Wednesday, March 20, 2013

पहले निंदक खोजिए...

-अशोक मिश्र
मुझमें गुण खोजना, मंगल ग्रह पर जीवन के लक्षण खोजने जैसा है। पूरे शरीर का सीटी स्कैन करवा लो, अगर कहीं किसी भी तरह के गुण के कीटाणु मिल जाएं, तो मैं कहूं। मैं पूरी तरह से गुण रोधी हूं। और अवगुण...? अवगुणों की तो मैं खान हूं। भगवान ने थोक के भाव कूट-कूट कर अवगुण भरे हैं मुझमें। कामचोर, झुट्ठा, चोट्टा, आलसी, धोखेबाज, रसिक...आदि.. आदि जैसे न जाने कितने विशेषण मेरे सामने पानी भरते हैं। कभी मुझे अपने इन अवगुणों को लेकर ग्लानि नहीं महसूस हुई। जब भी बीवी झल्लाकर कहती है, ‘झूठ बोलते हो, फरेबी! धोखेबाज! क्या मैं समझती नहीं, तुम पड़ोस वाली भाभी जी की क्यों तारीफ कर रहे हो?’ तो सच मानिए, मेरा सीना गर्व से दो इंच फैल जाता है। अब तक अपने अवगुणों पर गर्व करने वाला मैं सिर्फ एक दोहे के चलते परेशान हूं। संत कबीरदास को भी पता नहीं क्या सूझी, लिख मारा, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय/बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।’ जब से अपने बेटे की किताब में यह दोहा पढ़ा है, तब से परेशान हूं, अपने अवगुणों पर लज्जित हूं। अब इन अवगुणों से छुटकारा पाऊं, तो कैसे? कबीरदास कहते हैं कि अपने घर में निंदक रखो। दो कमरे का किराए पर मकान लेकर रहता हूं। अब इस छोटे से घर में निंदक को कहां रखूं? अजीब मुसीबत है, कबीरदास जी ने कहां फंसा दिया! उनके जमाने में तो फ्लैट कल्चर तो था नहीं। नहीं तो, वे कुटी छवाकर रखने के बजाय कोई दूसरी बात लिखते। अब अगर कुटी भी छवाता हूं, तो कालोनी वाले ऐतराज करेंगे।
फिर ख्याल आया कि बचपन से लेकर आज तक निंदकों से ही घिरा रहा हूं। घर में बीवी, बच्चे सुबह से शाम तक निंदा पुराण बांचते रहते हैं, आॅफिस में संपादक जी और मेरे अन्य साथी यह पुनीत कर्तव्य पूरा करते हैं। गाहे-बगाहे मिलने पर मेरे नर्म सचिव (लंगोटिया यार) तक पहले निंदा करते हैं, फिर हाथ मिलाते हैं, चाय पिलाते हैं, बीड़ी-पान, तंबाकू पेश करते हैं। इसी बीत याद आया कि कबीरदास जी ने ही कहीं कहा है कि बिना गुरु के ज्ञान और मोक्ष नहीं प्राप्त होता है। अब अगर गुणों का विकास और अवगुणों का ह्रास चाहिए, तो किसी को पान-फूल (पत्रम्-पुष्पम्) देकर ‘निंदा गुरु’ नियुक्त करना हो, तब कहीं जाकर ‘अभीष्ट’ की प्राप्ति होगी।
काफी सोच विचार कर मैंने तय किया कि घरैतिन को ही निंदा गुरु की पोस्ट पर नियुक्त कर दूं, लेकिन फिर ख्याल आया, अगर वे मेरी गुरु हो गईं, तो..तो..? आप समझ गए न मेरा मतलब? घरैतिन को छोड़कर बच्चों से बात की, तो वे मेरा प्रस्ताव सुनते ही भड़क गए। बेटी गुर्राती हुई बोली, ‘आप हम दोनों को नामाकूल समझते हैं। मैं आपकी गुरु कैसे हो सकती हूं!’ मैंने कहा, ‘जब शुकदेव के पिता वेदव्यास अपने पुत्र को गुरु बना सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं?’ इस पर बेटा आगे आया और बोला, ‘हम दोनों भाई-बहन को माफ कीजिए और किसी चोर-लफंगे को बना लीजिए गुरु।’ फिर सोचा किसी ‘एलुए-ठेलुए’ को निंदक नियुक्त कर देता हूं, निंदा करने का दो-तीन हजार रुपये लेगा भी, तो दे दूंगा। कम से कम निंदा तो होती रहेगी। मेरे अवगुण तो दूर हो जाएंगे! मैंने कई लोगों से बात की। पड़ोस में रहने वाली छबीली तो प्रस्ताव सुनते ही ‘बमक’ उठी, ‘तू हम दो सहेलियों में जूतम-पैजार कराना चाहता है, नासपीटे। मुझे बदनाम कराना चाहता है?’आपको विश्वास नहीं होगा, मैंने सबसे गुरु बनने की चिरौरी की, पांव पकड़े, हाथ जोड़े, दोस्ती और भलमनसाहत का वास्ता दिया, लेकिन सब बेकार। सबने भरपेट गालियां दी, लेकिन गुरु बनकर मेरे अवगुण दूर करके पुण्य कमाने को तैयार कोई नहीं हुआ। फिर मैंने सोचा कि संत कबीरदास का दोहा ही उलट दूं। मान लूं कि आधुनिक  कबीरदास ने कहा है, ‘पहले निंदक खोजिए, विज्ञापन छपवाय/खोजे से जो न मिले, डूब मरो तब जाय।’ सो, दोस्तो! विभिन्न अखबारों में विज्ञापन दे दिया है। आप में से जो कोई भी मेरा निंदा गुरु बनना चाहता है, वह महीने के सातवें मंगलवार को मुझसे संपर्क करे।

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