Thursday, March 14, 2013

लोकतंत्र नहीं...लुक्क तंत्र

अशोक मिश्र
‘दिल्ली के भाई भकोसानंद राष्ट्रीय चौर्य (चोरी) कला केंद्र के सभागार में ‘राष्ट्रीय राजनीति और चौर्य कला’ पर आयोजित परिचर्चा में भाग लेने आए लोक लुच्चा परिषद (लोलुप) के राष्ट्रीय महासचिव बड़बोले प्रसाद मतिमंद ने हाथ उठाकर उपस्थिति प्रतिनिधियों और श्रोताओं का अभिवादन करने के बाद कहना शुरू किया, ‘हमारी परिषद आजादी के बाद से ही कहती चली आ रही है कि यह लोकतंत्र नहीं...‘लोक...तंत्र’ है। लोक..तंत्र का मतलब है कि वह तंत्र जिसको लुक्कि (कैच कर) लिया गया हो। जो भाषा विज्ञान के विद्यार्थी (विद्या+अर्थी अर्थात् विद्या की अर्थी उठाने वाले) रहे हैं, वे जानते हैं कि अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लुक’ जिसका अर्थ होता है-देखना। मैं यह नहीं जानता कि अंग्रेजी के इस लुक शब्द की उत्पत्ति और व्यूत्पत्ति इंग्लैंड में हुई या हिंदुस्तान में। अंग्रेजों ने यह शब्द हिंदी से पार किया या हम भारतीयों ने अंग्रेजों को ठेंगा दिखाकर उनके ‘लुक’ को अपने यहां ‘लौकना’ में कंवर्ट कर लिया। हां, हिंदी को एक शब्द मिला ‘लौकना’...माने..दिखाई देना। अवधी में जब यही ‘लौकना’ स्वीकार किया गया, तो इसका अर्थ हुआ चमकना। पूरे देश में भले ही बिजली आसमान में चमकती हो, लेकिन अवध प्रांत के लोगों के लिए ‘अकास मा बिजली लौकत है।’ यह ‘लौकना’ शब्द कालांतर में अपभ्रंशित होकर ‘लुक्कना’ या ‘लोक लेना’ में तब्दील हो गया...और इसका मतलब हुआ...कैच कर लेना। अब जरा इसी अर्थ में ‘लोक’ शब्द के साथ तंत्र का उपयोग कीजिए...और फिर बताइए, इसका क्या अर्थ हुआ।’ मंचासीन कुछ वक्ताओं और श्रोताओं ने समवेत स्वर में कहा, ‘वह तंत्र जिसको कुछ लोगों ने कैच कर लिया हो..।’ बड़बोले प्रसाद मतिमंद लोगों की प्रतिक्रिया सुनकर मुस्कुराए और बोले, ‘आप लोगों ने बिल्कुल सही समझा। यह बात हमारी परिषद के संस्थापक अध्यक्ष स्वर्गीय श्री चपर कनाती गिरते पड़ते जी बहुत पहले समझ गए थे। उन्होंने बहुत पहले ही केंद्र और प्रदेश सरकारों के कार्य व्यवहार को देखकर कह दिया था कि यह लोकतंत्र नहीं,...‘लोक तंत्र’ है। आप लोगों ने क्रिकेट टीम को खेलते देखा होगा। वहां एक बॉल होती है, उस बॉल के पीछे तेरह प्लेयर्स (ग्यारह फील्डर और दो बैट्समैन) पड़े होते हैं, लेकिन आप बताएं, जिसके पास वह बॉल जाती है, वह उसे रख तो नहीं लेता न! लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होता। तंत्र रूपी बॉल जिसके पास जाती है, वह उसे लुक्क (लोक) यानी कैच कर लेता है। आजादी के बाद जब तक देश के मुखिया नेहरू जी रहे, उन्होंने तंत्र को कभी सदरी पर घिसा, तो कभी अचकन पर। कभी तंत्र को गंदा देखा, तो खिलाड़ियों की तरह थूक लगाकर उसे साफ किया। कभी गांधी टोपी से झाड़ा, तो कभी उसे उठाकर जेब में रख लिया, लेकिन किसी दूसरे को हाथ नहीं लगाने दिया।’ इतना कहकर बड़बोले प्रसाद जी ने चारों ओर निगाह दौड़ाई। सबको ध्यान से सुनता देखकर वे उत्साहित हो गए। उन्होंने अपने कुर्ते की बांह से होंठों को पोंछा और बोलने लगे, ‘उसके बाद तो जैसे परिपाटी-सी बन गई, तंत्र को ‘लुक्क’ लेने की, अपनी जेब में रख लेने की। यह काम कांग्रेस ने किया, जब भी मौका मिला, भाजपा और उसके सहयोगियों ने किया। अब यूपीए सरकार कर रही है। इतना ही नहीं, राज्य सरकारें भी यही कर रही हैं। राज्य सरकारें जैसा चाहती हैं, वैसे ही तंत्र को गेंद की तरह नचाती हैं। कभी तंत्र को फुलटास फेंकती हैं, तो भी आॅफ स्विंग कराती हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश बउआ को देख लो। कभी तंत्र को उनके पिता जी बाऊंस कराते हैं, तो कभी अखिलेश के बॉलर चाचा लोग बॉल फेंकने के बाद खुद ही फील्डिंग करते हुए बैट्समैन की गुल्ली उड़ा देते हैं। बंगाल में ममता दीदी तो खुद ही बॉलिंग करती हैं, खुद ही बैटिंग। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में तो भाजपाई खुद ही जमे हुए हैं। खर, पीर, भिश्ती, बावर्ची यानी विकेटकीपर, फील्डर, बॉलर, बैट्समैन..सब कुछ भाजपाई ही हैं। विरोधी मैदान के बाहर खड़े टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं कि कब ये फील्ड से धकियाए जाएं और उन्हें खेलने का मौका मिले। तंत्र को लुक्कने के इंतजार में सभी खड़े हुए ‘हाय..हाय’ कर रहे हैं।’
बड़बोले प्रसाद ने लंबी सांस खींचने के बाद कहा, ‘मेरी बात से संभवत: चौर्य कला के विद्यार्थियों को भारतीय लोकतंत्र के बारे में समझने में आसानी होगी। मेरा तो सुझाव है कि हम लोग जब भी एक-दूसरे से मिलें, तो ‘गुड मार्निंग’, ‘नमस्ते’ या ‘सलाम’ कहने की बजाय ‘जय लुक्क तंत्र’ कहें, तो ज्यादा बेहतर होगा।’ इतना कहकर बड़बोले प्रसाद ने उपस्थित लोगों का अभिवादन करते हुए कहा, ‘जय लुक्क तंत्र।’... और अपनी कुर्सी पर जा बैठे।

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