Thursday, February 7, 2013

उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश


मित्रो! पिछले काफी दिनों से एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं। काफी समय हो गया है, इस पर काम करते हुए। पिछले एक साल से सुस्त सा हो गया था, लेकिन इधर फिर से उसमें जुट गया हूं। उम्मीद है कि तीन-चार महीने में इसे पूरा करने में सफल हो जाऊंगा। क्या करूं, पापी पेट की आग बुझाने के लिए नौकरी भी करनी पड़ती है। ज्यादातर समय आफिस में ही निकल जाता है, फिर बाकी बचा समय खाने-पकाने में। सोने से बचे समय में अब मैं अपने उपन्यास को पूरा करने का भरपूर प्रयास करूंगा। पत्रकारिता पर आधारित इस उपन्यास का नाम रखा है ‘चिरकुट’। बानगी के तौर पर पेश है उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश। 
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चिरकुट
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दिन भर की भाग दौड़ के बाद शिवाकांत आफिस पहुंचा। उसने साथियों का बेमन से अभिवादन किया और बैठकर अपना काम निपटाने लगा। आशीष ने शिवाकांत की आंखों में उदासी और निराशा की झलक देख ली थी, लेकिन उसने कुछ कहना उचित नहींसमझा। चिकित्सा और शिक्षा मामलों की बीट देखने वाले अरविंद चौधरी ने शिवाकांत के पास जाकर कहा, ‘क्या बात है, सर! आज कुछ ज्यादा ही गंभीर लग रहे हैं। आते ही काम में जुट गये। रोज की तरह न कोई हंसी, न मजाक, न कोई चुटकुला। घर-परिवार में सब खैरियत तो है?’
अपनी खबरें कंपोज करती मंजरी अग्रवाल बोल पड़ी, ‘बस दो मिनट...शिवाकांत सर...सोलह-सत्रह लाइन की खबर है, उसे पूरी कर लूं। फिर मैं भी आपका चुटकुला सुनूंगी। प्लीज सर...अभी मत सुनाइएगा।’
शिवाकांत ने अपनी खबरों की सूची तैयार करते हुए कहा, ‘नहीं... कोई खास बात नहीं है। यह सब तो मीडिया जगत में होता रहता है।’
शिवाकांत की बात सुनकर आशीष चौकन्ना हो गया। वह समझ गया कि आज कोई ऐसी घटना जरूर घटित हुई है जिसने शिवाकांत को भीतर तक आहत किया है। सच और सनक की खातिर किसी से भी भिड़ जाने वाला शिवाकांत अगर गंभीर है, तो जरूर कोई बड़ी बात है। पिछले दस-बारह साल से अपराध बीट देखने वाले शिवाकांत का मन भीतर से बहुत कोमल था...बिल्कुल किसी गौरेया के नन्हे बच्चे की तरह। मानवीय मूल्यों के ह्रास और रिश्तों को कलंकित करने वाली खबरों को लिखते समय अपनी भावनाएं भी उड़ेल देता था। मुख्य खबर के साथ साइड स्टोरियां इतने मार्मिक ढंग से लिखता कि लोग उसकी लेखनी के कायल हो जाते। आशीष ने अपना काम बंद कर दिया और शिवाकांत के पास खाली पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा, ‘क्या बात है? कुछ तो बताओ। दस-पंद्रह दिन पहले बता रहे थे कि बाबू जी की तबीयत खराब है। क्या उन्हें कुछ हुआ है? भाभी जी या बच्चों को कोई तकलीफ तो नहींहै?’
शिवाकांत ‘की बोर्ड’ पर अंगुलियां रखे कंप्यूटर स्क्रीन को घूर रहा था। उसने कहा, ‘आशीष भाई! मुझसे आज पाप हो गया।’
‘क्याऽऽऽ...?’ आशीष के मुंह से सिर्फ यही निकला। शिवाकांत के कथन ने कमरे में धमाका कर दिया था। स्थआनीय डेस्क पर काम कर रहे सभी लोगों की अंगुलियां ‘की बोर्ड’ पर पहले स्थिर हुईं और फिर सबके चेहरे शिवाकांत की ओर घूम गये।
शिवानी भटनागर की आश्चर्य की अधिकता के कारण कांपती आवाज गूंजी, ‘यह आप क्या कह रहे हैं? कैसा पाप हो गया है?’
सबके चेहरे पर उत्सुकता मिश्रित आश्चर्य था। सभी जानना चाह रहे थे कि आखिर शिवाकांत से ऐसा कौन-सा पाप हो गया है जिसने उसे इस कदर उद्वेलित कर दिया है कि उसे सबके सामने स्वीकार करना पड़ रहा है। कमरे में क्षणभर को निस्तब्धता छा गयी थी। किसी को सूझ नहीं रहा था। सब मौन शिवाकांत के बोलने की प्रतीक्षा में थे।
शिवाकांत ने शांति भंग की, ‘हां...मुझसे पाप हो गया। मुधे प्रत्युष त्रिपाठी को सीओ हजरतगंज से कहकर गिरफ्तार करवाना पड़ा।’
शिवाकांत के इतना कहते ही कमरे में दूसरा धमाका हुआ। इस बार आशीष के मुंह से तो कोई बोल नहीं फूटा, लेकिन मंजरी, शिवानी सहित कई लोगों ने लगभग एक साथ कहा,‘क्याऽऽऽ...’
‘शिवाकांत...यह तुमने क्या किया...।’ आशीष ने दुख भरे स्वर में उलाहना दिया। बाकी सभी सकते की सी हालत में अपने स्थान पर बैठे रहे।
‘हां..मुझे यह पाप करना पड़ा क्योंकि मैं इस अखबार में नौकरी करता हूं। इस अखबार के मालिक राय साहब चाहते थे कि मैं प्रत्युष त्रिपाठी को गिरफ्तार करवाऊं।’ शिवाकांत रुआंसा हो गया।
कमरे में उपस्थित सभी रिपोर्टर और संपादकीय डेस्क के साथी आश्चर्य से अब तक मुक्त हो चुके थे। परिमल जोशी ने कहा, ‘लेकिन प्रत्युष जी ने भी कोई अच्छा तो किया नहीं था। संस्थान का डेढ़ लाख रुपये डकार गये थे। विज्ञापनदाताओं से फर्रुखाबाद में रुपये वसूलते रहे और संस्थान को देने की बजाय अपनी जेब भरते रहे। संस्थान ने जब मांगा, तो ठेंगा दिखा दिया।’
प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र शर्मा ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन संस्थान ने भी तो उनके साथ कौन-सा भला व्यवहार किया था। इस मामले में थोड़ी बहुत सुनगुन मुझे भी है। सुना है कि त्रिपाठी जी को अट्ठारह हजार रुपये मासिक वेतन, तीन हजार रुपये आवास, डेढ़ हजार रुपये फोन के मद में देने का आश्वासन देकर संस्थान में लाया गया था। दो महीने तक तो इन आश्वासनों को पूरा किया गया, लेकिन तीसरे महीने आवास और फोन के मद में दिया जाने वाला पैसा न केवल बंद कर दिया गया, बल्कि मासिक वेतन भी बारह हजार रुपये कर दिया गया। नियुक्ति पत्र में भी धांधली की गयी। मुख्य संवाददाता की बजाय वरिष्ठ संवाददाता का पद दिया गया। यह तो सरासर बेईमानी है।’
काफी देर से चुप बैठे डॉ. दुर्गेश पांडेय ने चश्मे को नाक पर समायोजित करते हुए कहा, ‘यह बेईमानी नहीं थी। दरअसल, संस्थान ने जिन अपेक्षाओं के चलते यह पैकेज देने का फैसला किया था, उन पर वे खरे नहीं उतरे। यहां सवाल बेईमानी का नहीं,   उपयोगिता का है। प्रत्युष अपनी उपयोगिता  नहीं सिद्ध कर पाये। उनके साथ जो कुछ हुआ, कम से कम मैं गलत नहीं मानता।’
‘आपके मानने या न मानने से क्या होता है। आप तो प्रबंधकों की भाषा बोलने लगे। जित तरह का व्यवहार प्रत्युष त्रिपाठी के साथ किया गया था, अगर खुदा न करे...कल आपके साथ वही हो, तब भी आप कहेंगे कि प्रबंधकों और मालिकों ने जो किया, सही किया। कोई कुछ भी कहे, आज शिवाकांत ने जो किया, वह बहुत गलत हुआ।’ आशीष ने तल्ख स्वर में डॉ. दुर्गेश से कहा।
शिवाकांत ने भीगे स्वर में कहा, ‘पिछले बीस दिन से मुझ पर लगातार दबाव डाला जा रहा था कि प्रत्युष जी को गिरफ्तार करवाकर जेल भिजवा दूं। मैंने चिंतामणि राय जी को समझाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने। उनकी बस एक ही जिद थी कि वे डेढ़ लाख रुपये हजम कर जाने वाले को जेल भिजवा कर रहेंगे। भले ही इसके लिए तीन-चार लाख रुपये खर्च करने पड़ें। वे चार-पांच लाख रुपये और खर्च करने को तैयार थे, लेकिन वे डेढ़ लाख रुपये को भूलने को तैयार नहीं थे। प्रकारांतर से मुझे भी धमकाया गया कि अगर मैंने यह सब कुछ नहीं किया, तो मैं इस संस्थान में नौकरी नहीं कर पाऊंगा। मैं बेहतर है कि अभी से कोई दूसरा दरवाजा देख लूं।’
‘मतलब यह कि आपने अपनी नौकरी बचाने के लिए त्रिपाठी जी को गिरफ्तार करवा दिया।’ मंजरी अग्रवाल की घूरती निगाहों को शिवाकांत अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। तीन साल पहले एक दैनिक अखबार में प्रत्युष त्रिपाठी के साथ काम कर चुकी मंजरी इस घटना से आहत थी।
वैसे एकाध लोगों को छोड़कर कमरे में मौजूद सभी इस घटना से दुखी थे। प्रत्युष त्रिपाठी का नाम मीडिया जगत में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। पचपन वर्षीय प्रत्युष जी पिछले बत्तीस साल से पत्रकारिता जगत में सक्रिय थे। एक दैनिक अखबार में प्रशिक्षु रिपोर्टर के रूप में कैरियर की शुरुआत करने वाले प्रत्युष जी ने कभी पैसे और कैरियर की परवाह नहींकी।  नौकरी उनकी आजीविका की साधन जरूर थी, लेकिन साध्य नहीं। मान-सम्मान को उन्होंने हमेशा ऊपर रखा। कई बार तो वे चपरासियों के लिए मालिक या संपादक से भिड़ जाते थे। उन्हें अखबार में होने वाली राजनीति से कोई सरोकार नहीं था। वे अपने से कनिष्ठ संवाददाताओं और उप संपादकों को सिखाने-समझाने ेसे पीछे नहीं हटते थे। जो भी उनके पास अपनी समस्याओं को लेकर गया और कहा, ‘दद्दा जी, इस खबर को देख लें। इसका एंगल सही है या नहीं।’ तो दद्दा न केवल उसे गंभीरता से पढ़ते, बल्कि उसमें आवश्क सुधार करवाते। कई बार तो अपने कनिष्ठ साथियों की कापियां देखकर झुंझलाते, उससे कई बार लिखवाते। इस पर भी अपेक्षित सुधार नहीं होता, तो वे खीझ उठते, ‘अबे गधे! तेरी मोटी बुद्धि में कुछ घुसता भी है या नहीं।’ यह उनका तकिया कलाम था। जिससे यह बात कही जाती, वह या तो दांत निपोर देता या सिर खुजाने लगता। इन सबके बावजूद उनके मन में किसी के प्रति दुराग्रह नहीं पैदा होता। वे यह मानने वाले जीव थे कि ‘न जानना कोई अपराध नहीं, लेकिन न जानते हुए भी जानने का ढोंग करना, अक्षम्य है।’ उनके साथ  काम कर चुके अपराध संवाददाताओं की एक लंबी फेहरिश्त थी जो विभिन्न अखबारों में काम कर रहे थे। उनके सिखाये कई अपराध संवाददाता अपने संस्थान में महत्वपूर्ण पदों पर थे। शिवाकांत ने भी कई साल तक प्रत्युष त्रिपाठी की शार्गिदी की थी।
‘मैं पिछले बीस दिन से किन तनावों में जी रहा था, आप लोगों को नहीं बता सकता। कई बार सोचा कि नौकरी छोड़ दंूं। लेकिन विकल्पहीनता के चलते मुझे यह पाप करना पड़ा। हजरतगंज कोतवाली इंचार्ज उन्हें गिरफ्तार करने को ही तैयार नहीं था। वह तो कह रहा था कि त्रिपाठी जी का रसूख कोई कम तो है नहीं। आज भले ही फर्रुखाबाद में रह रहे हों, लेकिन कल को फिर लखनऊ रहने आ गये, तब...? कल को तुम्हींलोग मुझे बुरा कहोगे। तुम्हारे कहने से त्रिपाठी जी को गिरफ्तार करके शहीदों में अपना नाम क्यों लिखाऊं। इधर मैं उन्हें गिरफ्तार करूंगा, उधर उन्हें बीस पत्रकार छुड़ाने पहुंच जायेंगे। फिर कल के अखबारों में मैं विलेन की तरह पेश किया जाऊंगा। मैं जान-बूझकर आग से क्यों खेलूं।’ शिवाकांत साथियों के सामने सफाई पेश करने की कोशिश कर रहा था। इसके पीछे उसका अपराधबोध था या साथियों के सामने अपने कृत्य को सही साबित करने की मंशा, यह आशीष गुप्ता सहित अन्य साथी नहीं समझ पा रहे थे।
मंजरी अग्रवाल कहने से नहीं चूकी, ‘लेकिन भाई जी, आप चाहे जो कहें। आपके हाथों हुआ बिल्कुल गलत। एकदम गुरु द्रोणाचार्य के वध जैसा। अगर आपने नौकरी के दबाव में यह सब किया है, जैसा कि आप कह रहे हैं, तो भी न्यायपूर्ण नहीं है। यह सब कहने से न तो आपका अपराध कम हो सकता है, न ही कलंक धुल सकता है।’
मंजरी की बात पूरी होने से पहले ही कमरे में सुप्रतिम ने प्रवेश किया। उसने सब पर एक निगाह डालते हुए कहा, ‘शाबाश शिवाकांत! तुमने तो इतिहास रच दिया। देखना, इस बार तुम्हारा प्रमोशन और बंपर इंक्रीमेंट पक्का है। वाकई मजा आ गया।’
सुप्रतिम की बात सुनकर परिमल और दुर्गेश पांडेय के चेहरे पर कुटिल मुस्कान दौड़ गयी। वे समझ गये कि सुप्रतिम का मंतव्य क्या है। सब कुछ जानते हुए भी परिमल ने पूछा, ‘सर, कुछ हमें भी बताएंगे या खुद मन ही मन लड्डू फोड़ते जायेंगे।’
‘हाय मेरे भोले बलम...मैं मर जांवा...अब भी नहीं समझ पाये। अरे मैं उसी साले बुड्ढे प्रत्युष त्रिपाठी की बात कर रहा हूं जिसकी गिरफ्तारी का तुम लोग पिछले दस-पंद्रह मिनट से रोना रो रहे हो। रुदाली की तरह छाती पीट रहे हो।’ सुप्रतिम का स्वर तेज और तल्ख हो उठा, ‘दस मिनट से तो मैं दरवाजे पर खड़ा रुदाली विलाप सुन रहा हूं। चला था हरामखोर दैनिक प्रहरी का डेढ़ लाख   रुपये मारने। आज साले की अच्छी छीछालेदर हुई।’
शिवाकांत यह सुनकर भी चुप रहा। शिवानी भटनागर से रहा नहीं गया। वह बोल उठी, ‘अगर आप अच्छे इनसान नहीं बन सके, तो कम से कम अच्छे पत्रकार तो बन गये होते। संपादक और मालिक की चमचागिरी करते-करते आप इंसानियत का तकाजा भी भूल गये। आपको क्या हो गया है।’
‘मेरी प्रतिबद्धता अपने अखबार और उसके मालिक के प्रति है। एक बात मेरी समझ में नहीं आता कि आप लोग उस ‘न्यूरोसिस्टो सरकोसिस’ से इतनी सहानुभूति क्यों रखते हैं?’
‘भाई साहब...यह न्यूरोसिस्टो सरकोसिस क्या बला है? यह किस भाषा की गाली है?’
‘यह विशुद्ध अंग्रेजी गाली है। इसका मतलब है सुअर के गू का कीड़ा। अमानत में खयानत करने वाला व्यक्ति सुअर की विष्ठा में पड़े कीड़े से भी बदतर होता है। संस्थान आप पर विश्वास करता है, आपको जिम्मेदारी सौंपता है, तो आप संस्थान को यह सिला देंगे। उसका पैसा मार लेंगे। ऐसे नमकहरामों के साथ यह सुलूक होना चाहिए।’ सुप्रतिम ने भद्दे ढंगे से मुंह को फैलाकर काफी देर से रखे गये पान को चबाते हुए कहा।
‘संस्थान के पैसे को वसूलने के बाद जमा नहीं करने को मैं भी गलत मानती हूं। यह कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन इसे आपको भी मानना पड़ेगा कि आज जैसी स्थिति से प्रत्युष त्रिपाठी जी जूझ रहे हैं, कल मेरे सामने आ सकती है। परसों आपको भी यह सब कुछ झेलना पड़ सकता है।’ शिवानी अब भी मुखर थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि ऐसे मौके पर शिवाकांत और आशीष जैसे वरिष्ठ साथी चुप क्यों हैं? उसने एक बार सबकी ओर देखा भी, लेकिन उन सबके सिर झुके हुए थे। शिवाकांत ने तो आंखें भी बंद कर रखी थी।

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