Tuesday, April 16, 2013

सचमुच...बड़ा लुत्फ था जब...

अशोक मिश्र
(पिछले हफ्ते व्यंग्य छपते ही संपादक जी ने मुझे तलब किया और लगे डांट पिलाने। बोले, पत्रकारिता का पहला उसूल है कि खबर चाहे कितनी ही पक्की क्यों न हो, लेकिन दूसरे पक्ष का वर्जन (उसका पक्ष जाने बिना) लिए बिना खबर मुक्कमिल नहीं मानी जाती। उन्होंने आदेशात्मक लहजे में कहा, ‘जाओ, पत्नी का वर्जन लेकर आओ। नहीं तो मुझे व्यंग्य के लिए भी खंडन छापना पड़ेगा।’ सो, मरता क्या न करता। पत्नी जी के पास जाकर उनका पक्ष लिया। पेश है पत्नी द्वारा दिए गए बयान का असंपादित अंश।)
सचमुच...बड़ा लुत्फ था जब कुंवारी थीं हम सब। वे भी क्या दिन थे? सुख-दुख धूप-छांव की तरह लगते थे। बप्पा भले ही अपना फटा कुर्ता पहने सारा शहर घूम आएं, लेकिन मेरी गुÞड़िया लाना नहीं भूलते थे। गलती होने पर बप्पा तो महटिया (नजरअंदाज कर) जाते थे, लेकिन अम्मा तो अम्मा थीं, बिना कोसे उनको पानी भी हजम नहीं होता था। सुबह जागने में थोड़ी-सी भी देर हुई कि अम्मा पीठ पर ‘धप्प’ से एक धौल जमाती हुई कहती थीं, ‘बहुत नींद आवति है। पढ़िहौ-लिखिहौ ना, तो कौनो रिक्शावाले-चाट टिक्की वाले से ब्याह दी जाओगी। सुबह-शाम चूल्हा फुकिहौ, तो समझ मा आई जाई पढ़ाई का मतलब।’ मैं भी कम बदमाश नहीं थी, झट से कह बैठती, ‘मुंह झौंसे की गर्ज होगी, तो कमाकर खिलाएगा।’ तब अम्मा आंचर में मुंह छुपाकर हंसती थीं, लेकिन दिखावे में उनका गुस्सा बरकरार रहता था। सच्ची...उन दिनों नींद भी कितनी आती थी, मुए सपने भी कैसे...कैसे आते थे। सपने में ही देह फुरेहरी छोड़ने लगती थी। सुबह-सुबह जब सपने और नींद दोनों मधुर होते थे, तभी अम्मा की आवाज कानों में जैसे धमाका करती थी, ‘यह लड़की कितना सोती है। सुबह से काम करते-करते पीठ और कमर धनुष हुई जाती है, लेकिन यह निगोड़ी उठती ही नहीं।’ सच्ची कितने सुहाने दिन थे वे...। रोज सुबह होते ही किसी न किसी बात पर भाइयों से ‘ढिशुम..ढिशुम’ हो ही जाती थी। कई बार भाई पिट जाते, तो कई बार मैं। पिटने के बाद अगर छोटकू या बड़कू अम्मा के पास शिकायत लेकर पहुंच जाते, तो अम्मा ‘धाड़’ से कान के नीचे एक बजा देती थीं, ‘नासकाटे...पहले लड़त हैं, फिर चले आवत हैं शिकाइत लेकर।’
सचमुच... कई बार सोचती हूं, तो लगता है कि कहीं शादी के लड्डू में चीनी की जगह मिर्चा पीसकर तो नहीं मिलाया जाता? हाय...कितने याद आते हैं सहेलियों के साथ स्कूल-कॉलेज जाने के वे दिन। कई बार सहेलियों से तू-तू मैं-मैं और झोंटा नुचौव्वल सिर्फ इस बात को लेकर होती थी कि अभी पास से गुजरे छैलछबीले ने उसे देखा था या मुझे। लड़ने-भिड़ने के बावजूद सहेलियों की प्रेम कहानियां अकेले में भले ही बांची गई हो, लेकिन मजाल है कि किसी दूसरे को भनक भी लगी हो। कितने सपने संजोए थे हम सहेलियों ने शादी को लेकर, लेकिन अब कई बार तो लगता है कि इनसे शादी करके कोई गलती तो नहीं की। कई बार लगता है कि इनसे अच्छा तो शायद वह बनारस वाला था। बस, थोड़ा-सा एलएलटीटी था। एलएलटीटी नहीं समझे...लुकिंग लंदन, टॉकिंग टोकियो...मतलब...ऐंचातानी...भैंगा। अगर उसका यह अवगुण छोड़ दिया जाए, तो वह देखने-सुनने में इनसे तो लाख गुना अच्छा था। शादी के बाद इनके साथ शहर आई, तो लगा कि किसी पुरानी फिल्म में दिखाए गए भुतहे महल में आ गई हूं। इनका बिस्तर देखा, तो पहली बार लगा कि यह नहीं है राइट च्वाइस बेबी। यह तो महाम्लेच्छ है। साफ करने के लिए बेड पर पड़े गद्दे को उठाया, तो जितना हिस्सा पकड़ा था, वह हाथ में आ गया। दूसरा हिस्सा पकड़कर उठाया, तो परिणाम वही निकला। बाद में इन्होंने मुस्कुराते हुए बताया कि दस साल पहले जब यह गद्दा खरीदा गया था, तब से यह बेड पर वैसे ही पड़ा है, इसे उठाया या उठाकर झाड़ा-पोछा नहीं गया है। आज किसी तरह रात काटो, कल नया गद्दा आ जाएगा। जब भी हाथ-पैर धोकर बिस्तर पर चढ़ने को कहो, तो ऐसे मुंह बनाते हैं, मानो कुनैन की गोली खा ली हो।
किसी दिन इतने भारी-भारी चादर धोने पड़ जाएं, तो मैं किसी से भी शर्त बदने को तैयार हूं, अगर हफ्ते भर से पहले जो बुखार उतर जाए। यदि भूल से किसी दिन अपनी बनियान धो ली, तो ऐसे डींगें मारते हैं, मानो कोई पहाड़ उठा लिया हो। ये कई बार मुझसे कहते हैं कि तुम किसी मुनीम की तरह मुझसे दिनभर का हिसाब मत मांगा करो। अरे, जब इतनी लगाम लगा रखी है, तब तो यह हाल है। कहते हैं काबुल में हूं और होते बगदाद में हैं। दस साल की छोकरी से लेकर पचास साल की अम्मा तक को घूरने से बाज नहीं आते। इधर-उधर मुंह मारने की कोशिश करते रहते हैं, अगर छुट्टा छोड़ दिया, तो किसी सठियाए बछड़े की तरह पगहा ही तुड़ाकर भाग जाएंगे। हमें भी इनके पगहा तुड़ा लेने का डर नहीं है, लेकिन इन बच्चों का क्या होगा, यही सोचकर चुप रह जाती हूं। वरना गुलछर्रे उड़ाना सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आता है।

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