताइए, आपकी क्या प्रॉब्लम है?’ उस आदमी ने चाय सुड़कते हुए कहा, ‘भाई जी..मैं पार्टी बनाना चाहता हूं। राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टी..क्या मैं बना सकता हूं?’ मैंने भी चाय जोर से सुड़कते हुए कहा, ‘हिंदुस्तान में चोरों को पार्टी बनाने का हक है, छिछोरों को है, बटमारों और लुटेरों को भी यह हक हासिल है। दागियों को है, बेदागियों को है, तो फिर आपको यह हक क्यों नहीं है। आप तो भले मानुष दिखते हैं। होंगे भी, ऐसा कम से कम मुझे तो विश्वास है। ऐसे में भला आपको कौन रोक सकता है। आप शौक से बनाएं पार्टी, मुझसे भी जो मदद हो सकेगी, मैं करूंगा।’ उस आदमी ने मेरी ओर गौर से देखते हुए कहा, ‘आप शायद मुझे पहचान नहीं पाए हैं। मुझ पर एक नाबालिग से बलात्कार करने का आरोप है। पांच राज्यों की पुलिस मुझे खोज रही है। अब बताइए, मैं राजनीतिक पार्टी बना सकता हूं कि नहीं?’ उसके यह कहते ही इस सर्दी में भी मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया। मैंने कांपती आवाज में कहा, ‘हां..अब भी आप पार्टी बना सकते हैं, चुनाव लड़ सकते हैं। आप एक काम कीजिए, पहले अदालत में आत्मसमर्पण कीजिए। फिर दो-चार महीने बाद जमानत करवाइए और राजनीतिक पार्टी बनाइए। इसमें कोई रोक नहीं है।’ उस आदमी ने अपने चेहरे को मफलर से ढकते हुए कहा, ‘आपको बता दूं, मेरे पास अकूत संपत्ति है। ज्यादातर कमाया हुआ नहीं, कब्जाया हुआ है। नकली नोटों को छापने का बड़ा लंबा चौड़ा कारखाना है। अफीम से लेकर नशीले ड्रग्स तक बेचने का कारोबार मेरे संरक्षण में चलता है। देशी-विदेशी हथियारों की सप्लाई का उत्तर भारत का टेंडर मेरे ही पास है। सौ-पचास अधिकारी मेरे से हफ्ता पाते हैं। दुनिया भर के काले-गोरे धंधों को करने की मास्टर डिग्री मेरे ही विश्वविद्यालय से दी जाती है। दाउद इब्राहिम और छोटा राजन से लेकर ओसामा बिन लादेन अपनी ही यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट रह चुका है। अपनी फैमिली बैकग्राउंड के बारे में बताऊं, तो आप ताज्जुब रह जाएंगे। मेरे बापू ने तो मेरे से भी महान हैं। उनके बारे में अगर बताने लगूं, तो पूरा पोथन्ना तैयार हो जाए। फिर कभी फुरसत में मिलूंगा, तो बताऊंगा। बस, यह बताओ कि अगर लोकसभा चुनाव में मैं खड़ा हो जाऊं, तो क्या प्रधानमंत्री बन जाऊंगा? मेरे जीवन की बस एक ही तमन्ना है कि किसी तरह प्रधानमंत्री बन जाऊं। भले ही उसके लिए कितना पैसा खर्च करना पड़े। किसी को खरीदना-बेचना पड़े, निबटना-निबटाना पड़े, कोई चिंता नहीं है। बस..किसी तरह प्रधानमंत्री पद का जुगाड़ लग जाए।’ मैंने चाय का खाली कप डस्टबिन में फेंकते हुए कहा, ‘आप चिंता न करें। राजनीति में ऐसे ही लोग आते हैं। चोर-लुचक्के, बटमार, हत्यारे, बलात्कारी, छिछोरे...इनसे तो पूरी की पूरी भारतीय राजनीतिक किसी बंद कमरे में रखे कीटनाशक ‘गमकसीन’ पाउडर (रासायनिक नाम नहीं मालूम) की तरह मह-मह कर महक रही है। संविधान ने सबको चुनाव लड़ने, मंत्री-संत्री, विधायक-सांसद बनने की छूट दी है। अब यह आपकी काबिलियत है कि आप जनता से वोट कैसे हासिल करते हैं, डरा कर, धमकाकर, पुचकार कर, नोट-पानी देकर या किसी और तरीके से। अब अगर आपका कोई खेल बिगाड़ सकता है, तो ‘नोटा’ (नॉन आफ दी एबव) वाला बटन। इस ससुरा बटन न हुआ, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र हो गया। खच्च..से गला काट देगा आप जैसे लोगों का। वैसे तो हमारे देश के राजनीतिक गलियारे दागियों से हमेशा आबाद रहे हैं। आप क्या...आपके बाप तक देश और प्रदेश की सत्ता हथिया चुके हैं।’ मैंने देखा कि बाप कहने पर उसकी भौंहें तनने लगी थीं। सो, मैंने व्याख्या करते हुए कहा, ‘आपके बाप से मेरा मतलब है कि अपराध की दुनिया में आपसे चार जूता आगे रहने वाले लोग तक सत्ता हासिल करके मौज मार चुके हैं। इधर जब से माननीय अदालत दागियों को लेकर सख्त हुई है, तब से थोड़ा दिक्कत पैदा होने लगी है। जब तक आपको सजा नहीं सुनाई जाती और आप जेल में नहीं हैं, तब तक तो चांस कहीं गया नहीं है।’मेरी बात सुनते ही उस आदमी ने कहा, ‘बस..बस..आपकी बात मेरी समझ में आ गई। जनता को भरमाने, डराने-धमकाने का जिम्मा मेरा रहा। वैसे अब तक अपने आश्रम में मैं अपने भक्तों को भरमाता ही तो रहा हूं। मेरा इतना प्रभाव है कि लोग सौ-पांच सौ करोड़ रुपये पानी की तरह बहाने को तैयार हैं। बस, उन्हें यह लगना चाहिए कि मेरी पार्टी बहुमत में आ सकती है और मैं प्रधानमंत्री बन सकता हूं। इसके बाद तो वे जितना खर्च करेंगे, उससे पचास गुना ज्यादा वे कमा ही लेंगे।’ इतना कहकर वह आदमी उठा, जेब से उसने रिवाल्वर निकाला और मुझे गोली मारते हुए कहा, ‘सॉरी दोस्त! मैं पकड़ा इसलिए नहीं गया, क्योंकि सुबूत नहीं छोड़ता।’ उसके और अपने हिसाब से तो मैं मर ही गया था, लेकिन चाय वाले ने अस्पताल   पहुंचाकर मुझे बचा लिया।

Tuesday, November 19, 2013

सलाह के साइड इफेक्ट

-अशोक मिश्र
एक सप्ताह पहले मेरे पास मेरा अंडरवियर फ्रेंड खुराफात चंद ‘बकवासी’ आया। अंडरवियर फ्रेंड बोले तो लंगोटिया यार, नर्म सचिव। बकवासी काफी उदास था। उसका बॉस आए दिन किसी न किसी बहाने रपटाता, डांटता रहता है। दोस्तो! रपटाने की कोशिश तो मेरा बॉस भी करता है, लेकिन मैं हूं कि रपटता ही  नहीं। और अगर कहीं खुदा न खास्ता किसी दिन रपट भी जाऊं, तो रपट पड़े, तो ‘हर गंगे’ वाली कहावत चरितार्थ कर लेता हूं। मैंने उससे कहा, ‘देख तुझमें आत्म विश्वास की कमी है। तू अपना आत्म विश्वास बढ़ा। इसके लिए सबसे पहले तो अमेरिकन टी शर्ट के साथ अफ्रीकन लुंगी पहन। क्या गजब का लुक दिखेगा तेरे पर।
मैडोना ने पहना था न एक बार। उसका भी बॉस उससे खफा रहता था, लेकिन बीड़ू...एक दिन वह अमेरिकन कंपनी ‘बेटा टी पी’ की शर्ट और अफ्रीकन कंपनी ‘लातो मारतो’ की लुंगी पहनकर आफिस क्या गया, उसका बॉस ऐसा रपटा..ऐसा रपटा कि वह बॉसगीरी ही भूल गया। बीड़ू..बस एक बार..एक बार तू मेरा यह फार्मूला आजमाकर देख। बॉस क्या..तेरे आफिस के आसपास काम करने वाली सारी लड़कियां तुझे देखकर एकदम फ्लैट न हो जाएं, तो कहना। अगर किसी दिन बॉस की बॉसिनी आफिस आ जाएं, तो तू शरीर पर वह डियो छिड़ककर क्या नहाकर जा जिसकी ब्रांडिंग अपने फेवरेट फिल्म स्टार सल्लू भाई करते हैं। फिर देखियो कमाल।’
मैं सांस लेने के लिए रुका ही था कि मेरा दोस्त खुराफात चंद गुर्रा उठा, ‘तू मेरा दोस्त है या दुश्मन? अभी तो बॉस डांटता-डपटता ही है, तेरा कहा किया, तो नौकरी से भी हाथ धोना पड़ेगा। तू मरवाएगा किसी दिन मुझे, पक्का विश्वास हो गया है। और फिर तेरा यह मैडोना पुल्लिंग है या स्त्री लिंग? तू पढ़ता-लिखता तो है नहीं, बस कलम घसीटू पत्रकार बना फिरता है। मैडोना का पूरा नाम है मैडोना लुईस चिकोने। बहुत बड़ी फिल्म स्टार हैं वे।’ मैंने भी उसे घूरते हुए कहा, ‘अबे चमगादड़! क्या फर्क पड़ता है कि मैडोना स्त्री है या पुरुष? बात कॉन्फि डेंस की है। कितनी कान्फिडेंस से मैं स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनाता जा रहा हूं। मेरी जबान लड़खड़ाई, अपनी कमअक्ली के बारे में सोचकर? नहीं न...सोच मुझमें ऐसा क्या है जो तेरे में नहीं है। मेरी मां ने बचपन से ही मुझे दूध कम कान्फिडेंस ज्यादा पिलाया है। आधी कटोरी दूध में पाव भर धनिये का रस मिलाकर पिलाती थी मुझे। किसी ने उनसे कह रखा था कि विश्व विजेता सिकंदर ने भी इंडिया आने के बाद दूध और दही के मिश्रण में धनिये का रस मिलाकर पिया था। अपने फेंकू भाई तो बकरी के दूध में धनिये और पुदीने का रस मिलाकर रोज पीते हैं। सबसे पहले सबसे पहले तो तू ये देशी और सस्ते रेजर और जेल से दाढ़ी रेतना बंद कर। इंग्लैंड की फेमस कंपनी का रेजर और जेल इस्तेमाल कर। देशी रेजरों और साबुनों से दाढ़ी मूंड़कर अपना स्टैंडर्ड मत गिरा। सबके सब बदल डाल। अपने घर की चड्ढी-बनियान से लेकर पैंट-बुश्शर्ट तक। दादी, काकी नानी से लेकर अम्मा-बप्पा तक। पत्नी-बच्चों से लेकर गर्लफ्रेंड्स तक। फिर देखो कमाल। दादी नानी को ग्रैंड मॉम, काकी, मामी, मौसी को आंटी, रमुआ की अम्मा, गीता की मम्मी को डियर, डार्लिंग, जानू कहकर तो देखो, कैसा रोमांच पैदा होता है अंतस में। गर्लफ्रेंड तो भूलकर देशी मत रखना। मुझे देख, आज तक देशीवालियों को घास ही नहीं डाली, विदेशी भाव ही नहीं देती, इसलिए अपना स्टेट्स तो मेनटेन है। तू बेवजह छबीली, नुकीली, रंगीली के चक्कर में अपना टाइम खोटा कर रहा है, पामेला, कैली, बैली जैसियों की कल्पना कर, फिर देख कितना मजा आता है। मोक्ष की प्राप्ति जैसा आनंद। खुराफात चंद बकवासी ने मेरी बात सुनकर गहरी सांस ली और बिना कुछ बोले उठकर चला गया। कल मेरे एक दूसरे मित्र ने बताया कि खुराफात चंद बकवासी पिछले कई दिनों से अस्पताल में भर्ती है। मैं मित्रतावश उससे मिलने अस्पताल गया। सिर और दोनों पैरों में पट्टियां बंधी हुई थीं।मुझे देखते ही बकवासी उठा और पास में रखा मोटा डंडा उठाकर लंगड़ाते हुए दौड़ा लिया। मैंने भागते हुए कहा, ‘अबे तू कहीं पागल तो नहीं हो गया है?’ खुराफात चंद ने फेंककर डंडा मारते हुए कहा, ‘हां..मैं पागल हो गया हूं और इस पागलपन में तेरी जान लेकर छोडूंगा। नालायक! तेरे चक्कर में अम्मा-बप्पा से पिटा ही पिटा, बीवी ने भी जमकर ठुकाई की। तेरे जैसा दोस्त तो किसी दुश्मन का भी न हो कसाई! मैंने तो सिर्फ अम्मा-बप्पा की जगह डैड-मॉम और बीवी को डार्लिंग कहकर क्या संबोधित किया कि लोगों ने समझा कि मेरे सिर पर ब्रह्म सवार हो गया है। लोग ओझा के पास ले जाने लगे, तो मैंने विरोध किया। लोगों ने समझा बरम (ब्रह्म पिशाच) विरोध कर रहा है। इसी बीच किसी ने कहा कि इन्हें पीटो तो बरम को चोट पहुंचेगी और वह भाग खड़ा होगा। बस फिर क्या था? अम्मा ने सिर पर लट्ठ जमाया, तो बीवी ने बरम भगाने के चक्कर में मेरी दोनों टांगें तोड़ दी।’ सलाह के साइड इफेक्ट समझ में आते ही मैंने वहां से खिसक लेने में ही भलाई समझी।

Wednesday, November 13, 2013

प्रधानमंत्री को माफी मांगनी चाहिए

-अशोक मिश्र
काफी धुआंधार प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी। राष्ट्रीय मूर्खता विकास पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता चतुरानंद कह रहे थे, ‘आप सोचिए, आज अगस्त क्रांति दुर्घटना ग्रस्त हुई है, कल शताब्दी या राजधानी का नंबर हो सकता है। यह किसकी गलती है? प्रधानमंत्री की। प्रधानमंत्री न ठीक से देश चला पा रहे हैं, न उनके शासन में रेलगाड़ियां सही चल रही हैं। जैसी मनमानी प्रधानमंत्री कर रहे हैं, वैसी ही मनमानी पर रेलगाड़ियां, बसें और हवाई जहाज उतारू हैं। आज ही हिमाचल प्रदेश में बस खाई में गिरने से पांच आदमियों की असमय मौत हो गई।
इसमें किसका दोष है? साफ तौर पर प्रधानमंत्री का। अगर सड़कें ठीक तरह से बनी होतीं, तो यह हादसा नहीं होता। मैंने पता किया है, हिमाचल की वह सड़क प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क विकास परियोजना के तहत बनी थी। प्रधानमंत्री को इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए या तो अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए अथवा पूरे राष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए। अगर दो-चार दिन में प्रधानमंत्री ने माफी नहीं मांगी या इस्तीफा नहीं दिया, तो राष्ट्रीय मूर्खता विकास पार्टी के कार्यकर्ता सड़कों पर उतरेंगे, राष्ट्रव्यापी आंदोलन करेंगे। हमारे कार्यकर्ता प्रधानमंत्री को मजबूर कर देंगे कि वे अपने पद से इस्तीफा दें।’
तभी दैनिक झमामझ टाइम्स के संवाददाता ने उनसे पूछा, ‘चतुरानंद जी! पिछले दिनों उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में आए ‘फेलिन’ के बारे में आपकी पार्टी क्या सोचती है?’ चतुरानंद जी पहले तो मुस्कुराए और बोले, ‘इसके लिए भी केंद्र सरकार दोषी है। दोषी इस मायने में है कि प्रधानमंत्री को फेलिन से बात करनी चाहिए थी, उसको मनाना चाहिए था। अगर वह आने पर इतना ही उतारू था, तो उसको राष्ट्रीय मेहमान का दर्जा दिया जा सकता था, तब शायद वह नहीं होता, जो हुआ था। पूरी दुनिया के सामने इतनी जगहंसाई नहीं होती? प्रधानमंत्री को पूरे राष्ट्र से खासकर हमारी राष्ट्रीय मूर्खता विकास पार्टी के अध्यक्ष से माफी मांगनी चाहिए।’ राष्ट्रीय मासिक ‘मुंह-पेट’ के संवाददाता ने बीच में अवरोध पैदा किया, ‘लेकिन फेलिन तो तूफान का नाम है। प्रधानमंत्री उस तूफान से कैसे बात कर सकते थे? उसको कैसे रोक सकते थे? उस तूफान पर प्रधानमंत्री का क्या वश चल सकता था?’ पल भर के लिए प्रवक्ता चतुरानंद अकबकाए और फिर धूर्ततापूर्वक बोले, ‘चलो माना कि तूफान को वे रोक नहीं सकते थे। लेकिन इस्तीफा तो दे सकते थे? देश की जनता से माफी तो मांग सकते थे? आपको याद है, लाल बहादुर शास्त्री जी जब रेल मंत्री थे, तो रेल हादसा होने पर उन्होंने रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दिया था कि नहीं? नैतिकता भी तो कोई चीज होती है कि नहीं। क्या लाल बहादुर शास्त्री जी कोई उस रेलगाड़ी के ड्राइवर थे? नहीं न! लेकिन उनकी नैतिकता देखिए, उन्होंने इस्तीफा देने में एक भी पल नहीं लगाया था। फेलिन जब आया, तो अपने प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे? विदेश यात्रा पर गए हुए थे। जब आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, झारखंड जैसे प्रदेश तूफान का बड़ी बहादुरी से सामना कर रहे थे, तब हमारे माननीय प्रधानमंत्री विदेश में सो रहे थे क्योंकि उस समय रात के ढाई बजे थे। जब देश पर संकट आया हो, तो कोई भी प्रधानमंत्री सो कैसे सकता है? अब कई प्रदेशवासियों के संकट के समय सोने के मामले में प्रधानमंत्री का इस्तीफा तो बनता है न!’
‘चतुरानंद जी! जब आपकी पार्टी सत्ता में थी, तो आपकी पार्टी के प्रधानमंत्री ने कभी इस्तीफा नहीं दिया? जबकि उनके शासनकाल में भी हत्याएं हुर्इं, बच्चियों और महिलाओं से बलात्कार हुए, कई बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हुआ। आपकी पार्टी के कई सांसद कैमरे के सामने रिश्वत लेते पकड़े गए। तब कहां चली गई थी आपकी नैतिकता?’ एक संवाददाता ने सवाल पूछा। चतुरानंद ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘तब विपक्षियों ने साजिश रची थी। वे हमारी पार्टी की सरकार को बदनाम करना चाहते थे। हमारी पार्टी की नीतियां तब भी सही थीं और आज भी सही हैं। खोट विपक्ष में बैठे लोगों में थी। वे जानबूझकर हमारी पार्टी के सांसदों को पैसा पकड़ाते थे और बाद में हो-हल्ला मचाते थे। इसमें मीडिया के भी कुछ लोग शामिल थे। जब तक हमारी पार्टी की सरकार रही, हमने किसी को भी देश का पैसा लूटने नहीं दिया। आज हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं, अगर अगले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी की सरकार बनी, तो सबको लूटने का मौका समान रूप से दिया जाएगा। इस मामले में हमारी पार्टी की नीतियां सबसे अलग हैं। अगर हमसे कुछ बचेगा, तो सबको मिलेगा न! देश में जितने भी बनिया-बक्काल और पूंजीपति हैं, पहले उन्हें लूटने-खसोटने का मौका दिया जाएगा। उनसे अगर कहीं कुछ बच गया, तो उसके बाद नौकरशाही का नंबर लगेगा। हां, देश के लोग यह विश्वास रखें, पांच साल बीतते-बीतते लगुओं-भगुओं का नंबर आ ही जाएगा। आखिर कोई कितना लूटेगा? साल-दो साल में लूटने वाला थक ही जाएगा और कहेगा, ‘बस अब मुझसे नहीं लूटा जाता।’ इतना कहकर राष्ट्रीय मूर्खता विकास पार्टी के प्रवक्ता उठे और बोले, ‘अब प्रेस कान्फ्रेंस खत्म। बाकी सवाल अगली बार के लिए। हां, आप लोग स्वल्पाहार जरूर करके जाएं। यदि मन हो, तो अपने बाल-बच्चों के लिए भी ले जा सकते हैं।’ इसके बाद चतुरानंद चलते बने।

Thursday, November 7, 2013

हाय..हाय.. सोने का सपना टूट गया

अशोक मिश्र 
बचपन में जब भी कहता था कि कल मैं यह करूंगा, वह करूंगा। इतनी पढ़ाई करूंगा, उतनी पढ़ाई करूंगा। तो थंब ग्रेजुएट (अंगूठा टेक) मेरी अम्मा तुरंत डांटती थीं, ‘नासपीटे! अभी से क्यों गा रहा है। कल जितनी पढ़ाई करनी होगी, कर लेना। पहले से ही बनाई गई योजना कभी पूरी नहीं होती। देख लेना, कल ऐन मौके पर कोई न कोई बखेड़ा खड़ा हो जाएगा और तेरा पढ़ना-लिखना धरा का धरा रह जाएगा।’ और सचमुच, कुछ न कुछ ऐसा हो जाता था कि मैं सोचा गया काम नहीं कर पाता था। अम्मा की बातें तब केवल अंधविश्वास लगती थीं, लेकिन अब महसूस होता है कि अम्मा कितना सही कहती थीं। कितना कुछ सोच रखा था? दोस्तों से भी वायदा कर रखा था कि उन्हें भी उसमें से कुछ हिस्सा दूंगा। मेरे यार-दोस्त तो इतना उत्साहित थे कि उन्होंने इसके लिए एक भारी भरकम पार्टी की व्यवस्था कर रखी थी। अगर आप लोग घरैतिन को न बताने का वायदा करें, तो एक महीन बात बताऊं। उस भारी भरकम पार्टी में कुछ डांस-वांस का भी प्रोग्राम था। अब यह मत पूछिएगा कि किसका? जब सपना ही टूट गया, तो कहकर क्या करेंगे। यह बात ढकी-छिपी है, तो अब ढकी ही रहने दीजिए। मुझे तो अब वाकई बहुत गुस्सा आ रहा है। जी चाहता है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया वालों की दाढ़ी नोच लूं। (अगर वे मेरी तरह दाढ़ी रखते हों, तो) कितना सपना दिखाया था इन नासपीटे चैनल वालों ने। वहां इतनी ओबी वैनों को लाकर खड़ा कर दिया था कि लगता था कि ओबी वैन्स का कोई पुराना स्टाक हो और कबाड़ में बेचने के लिए लाया गया हो।
दिन भर चैनलों पर बतकूचन चलती रहती थी। एक चैनल का तो यह भी दावा था कि इतना सोना निकलेगा कि अगर देश की जनता में सबको बांटा गया, तो हर एक व्यक्ति को पसेरी-पसेरी सोना जरूर मिल जाएगा। सोचा था कि आधा पसेरी सोना घरैतिन को देकर हाथ झाड़ लूंगा। वह तो छंटाक भर सोना देखकर ही अपने को धन्य मान लेगी। बाकी सोने के लिए मैंने अपनी कुछ सहेलियों (महिला मित्रों यानी गर्ल फ्रेंड्स) को आश्वासन दे रखा था। अब उन सहेलियों के सामने कौन-सा मुंह लेकर जाऊंगा? पिटवा दी न मेरी भद? कर दिया न कबाड़ा मेरी इज्जत का? मैंने सपने में भी नहीं सोचा कि एक सपना...संत बाबा का सिर्फ एक सपना मेरी इज्जत का फालूदा बनाकर लोगों में बांट देगा खाने के लिए। अब तो मुझे अपने पर गुस्सा आ रहा है कि मैंने उस नामुराद सपने को सच मानकर इतना हसीन और रंगीन सपना क्यों देखा? आपको बताऊंगा, तो आप हंसेंगे। जब आॅर्कियोलाजिकल सर्वे आॅफ इंडिया ने खुदाई शुरू की थी, तो उसके बगल में चल रहे भजन-कीर्तन में मैंने भी पूरे दिन गला फाड़-फाड़कर भजन गाया था, मन्नत मांगी थी। धन की देवी लक्ष्मी जी की मूर्ति को हाजिर नाजिर मानकर मैंने प्रतिज्ञा की थी कि अगर चैनल वालों के कहे मुताबिक पसेरी भर सोना मिला, तो कम से कम तोला-दो तोला आपको भी भेंट करूंगा। यह मनौती मानने के बाद विश्वास था कि आरबीआई के गर्वनर की तरह लक्ष्मी मैया पसेरी भर सोना मिलने की गारंटी तो ले ही लेंगी। कल रात जब लक्ष्मी जी के वाहन उल्लूक राज मेरे सपने में आए, तो मैं खुशी के मारे उछल पड़ा था।
मैंने उल्लूक राज के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा था, ‘उल्लूक महाराज! दीपावली से चार दिन पहले ही दर्शन दे दिए? लक्ष्मी जी कहां हैं? दिखाई नहीं दे रही हैं? सब खैरियत तो है न! विष्णुधाम से लक्ष्मी मैया ने मेरे लिए कोई मैसेज वगैरह तो नहीं भेजा है? आपको क्यों तकलीफ दी मैया ने? एक एसएमएस कर देंती या फिर फोन ही कर देंती। लक्ष्मी मैया के पास मोबाइल सुविधा तो है न कि पुराने जमाने की तरह अभी भी मोबाइल, इंटरनेट वगैरह का अभाव है। ओह समझा, पानी में तार बिछाने में दिक्कत आ रही होगी।’ मेरी बात सुनकर उल्लूक राज जी मुस्कुराये थे। वे कुछ देर तक मुझे घूरते रहे और फिर उड़ गए। मैं सपने में चिल्लाया, ‘अरे लक्ष्मी जी का संदेश तो बताते जाओ, उल्लू महाराज!’ सपने में शायद जोर से चिल्लाया था। मेरी आवाज सुनकर घरैतिन की नींद टूट गई थी। वे बड़बड़ाने लगीं, ‘दिन भर तो छत पर बैठकर घूरने से पेट नहीं भरा, तो अब सपना भी देखने लगे।’ दरअसल, बात यह है कि लक्ष्मी दो घर छोड़कर मेरे मोहल्ले में रहती है। अब सोचता हूं, तो लगता है कि उल्लू महाराज मुझे सपने में आकर चेताने आए थे, बेटा सपने के चक्कर में उल्लू मत बन। जिसने भी सपने पर विश्वास किया, उसकी नैया बीच मझधार में डूबती है। विश्वास न हो, तो कांग्रेस के मंत्री से पूछ लो जिन्होंने सपने पर विश्वास करके खुदाई का फरमान जारी करवाया था। हाय..हाय..डौंडिया खेड़ा...हाय राजा राव राम बक्स सिंह..और उनका अकूत खजाना।

Tuesday, October 29, 2013

प्रभु! फेंकू या पप्पू की पार्टी का टिकट दिलवा दो

-अशोक मिश्र
गुनहगार हनुमान जी की प्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे, ‘हे भगवान! बस एक बार..सिर्फ एक बार किसी पार्टी से अपना टांका भिड़वा दो। मुझे कोई भी पार्टी लोकसभा चुनाव के लिए टिकट दे दे, बस..। इतनी कृपा कर दो, अंजनी सुत। वैसे आपको तो सब मालूम ही है, आपसे इस चराचर जगत में क्या छिपा हुआ है। राष्ट्रीय लात-घूंसा पार्टी वाले अपना टिकट देने को तैयार हैं। लेकिन भगवन! इस पार्टी का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शब्द का अर्थ किसी मोहल्ले-टोले से बड़ा नहीं है। कहने को तो लात-घूंसा पार्टी राष्ट्रीय है, लेकिन उसका जनाधार सिर्फ एक मोहल्ले तक ही सिमटा हुआ है। ऐसी पार्टी का क्या राष्ट्रीय होना और क्या अंतरराष्ट्रीय होना, सब समान है।
आदरणीय पवन सुत जी! एक बात बताऊं। कामरेडों वाली एक पार्टी मेरे संपर्क में है। उसके पोलित ब्यूरो के एक सदस्य कल मुझे बता रहे थे कि अगर मैं थोड़ा सा प्रयास करूं, तो बात बन सकती है। प्रभु! इनके टिकट से चुनाव लड़ने पर एक ही दिक्कत है कि खुदा न खास्ता अगर चुनाव जीत भी गया, तो खाने-कमाने का मौका मिलेगा ही नहीं। विपक्ष में बैठकर बस कभी-कभार हल्ला गुल्ला मचाने का मौका भर मिलेगाा। अब भगवन! आप तो जानते ही हैं कि कोई भला दस-पांच करोड़ खर्च करके अगर चुनाव जीतेगा, तो संसद में बैठकर भजन-कीर्तन करने की इच्छा पालेगा नहीं। वह तो यही चाहेगा कि जहां पांच-दस करोड़ खर्च किए हैं, तो वहां हजार-पांच सौ करोड़ कमाने का जुगाड़ बने। चलिए, कामरेडों के टिकट पर चुनाव लड़ लिया, तो पार्टी किसी तरह की मदद करने से रही। जिसके घर में भूजी भांग नहीं होगी, वह दूसरों की क्या मदद करेगा। उल्टे पार्टी फंड के नाम पर शरीर पर जो कपड़ा-लत्ता होगा, वह भी उतार ले जाएंगे।’
इतना कहकर गुनाहगार सांस लेने के लिए रुके और फिर बोले, ‘किसी तरह पप्पू या फेंकू की पार्टी का टिकट दिला दो, तो मजा आ जाए। भगवन! मैं यह कतई नहीं कहता कि मेरा जीवन बेदाग रहा है। जहां देश के नेता और साधु-संतहत्या, बलात्कार, सरकारी और गैर सरकारी जमीनों पर कब्जा करने के बाद भी साफ सुथरे और चरित्रवान बने रहते हों, जनता के विकास के नाम पर बनने वाली परियोजनाओं का सारा पैसा डकारने के बाद भी सीना ठोककर दूसरों को ईमानदारी, कर्त्तव्य पारायणता और राष्ट्रहित में कार्य करने की नसीहत देते हों, तो उनके मुकाबले में मेरा अपराध बहुत तुच्छ है। केशरीनंदन! मैं मानता हूं, मैंने जिंदगी भर पाकेटमारी की है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि गलती से किसी गरीब के पाकेट पर अपना ब्लेड चल गया है, तो मैंने वह पैसा अपने पर कभी खर्च नहीं किया। उसमें अपने मेहनत से कमाई गई रकम में से कुछ पैसा मिलाकर किसी असहाय, जरूरतमंद की मदद की है। भगवान! मैं यह सब कुछ बताकर अपने को अच्छा बताने का प्रयास नहीं कर रहा हूं, बल्कि यह जताने की कोशिश कर रहा हूं कि आज की राजनीति में कितनी गंदगी आ गई है।’
गुनाहगार ने चुपके से अपनी दोनों आंखें खोलकर इधर उधर देखा और फिर बोले, ‘वैसे तो पप्पू की पार्टी न दूध की धुली है, न फेंकू की। दोनों एक तरफ एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। अपने को जनता के रहनुमा कहने वाले कामरेडों का चरित्र भी कमोबेश पप्पू-फेंकू जैसा ही है। दरअसल, इनकी पार्टी के झंडे, नारे और नेता भले ही अलग-अलग हों, लेकिन सभी इस लूट-खसोट की व्यवस्था के संचालक बनने की होड़ में हैं। गरीब जनता के सामने एक ओर नाग नाथ हैं, तो दूसरी ओर सांप नाथ। जनता के सामने लोकतंत्र नाम का एक झुनझुना टंगा हुआ है जिसको हर पांच साल बाद बजाया जाता है। इस झुनझुने की लय और ताल पर बेचारी गरीब जनता नाचने को मजबूर हैं। भगवन! पिछले साढ़े छह दशक से लोकतंत्र में जब भ्रष्टाचार की गंगोत्री बह रही है, तो मैं भी सोचता हूं कि बुढ़ापे में एक बार डुबकी मैं भी लगा ही लूं। एक बार की डुबकी से मेरा बुढ़ापा तो सुधर ही जाएगा, दो-चार पीढ़ियों का भी काम आसानी से चलता रहेगा। आपको बस अपने इस अनन्य भक्त की इतनी मदद करनी होगी कि पप्पू या फेंकू की पार्टी के कर्ता-धर्ताओं की मति फेर दो और वे मुझे अपना उम्मीदवार बना लें। इसके बाद भी आपका काम खत्म नहीं होगा, भगवन! जिस लोकसभा सीट से मैं उम्मीदवार होऊंगा, उस क्षेत्र की जनता की मति फेरने क्या दूसरे ग्रह का कोई भगवान आएंगे? मैंने तो आपके ही भरोसे पर न जाने कितनी तरह की कल्पनाएं कर रखी हैं। सांसद बन गया, तो यह करूंगा। सांसद बन गया, तो वह करूंगा।
सब कुछ खाक में मत मिला देना, प्रभु!’ तभी हनुमान जी के गले में पड़ी माला का एक फूल पता नहीं कैसे, गुनाहगार के सिर पर आकर गिरा, तो गुनाहगार खुशी से उछल पड़े। उन्होंने ‘राम भक्त हनुमान की जय’ का जयकारा लगाया और उस फूल को बड़ी श्रद्धा से उठाकर जेब में रख लिया। वे समझ गए कि उन्हें अगले लोकसभा चुनाव में सत्ता पर काबिज होने वाली पार्टी से टिकट मिलने का आश्वासन भक्तवत्सल हनुमान जी ने दिया है।

Tuesday, October 22, 2013

बोलिए, स्वामी पतितानंद जी की जय!

अशोक मिश्र 
बाप रे बाप!...बाबा होना, इतना मजेदार, रसदार और असरदार हो सकता है कि कोई भी ‘बदकार’ बाबा हो सकता है? अब तो मैं बाबा होकर ही रहूंगा। कोई भी मुझे बाबा होने से रोक नहीं सकता, एक अदद घरैतिन भी नहीं। अब तो किसी की भी नहीं सुनूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। दुनिया में हालाडोला (भूकंप) आ जाए या आसमान से बज्र (बिजली) गिर पड़े। कहते हैं कि महाभारत काल में जब देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा की थी, तो पूरे ब्रह्मांड में हलचल मच गई थी। मैं वही काल फिर से दोहराने जा रहा हूं। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि जल्दी ही बाबा बनकर दुनिया के प्रकट होऊंगा। सीधे हिमालय से बीस-पच्चीस हजार साल से तपस्यारत रहने के बाद। (अरे...यह बात मैं नहीं कह रहा हूं। मेरे चेले-चेलियां भक्तों को यही कहकर तो लुभाएंगे। आप लोग भी न! किसी बात को बूझते नहीं हैं और बीच में टांग अड़ाने लगते हैं।) हां तो साहब...मैंने अपना नाम भी सोच लिया है, श्री श्री 1008 स्वामी पतितानंद जी महाराज। पतित कर्म करने पर भी किसी को सफाई देने की जरूरत नहीं है। नाम से ही सब कुछ जाहिर है। मेरी गारंटी है कि यह नाम जितना टिकाऊ है, उतना ही बाजार में बिकाऊ भी है। बस थोड़ी सी जरूरत है मार्केटिंग की। तो उसके लिए चेले-चेलियों की फौज तैयार कर रहा हूं। कुछ वीआईपी चेले-चेलियों को पकड़ने की कोशिश में हूं। जैसे ही कुछ मंत्री, संत्री टाइप के चेले-चेलियां फंसी कि मैं भी कृपा का परसाद बांटने लगूंगा।
मेरे कुछ मित्रों की सलाह है कि पहले कुछ विदेशी चेलियों की व्यवस्था करूं। विदेशी चेलियों के साथ होने के कई फायदे हैं। एक तो इस देश की बौड़म जनता विदेशी ठप्पे पर कुछ ज्यादा ही मुरीद रहती है। भले ही वह विदेशी मुद्रा हो, विदेशी कचरा हो या विदेशी लड़कियां। हमारे देश के ‘अक्ल के अंधे, गांठ के पूरे’ लोग बहुत जल्दी लार टपकाने लगते हैं। कुछ विदेशी चेलियां आयात करने वाली कंपनियों से संपर्क साधा है, उनके कोटेशन का अध्ययन कर रहा हूं। बहुत जल्दी ही तीन-चार कंपनियों को यह काम सौंपकर दूसरे प्रोजेक्ट में लगूंगा। दूसरा प्रोजेक्ट यह है कि कुछ गुंडेनुमा भक्तों की भर्ती करनी है, ताकि लगभग हर जिले में सरकारी और गैर सरकारी जमीनों पर कब्जा किया जा सके। हर जिले के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों को अपना भक्त बना लेने से दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। वे जमीन हथियाने के मामले में कोई पंगा नहीं खड़ा करेंगे, बल्कि जमीन के वास्तविक मालिक को लतियाकर भगाने में मदद करेंगे। मैंने कुछ फैक्टरियों को किस्म-किस्म की अंगूठियां, गंडे, ताबीज बनाने का आर्डर दे दिया है। आखिर लोगों को अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए स्वामी पतितानंद जी महाराज से कृपा स्वरूप कुछ चाहिए होगा न! तो उन्हें यही गंडा, ताबीज और अंगूठियां बांटूंगा। किसी को धन चाहिए, तो अंगूठी। किसी की प्रेमिका रूठ गई, तो उसके गले में बांधने के लिए गंडा, किसी पत्नी रूठकर मायके चली गई है, तो उसके लिए गौमूत्र में डुबोकर पवित्र की गई लोहे का छल्ला। किसी को संतान चाहिए, तो उसके लिए विशेष पूजा। ...के साथ (यहां आप अपनी इच्छा के मुताबिक भर लें) एकांत साधना। सोचिए, कितना रोमांच और खुशी हो रही है बाबा होने पर मिलने वाले सुख की कल्पना करके। जब बाबा हो जाऊंगा, तो किन-किन सुखों का उपभोग करूंगा, इसकी आप और मैं अभी सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।
दोस्तो! मैं तो अभी कल्पना करके ही इतना गदगद हूं कि रात की नींद और दिन का चैन हराम हो गया है। किसी काम में मन नहीं लग रहा है। बार-बार मन में आता है कि अरे! मैं अपने अखबार के दफ्तर में बैठकर कुछ हजार रुपल्ली के लिए कलम घिसने को पैदा हुआ हूं क्या? मेरा अवतरण इस दुनिया में ‘महान’ सु (कु) कर्मों के लिए हुआ है। हो सकता है कि पांचवेंपन में मुझे अपने इन सु (कु) कर्मों के चलते जेल भी जाना पड़े, लेकिन कोई बात नहीं। लोगों की भलाई के लिए मैं जेल क्या? अमेरिका के ह्वाइट हाउस और लंदन के बर्मिंग्घम पैलेस तक जाने को तैयार हूं। बस..इस पुनीत कार्य में एक ही अडंगे की आशंका है। इस दुनिया में सिर्फ एक ही व्यक्ति को मेरी यह उपलब्धि फूटी आंखों नहीं सुहाएगी। वह है मेरी धर्मपत्नी, मेरे बच्चों की अम्मा..। वैसे तो मैं इस दुनिया का सबसे बहादुर इंसान हूं। किसी से भी नहीं डरता। आंधी आए या तूफान, अपुन खड़े हैं सीना तान। लेकिन साहब...घरैतिन सामने हो, तो...। क्या कहा...मैं डरपोक हूं। चलिए, ज्यादा शेखी मत बघारिये, आपकी भी औकात जानता हूं। अपनी खूबसूरत साली या बचपन वाली प्रेमिका की कसम खाकर बताइएगा, पत्नी के सामने कान पकड़कर उठक बैठक लगाते है कि नहीं। लगाते हैं न! तो फिर जब सभी अपनी घरैतिन से डरते हैं, तो क्या मैं कोई गुनाह करता हूं, साहब! अरे...रे, मुझे घरैतिन की आवाज क्यों सुनाई दे रही है। लगता है, नशा उतर रहा है। दारू पीकर ऊलजुलूल सोचने के अपराध में पिटने का वक्त आ गया है।

Thursday, October 17, 2013

दाउद भैया के चैनल में नौकरी

अशोक मिश्र
आफिस से निकलते-निकलते रात के दो बज गए थे। मूंगफली के दानों को टूंगता पैदल ही घर की ओर चला जा रहा था कि चौराहे पर चार आदमियों ने रास्ता रोक लिया, ‘ओए..तेरा नाम क्या है चिरकुट!’ रास्ता रोकने वालों को बड़ी गौर से देखा। साढ़े छह-सात फुटे के दैत्याकार शरीर वाले आतंकवादी सरीखे हथियार बंद लोगों ने मुझे चारों ओर से घेर रखा था। उन्हें देखकर मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। मैंने दीन स्वर में कहा, ‘आप लोग सर्वज्ञ हैं क्या? मेरा वही नाम है जो आपने अभी उचारा है। घनानंद पिलपिलानंद चिरकुट...!’ मेरी बात सुनकर एक आदमी मुझे सबक सिखाने को आगे बढ़ा कि तभी पीछे वाले ने उसे रोकते हुए कहा, ‘नहीं..छोटे भाई...नहीं...भाई ने अपुन को इसे बड़े सम्मान के साथ लाने को कहा है। इसलिए मारपीट नक्को..सिर्फ पूछताछ सक्को (सकते हो)...।’जैसे ही मेरी समझ में यह आया कि वे अपने किसी भाई के आदेश के चलते मुझसे मारपीट नहीं करेंगे, मैं शेर हो गया। मैंने गुस्से में उन्हें फटकारते हुए कहा, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे रोकने की। तुम मुझे जानते नहीं हो। एक मिनट में अंदर हो जाओगे और कोई जमानत लेने वाला नहीं मिलेगा।’
इतना कहते ही सामने वाले ने मेरे सिर पर मुष्टिका प्रहार करते हुए कहा, ‘जिसे पूरी दुनिया की पुलिस खोज नहीं पाई, उसे तुम धमकी दे रहे हो।’ उसके मुष्टिका प्रहार करते ही मैं अपने होशोहवास खो बैठा। होश आया, तो मैं दाउद इब्राहिम के सामने था। वह सामने बैठा वाइन पी रहा था। मैंने सनसना रहे माथे को सहलाते हुए कहा, ‘यार! अकेले पी रहे हो? मुझे भी पिलाओ, उस मूड़ीकाटे ने इतनी जोर से सिर पर मारा था कि सिर अभी तक भन्ना रहा है।’ दाउद इब्राहिम ने मेरे पीछे खड़े शख्स को वाइन देने का इशारा करते हुए कहा, ‘जानते हो! जिसने तुम्हारे सिर को ठोका था, उसका नाम क्या है? शकील....छोटा शकील। उसके सम्मान करने का यही तरीका है।’दाउद की बात सुनते ही मैं कांप गया, अगर सम्मान ऐसा है, तो अपमान कैसा होगा? दाउद ने वाइन सिप करते हुए कहा, ‘सुन...मेरी बात सुन... जिसके लिए तुझे हिंदुस्तान से पाकिस्तान आयात करना पड़ा। तेरा ही नाम घनानंद पिलपिलानंद चिरकुट है न! मैंने तेरा एक आर्टिकलनुमा व्यंग्य या व्यंग्यनुमा आर्टिकल दैनिक ‘रो मत सुंदरी’ में पढ़ा था जिसकी थीम तूने पाकिस्तान के सबसे बडेÞ अखबार ‘डॉन’ के प्रसिद्ध कॉलमिस्ट सल्लू भाई घल्लू जी के लेख से चुराई थी। पात्रों की चोरी तूने अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ से की थी। तेरी काबिलियत यह थी कि तूने चुराई गई सामग्री और पात्रों को इतनी खूबसूरती से फेंटा था कि कोई भी मां का लाल तुझ पर चोरी का इल्जाम नहीं लगा सकता था। अगर तू मुंबइया फिल्मों का स्टोरी राइटर होता, तो अब तक तलहका मचा चुका होता।’ दाउद की बात सुनकर मैं अवाक रह गया। मैंने कतई नहीं सोचा था कि अंडरवर्ल्ड का डॉन भी इतना पढ़ा-लिखा है। कि वह हम जैसे टुटपुंजिया व्यंग्यकारों को भी पढ़ता और उनकी चोरी-चकारी को इंडीकेट भी करता है।
दाउद की बात सुनकर मेरे अवसान ढीले हो गए। मैंने समझा कि अब तो मैं गया। ‘ठांय’ से एक गोली चलेगी और मेरी कहानी खत्म। यहां पाकिस्तान में कौन पूछे कि घनानंद पिलपिलानंद चिरकुट की लाश गिद्ध-कौवे खा गए हैं कि बाकायदा हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार दाह संस्कार भी हुआ है। मेरी मनोभावना समझकर दाउद मुस्कुराया और बोला, ‘डर मत...तेरी फाइल निबटानी होती, तो तुझे पाकिस्तान लाने की जहमत उठाने की कोई जरूरत नहीं थी। तेरे आफिस के पास वाले चौराहे से जिन लोगों ने तुझे उठाया था, वे सिर्फ एक गोली खर्च करते और तू कब का अल्लाह को प्यारा हो गया होता। बात यह है कि मैं तुझे अपने ‘डी’ चैनल का इंडिया हेड बनाना चाहता हूं। पांच लाख सैलरी के साथ-साथ घोड़ा-गाड़ी, खूबसूरत पीए-सीए सब कुछ डी कंपनी की तरफ से। बस..तुझे करना यह है कि भारत के जितने भी नामी-गिरामी, कुख्यात-सुख्यात पत्रकार और पत्रकारिनियां हैं, उनको अपने चैनल में भर्ती करवाना। एक तेरे को छोड़कर कोई भी साफ सुथरा आदमी नक्को रखना मांगता। स्ट्रिंगर से लेकर डिप्टी चैनल हेड तक धूर्त, मक्कार, पेशेवर मुजरिम, हत्यारे होने चाहिए। जिसने दस कत्ल किए, पांच बार जेल गया, तीन बार रंगदारी वसूलते पकड़ा गया, उसको तू रिपोर्टर बना, चीफ रिपोर्टर बना, मेरे को कोई मतलब नहीं। बस, वसूली टंच होनी चाहिए। मौका लगे, तो भी दस-बीस करोड़ की आसामी पकड़ और वसूली कर। खुद कमा और चैनल को भी कमवा।’ मैंने दाउद की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘बड़े भाई! मैं एक बहुत सीधा-सादा, गली-कूंचे का मामूली व्यंग्यकार हूं। थोड़ा-थोड़ा पत्रकार भी हूं, लेकिन मैं आपका चैनल चलाने लायक नहीं हूं।’ मेरी बात सुनकर दाउद इब्राहिम मुस्कुराया और बोला, ‘देख! मेरे चैनल में भर्ती होने के लिए आवेदन नहीं करना पड़ता है। किसे रखना है, किसे नहीं रखना है, इसका चुनाव मैं करता हूं। मेरे यहं सिर्फ एप्वाइटमेंट होता है या फिर ‘ठांय’ की एक आवाज होती है और आदमी इस दुनिया से टर्मिनेट हो जाता है। इसलिए मेरी बात सुन..इंडिया जा, चैनल का हेड बनकर भर्तियां कर और चैनल आॅन एयर कर।’ इतना कहकर दाउद उठा और चला गया। उसके जाते ही पता नहीं किसने मेरे सिर   पर फिर मुष्टिका प्रहार किया और मैं बेहोश हो गया। जब होश में आया, तो अपने घर के बरामदे में पड़ा हुआ था। तो भाइयो! जिसको भी ‘डी’ चैनल में नौकरी चाहिए वह अपने आपराधिक रिकार्ड के साथ मुझे या सीधे दाउद जी को अपना सीवी भेज सकता है।

Thursday, October 10, 2013

दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा

‘न्यूज एक्सप्रेस’ मीडिया एकेडमी के साथ मिलकर जब ‘हमवतन’ ने दिल्ली की जनता की नब्ज को टटोला, तो कुछ चौंकाने वाले जवाब सामने आए हैं। मसलन, पिछले 15 सालों से दिल्ली पर राज कर रहीं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मुकाबले में तो बनी हुई हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट आई है। इसी तरह सरकार विरोधी माहौल होने के बावजूद भाजपा बहुमत से काफी दूर है। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों के  खेल को बिगाड़ रही है आप। पहली बार किसी चुनाव में भाग ले रही आप को दिल्ली के 21 प्रतिशत से ज्यादा लोग पसंद कर रहे हैं। 
70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु जनादेश की संभावना बनती दिख रही है। साप्ताहिक ‘हमवतन’ और ‘न्यूज एक्सप्रेस’ मीडिया एकेडमी द्वारा 20 सितंबर से चार अक्टूबर के बीच 7, 550 मतदाताओं के बीच कराए गए सर्वे से, जो रुझान सामने आ रहे हैं, वे त्रिशंकु विधानसभा की ओर इशारा कर रहे हैं। सर्वे के मुताबिक, दिल्ली में कांग्रेस को भारी झटका लग सकता है। सर्वे का दूसरा पहलू यह भी है कि भाजपा के तमाम दावों के विपरीत उसकी भी सरकार बनने की संभावना नहीं है। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भाजपा के बढ़ते कदमों को रोक रही है। साथ ही कांंग्रेस के भी कई इलाके आप के कब्जे में जाते दिख रहे हैं। ग्रामीण,  शहरी, इलाकों के युवाओं, बुजुर्गों और महिलाओं के बीच दरवाजे से दरवाजे किए गए सर्वे में कांग्रेस के पक्ष में 26 सीटें आती दिख रही हैं। भाजपा को भी इतनी ही सीटें मिलने की संभावना है। जबकि आप को 12 सीटें और अन्य दलों के बीच छह सीटें जाती दिख रही हैं। कांग्रेस के पक्ष में 29.8 फीसदी जनता विश्वास जता रही है, जबकि भाजपा के पक्ष में 36.75 फीसदी जनता वोट डालने के मूड में है। अभी एक साल के भीतर आंदोलन के गर्भ से निकली केजरीवाल की पार्टी आप को 21.20 फीसदी लोग पसंद कर रहे हैं, जबकि 12.25 फीसदी लोग अभी अन्य दलों या निर्दलीय पर यकीन कर रहे हैं। 
         दिल्ली के लोगों का मिजाज बदल रहा है। लगता है शीला दीक्षित के शासन से लोग ऊब से गए हैं। दिल्ली में 15 सालों में जो विकास हुए हैं, उससे लोग गदगद तो हैं, लेकिन महंगाई और भ्रष्टाचार की वजह से दिल्ली की जनता अब शीला दीक्षित की जगह केजरीवाल को ज्यादा तरजीह दे रही है। केजरीवाल को मुख्यमंत्री के रूप में 35.35 फीसदी जनता पसंद कर रही है,  जबकि शीला दीक्षित को अगले मुख्यमंत्री के लिए 29.4 फीसदी और विजय गोयल को मात्र 27 फीसदी लोग पसंद कर रहे हैं।
दिल्ली की जनता भले ही इस चुनाव में भाजपा को पसंद कर रही है, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल को ज्यादा तरजीह दे रहे है। भाजपा को वोट देने वाले करीब 15 फीसदी ऐसे लोग हैं, जो सीएम के रूप में केजरीवाल को पसंद कर रहें हैं। इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि जिन विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के बड़े नेता अब तक चुनाव जीतते रहे हैं, वहां उनके खिलाफ लोगों में ज्यादा गुस्सा है। करीब दर्जन भर कांग्रेस की सीटें ऐसी हैं, जहां बड़े स्तर पर उलटफेर की संभावना है। कांग्रेस के चार मंत्रियों की हार तय मानी जा रही है, क्योंकि उनके इलाके में कहीं भाजपा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है, तो कहीं केजरीवाल के प्रति। 
चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली में भाजपा के प्रति जिन लोगों की रूचि बढ़ी है, उसके  लिए मोदी फैक्टर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। आठ विधानसभा ऐसे पाए गए हैं, जहां केवल मोदी के नाम पर भाजपा की जीत होती दिख रही है।
   हालांकि जनता क ा रुझान चुनाव होते-होते बदलते रहते हैं, लेकिन इस सर्वे से यह पता चलता है कि दिल्ली में जो 15 सालों में विकास हुए हैं, वह भ्रष्टाचार और महंगाई के नीचे दबते दिख रहे हैं। शीला आज भी लोगों की पसंद हैं और लोग मानते भी हैं कि दिल्ली में विकास हुए हैं, लेकिन महंगाई, बेकारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने कांग्रेस की जमीन को कमजोर किया है।
     सर्वे में कुछ अलग-अलग पहलुओं पर भी लोगों की राय जानने की कोशिश की गई। कांग्रेस से अगले मुख्यमंत्री के रूप में कौन बेहतर साबित हो सकता है? इस सवाल के जवाब में जो लोगों की राय मिली है, उसमें कांगे्रस के भीतर शीला दीक्षित सबसे ऊपर हैं।
31 फीसदी लोग शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, सुभाष चोपड़ा को 11 फीसदी लोग पसंद कर रहे हैं। 22 फीसदी लोगों की पसंद मुख्यमंत्री के रूप में जयप्रकाश अग्रवाल हैं, तो 36 फीसदी लोगों ने किसी अन्य को मुख्यमंत्री बनाने की बात कही है।
यही हाल भाजपा के भीतर भी है। हालांकि भाजपा ने अभी अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है, लेकिन जिस तरह से प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल को प्रोजेक्ट करने की बात हो रही है, वह भाजपा के पक्ष में नहीं है। विजय गोयल को मुख्यमंत्री के रूप में 24 फीसदी लोग पसंद कर रहे हैं, जबकि 47 फीसदी लोग सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाह रहे हैं। भाजपा अगर सुषमा स्वराज के नजरिये से चुनाव को देखती है, तो भाजपा को और सीटें मिलने की संभावना बढ़ सकती है। 11 फीसदी लोग हर्षवर्धन को और 18 फीसदी लोग किसी अन्य को भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में पसंद कर रहे हैं।
  दिल्ली के इस सर्वे में भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार अन्य संभावित प्रधानमंत्री प्रत्याशियों में सबसे आगे निकलते दिख रहे हैं। दिल्ली की 52.7 फीसदी जनता मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनाने के  पक्ष में हैं, दूसरे नंबर पर राहुल गांधी हैं। उनके पक्ष में 28.15 फीसदी जनता खड़ी है। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बने, इसकी चाहत 6.25 फीसदी लोगों में है। दिल्ली के इस सर्वे में छह फीसदी लोग बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, जबकि लालकृष्ण आडवाणी के पक्ष में तीन फीसदी और मुलायम सिंह यादव और मायावती के पक्ष में दो-दो फीसदी लोग समर्थन में हैं। 



सर्वे रिपोर्ट
‘हमवतन’ एवं ‘न्यूज एक्सप्रेस’ मीडिया एकेडमी द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव पर सर्वे-2013
-सर्वे की अवधि ( 20 सितंबर से 04 अक्टूबर)
-कुल विधानस सीट- 70
-कुल जनमत संग्रह- 7550
पार्टी             लोगों की राय (में)                संभावित सीटें
कांग्रेस              29.8             -             26
भाजपा              36.75            -             26
आप                21.20            -              12
अन्य                12.25            -              6
   -  त्रिशंकु विधानसभा के आसार
- कांग्रेस को हानि, भाजपा की बढ़त पर झाडू का अडंÞगा
- किसी भी दल को बहुमत नहीं
भाजपा में सीएम के रूप में कौन है
जनता की पसंद (प्रतिशत में) 
विजय गोयल -     24 
हर्षवर्धन-           11
सुषमा स्वराज-       47
अन्य-              18
युवाओं की पसंद
मोदी -           58
राहुल -           42

महिलाओं की पसंद 
राहुल  -            62
मोदी-               48
कांग्रेस में सीएम के रूप में जनता की पसंद (प्रतिशत में) 
शीला दीक्षित  -        31 
सुभाष चोपड़ा -         11
जयप्रकाश अग्रवाल-      22
अन्य         -        36

देश का प्रधानमंत्री कौन बने? लोगों की राय (प्रतिशत में) 
नरेंद्र मोदी-            52.7 
राहुल गांधी-           28.15
सोनिया गांधी-         6.25
नीतीश कुमार-          6
लालकृष्ण आडवाणी-     3
मुलायम सिंह यादव-     2
मायावती        -      2
दिल्ली का मुख्यमंत्री कौन बने, इस पर जनता की राय (प्रतिशत में)
केजरीवाल      -       35.35
शीला दीक्षित    -       29.4
विजय गोयल   -        27.05

पार्टियों के बारे में लोगों की राय

प्रश्न 05 -  सबसे भ्रष्ट पार्टी लोगों की नजर में
    कांग्रेस      भाजपा      सभी पार्टियों
     48         41          11

प्रश्न 07 - दिल्ली की प्रमुख समस्या लोगों की नजर में
    भ्रष्टाचार      बेरोजगारी     पानी/बिजली     महिलाओं से छेड़छाड़
    48           28           17              7
प्रश्न 08 - क्या अपराधियों को टिकट मिलना चाहिए?
   नहीं           हां       नहीं पता
   87            3        10
प्रश्न 10 - दिल्लीवासियों की नजर में देश की समस्या
  भ्रष्टाचार   आतंकवाद    बेरोजगारी   महंगाई
  41        20        33           14
प्रश्न 11 -लोगों की नजर में राजनीति कैसी हो?
  सेक्युलर      धार्मिक    विकास 
   83         11        6
 प्रश्न- 12 -किस आधार पर वोट देंगे
  पार्टी के नाम पर               उम्मीदवार के नाम पर 
   78                          22
 प्रश्न -13-विकास के बारे में दिल्ली की जनता की राय 
 विकास हुआ है          विकास नहीं हुआ          नहीं जानते
  73                       18                           9
 प्रश्न -14 क्या शीला दीक्षित को हटना चाहिए? 
  हां              नहीं                 नहीं जानते
  46              49                   5
प्रश्न - 16 क्या आप अपने विधायक से खुश हैं?
  हां             नहीं                   पता नहीं
  34             57                    9
प्रश्न- 19 दिल्ली पुलिस का कार्य कैसा है? 
 अच्छा          बेकार               मालूम नहीं
  33            52                15
प्रश्न - 20 देश के दूसरे इलाके में हाल में हुए दंगे जनता की नजर में
 राजनीतिक      सांप्रदायिक         नहीं जानते 
   73           22                5

Tuesday, October 8, 2013

महिलाओं का ‘राइट टू रिजेक्ट’

-अशोक मिश्र 
रविवार को सुबह थोड़ी देर से उठा। उठते ही घरैतिन के सुलोचनी चेहरे के दर्शन नहीं हुए, तो मैंने अपनी बेटी से पूछा, ‘तेरी मां नहीं दिखाई दे रही है। कहीं मेरे देर तक सोते रहने के विरोध में धरने-वरने पर तो नहीं बैठ गई हैं।’ बारह वर्षीय बेटी ने पानी के साथ चाय का प्याला पकड़ाते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘नहीं पापा! आज सुबह से ही मोहल्ले की आंटीज आई हुई हैं। उन्हीं से बातें कर रही हैं। शायद उनकी छोटी-मोटी बैठक हो रही है।’ मैंने पानी पीने के बाद चाय का प्याला उठाया और बरामदे की ओट में कुर्सी लगाकर बैठकर अखबार पढ़ने लगा। दीवार के दूसरी तरफ थोड़ा सा खुला स्थान था, जहां पड़ी पांच-छह कुर्सियों पर ये महिलाएं विराजमान थीं। पड़ोस वाली मिसेज सुलोचना कह रही थीं, ‘जिज्जी! यह तो गलत है न! सारे मर्द एक जैसे नहीं होते। माना कि मेरा मर्द थोड़ा टेढ़ा है। दिन में एक बार जब तक ‘तू-तू, मैं-मैं’ नहीं कर लेता, तब तक उसे खाना नहीं हजम होता। लेकिन प्यार भी तो कितना करता है। सबके सामने भले ही गुर्राए, लेकिन बाद में कान पकड़कर माफी भी तो मांगता है। थोड़ी-सी बात पर पति को रिजेक्ट कर देना शायद सही नहीं होगा। पति को रिजेक्ट करने का राइट मिलते ही कई बार ‘राइट’ भी रिजेक्ट हो जाएंगे। यह तो बेचारे पति पर अत्याचार होगा न!’
मिसेज सुलोचना की बात पूरी होने से पहले ही चंदेलिन भाभी ने कहा, ‘ज्यादा ‘म्याऊं म्याऊं’ मत करो। अभी पिछले हफ्ते ही दारू पीकर आया था, तो किस तरह तुम्हें और बच्चो ंको रुई की तरह धुन कर रख दिया था। तब तुम किस तरह बछिया की तरह बिलबिला रही थीं। वह तो कहो कि अंकिता के पापा मेरा थोड़ा लिहाज करते हैं, तो उसने तुम्हें पीटना बंद कर दिया था। बड़ी आई भतार की तरफदारी करने वाली। चंदेल मुझे बात-बात पर आंख दिखाते हैं। घर से निकाल दूंगा, खाना-कपड़ा मैं देता हूं, जैसा कहता हूं, वैसा करो। कई बार तो ‘हत्तेरे की, धत्तेरे की’ भी हो जाती है। सोचो, अगर हम औरतों के पास राइट टू रिजेक्ट जैसा हथियार होता, तो क्या चिंटू के पापा, बबिता के पापा, सोनी के पापा, नमिता के पापा हम औरतों को आंख दिखा पाते। मैं तो कहती हूं कि ज्यादा सोच-विचार करने से कोई फायदा नहीं। सीधे चलते हैं मुख्यमंत्री आवास, वहां मुख्यमंत्री की पत्नी के नेतृत्व में धरना प्रदर्शन करते हैं। वहां भी बात न बने, तो सीधे दिल्ली चलते हैं। प्रधानमंत्रानी (प्रधानमंत्री की पत्नी) को ज्ञापन सौंपते हैं और उनसे कहते हैं कि जब तक यह बिल संसद में पास नहीं होता, तब तक वे भी सारे कामों में हड़ताल रखें।’ चंदेलिन ने ‘सारे’ शब्द पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया। चंदेलिन की बात सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैं समझ गया कि अगर ये महिलाएं सफल हो गईं, तो हम पुरुषों के सिर पर गाज गिरने वाली है। बदहवासी में अखबार मेरे हाथ से छूटकर गिर गया। मैं कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा।
‘जिया..(जिज्जी का अपभ्रंश)..राइट टू रिजेक्ट मामले को काफी ठोंक-बजा लेना ही ठीक होगा। कहीं ऐसा न हो कि लेने के देने पड़ जाएं।’ यह मेरी पत्नी की आवाज थी। वह कह रही थीं, ‘अब मेरा ही उदाहरण लो। वैसे तो हम दोनों में कोई मतभेद ज्यादा दिन तक नहीं टिकता। कारण कि जिस दिन बात ‘तू-तू, मैं-मैं’ और हाथापाई तक पहुंचती हैं, तो मैं भी पीछे नहीं रहती। वे एक जमाते हैं, तो आधा जमाने में मैं भी पीछे नहीं रहती। थोड़ी देर मुंह फुलाकर हम दोनों मामले को रफा-दफा कर देते हैं। कई बार मैं ही पहल कर लेती हूं, तो कभी वे। नहीं हुआ, तो बच्चे बीच में आकर समझौता करवा देते हैं। अगर राइट टू रिजेक्ट लागू हो गया, तो जाहिर सी बात है कि मैं दबंग हो जाऊंगी। अभी तो वे एक सुनाते हैं, तो मैं दो सुनाकर अपने काम में लग जाती हूं। जब एक बार रिजेक्ट कर दूंगी, तो फिर क्या होगा? फिर तो...?’ घरैतिन के ‘तो...’ कहते ही वहां सन्नाटा छा गया। मुझे भी गुस्सा आया, ‘जो बात पर्दे के भीतर रहनी चाहिए, वह भी यह सारे मोहल्ले की औरतों के बीच बैठी गा रही है। मेरी क्या इज्जत रह जाएगी इन औरतों के सामने?’ मन ही मन मैंने भगवान से दुआ की, ‘हे भगवान! सबसे पहले तो मुझे ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार दिला दो, ताकि इस बददिमाग औरत की अकल ठिकाने लगा दूं।’
‘सुनौ रामू की अम्मा! यह चोंचला छोड़ो। जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो। हमने तो अपनी जिंदगी ऊंच-नींच, नरम-गरम काट लई। अब बुढ़ापे मा बुढ़वा का कैसे छोड़ देई। मर्द को छोड़ना-रखना, कोई बच्चों का खेल है क्या?’ मेरे घर के पीछे रहने वाली रामदेई काकी की यह आवाज थी, ‘ई पंडिताइन बहूरिया, ठीक कहती हैं। एक बार छोड़ै के बाद कौन मुंह लेकर उनके सामने जाएंगे।’ चंदेलिन गरजती हुई आवाज में बोलीं, ‘काकी! आपकी जिंदगी बीत गई, इससे आप सोचती हैं कि मुझे क्या लेना देना है राइट टू रिजेक्ट का। आप उन बहिनों के बारे में सोचो, जिनकी जिंदगी इन मर्दों ने नरक बना दी है। और जहां तक मर्दों के साथ होने वाले अत्याचार की बात है, तो हम सरकार से राइट टू रिकाल का भी हक साथ ही मांग रहे हैं न! अगर ऐसा लगा कि हमसे कोई गलत फैसला हो गया है, तो दूसरे हाथ में उन्हें वापस बुलाने का अधिकार तो रहेगा ही। देखो काकी! आप चाहे जो कहो, अब हम औरतों को राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल के   हक से कोई महरूम नहीं कर सकता। हम इसे लेकर रहेंगे। भले ही इसके लिए कुछ भी करना पड़े।’ इसके बाद चीनी मिट्टी के बने कप-प्लेटों के खड़कने की आवाज आने लगी। इससे मुझे लगा कि बेटी ने वहां उपस्थित महिलाओं को चाय देना शुरू कर दिया है। मैं समझ गया कि इनकी सभा समाप्त हो गई है। मैं उठकर अपने नित्य के काम में लग गया।

Tuesday, October 1, 2013

‘लातयोग’ की आशंका

-अशोक मिश्र
उस्ताद गुनहगार के घर पहुंचा, तो देखा कि ज्योतिषाचार्य मुसद्दीलाल मेज पर अपना पोथी-पत्रा बिछाए गंभीर चिंतन में डूबे हुए हैं। मुझे देखकर भी उन्होंने अनदेखा कर दिया और अपनी गणना में लगे रहे। कभी वे कुछ अंगुलियों पर गिनते, कभी सामने रखे पासे को गुनहगार की जन्मपत्री पर फेंकते और जो नंबर आता, उसे नोट करके फिर जोड़ने-घटाने लगते। मुझे देखते ही उस्ताद गुनहगार चुपचाप एक कोने में बैठ जाने का इशारा किया। चरण स्पर्श करने पर सिर्फ बुदबुदाकर रह गए। मैंने कहा, ‘उस्ताद! अपनी जन्म पत्री सुधरवा रहे हैं क्या? जन्म पत्री सुधरवाने से आप कोई पीएम इन वेटिंग नहीं हो जाएंगे। आप पाकेटमार हैं, पाकेटमार ही रहेंगे।’
मेरी बात सुनते ही उस्ताद गुनहगार बमक (भड़क) उठे, ‘तुम अपनी चोंच बंद ही रखो, तो अच्छा है। हर मामले में टांग अड़ाना अच्छा नहीं होता। कभी-कभी टांग टूट जाया करती है।’  मैं उस्ताद की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। मैंने विनीत स्वर में कहा, ‘उस्ताद! कोई खता हुई क्या? मैंने तो सिर्फ परिहास किया था।’ मेरे अढतालिस कैरेटी विनय को देखते हुए उनका लहजा सहज हुआ। वे बोले, ‘चुपचाप कुछ देर बैठो। पंडित जी को अपना काम करने दो।’ मैंने गांधी जी के एक बंदर की तरह अपना मुंह दोनों हाथों से बंद किया और चुपचाप एक कोने में बैठ गया। ज्योतिषाचार्य मुसद्दीलाल पता नहीं क्या ‘अगड़म-बगड़म’ बुदबुदाते रहे और अंगुलियों पर गिनती करते रहे। काफी देर बाद वे गंभीर स्वर में बोले, ‘उस्ताद जी! आपकी कुंडली में राजयोग तो है, लेकिन थोड़ा वक्री है। सातवें घर में बैठे बुध, तीसरे घर में बैठे शुक्र और नवें घर में बैठे चंद्र एक सीध में आते से दिख रहे हैं, लेकिन बुध के थोड़ा-सा तिरछा हो जाने से राजयोग वक्री हो गया है। अगर आपकी कुंडली का बुध सातवें के बजाय छठवें घर में होता, तो सन 2014 का राजयोग आपकी ही किस्मत में लिखा था। न तो पप्पू आपका मुकाबला कर सकता है, न फेंकू। दोनों टुकुर-टुकुर सत्ता सुंदरी को सिर्फ ताकते रह जाते और सत्ता सुंदरी आगे बढ़कर आपके गले में जयमाल डालकर आपका वरण कर लेती।’ मुसद्दीलाल की बात सुनकर उस्ताद गुनहगार घबरा गए। उन्होंने कमरे की बाहर बने किचन की ओर ताकते हुए कहा, ‘क्या पंडित जी! प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मेरा जनाजा निकालने का इरादा है क्या? यह जयमाल, भयमाल और वरण-शरण की उपमा से बाज आइए। कहीं इस घर की मालकिन ने सुन लिया, तो देश में ‘राइट टू रिकॉल’ लागू हो या नहीं, इस घर में अवश्य लागू हो जाएगा। अभी कल ही मेरी एक अदद बीवी कह रही थी कि अगर हम औरतों को भी शादी-विवाह के मामले में ‘राइट टू रिकॉल’और ‘राइट टू रिजेक्ट’ जैसे अधिकार मिले होते, तो मैं आपको कबका रिजेक्ट कर चुकी होती। आपको जो कहना हो, सीधे-सीधे कहिए। बातों की जलेबी मत बनाइए।’
गुनहगार की बात सुनकर मुझे हंसी आ गई। पिटने के डर से ठहाका लगाने के बजाय थोबड़े पर बत्तीस इंची मुस्कान सजा ली। ज्योतिषी मुसद्दीलाल ने हड़बड़ाते हुए कहा, ‘बात दरअसल यह है, उस्ताद जी! दूसरे घर में बैठा राहु आपकी अंतरात्मा पर भारी पड़ रहा है जिसके चलते निकट भविष्य में ‘लातयोग’ की आशंका है। यह लात आपको पार्टी से भी पड़ सकती है और जीवन संगिनी से भी। आपका पांचवें घर में बैठे बृहस्पति की आपके पूर्वजन्म से ही दसवें घर में जमे बैठे केतु से नजर लड़ रही है। केतु और बृहस्पति की यह युगलबंदी आपको किसी परस्त्री से छेड़छाड़ का आरोपी बना सकती है। याचक, अगर तीन सप्ताह तक किसी स्त्री से मिलने परहेज कर सकें, तो संभव है कि वक्री राजयोग सीधा हो जाए। यहां तक कि अपनी व्याहता पत्नी से भी।’ मुसद्दीलाल की बात सुनकर उस्ताद गुनहगार को गुस्सा आ गया, ‘अबे तुझे ज्योतिषी किसने बना दिया है। तू राजयोग से पहले मृत्युयोग की व्यवस्था कर रहा है। तीन सप्ताह क्या, एक भी दिन अगर पत्नी से नहीं मिला, तो वह शक के आधार पर मेरी हत्या कर देगी। प्रधानमंत्री बनने से पहले ही स्वर्गवासी हो जाऊंगा। एक तो उसे मेरे अच्छे चालचलन को लेकर पहले से ही शक है। बात-बात पर ताने मारती है। किसी महिला से बात भी कर लूं, तो तीन दिन तक घर में चूल्हा तक नहीं चलता। तीन सप्ताह गायब रहा, तो मेरी क्या गति-दुर्गति होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। आप सुबह से बहुत भेजा खा चुके, दिमाग ही पंचर कर दिया सुबह-सुबह। आप अपनी दक्षिणा लीजिए और दूसरा शिकार पकड़िये। मुझे नहीं बनना है पीएम-शीएम।’ इतना कहकर  उस्ताद गुनहगार ने ग्यारह रुपये मुसद्दीलाल की दायीं हथेली पर रखे और हाथ जोड़ लिए। मैं बैठा-बैठा यह तमाशा देखता रहा।