Wednesday, April 24, 2013

पीड़ा को आवाज देती कहानियां

सुभाष झा                                                     
कोई रचनाकार तभी सफल माना जाता है, जब उसकी रचनाएं पाठकों को अपनी लगें। अपनी जैसी लगें। आस-पड़ोस की लगें। रचनाएं भी वही मौजूं होती हैं, जिससे कोई संदेश समाज को मिलता हो। जो देशकाल का प्रतिनिधित्व करता हो। इस लिहाज से दयानंद पांडेय समर्थ रचनाकार हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वे अपनी रचनाओं में नाटकी
यता को हावी नहीं होने देते। सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करने में उनकी कलम समर्थ है। बेहतरीन शिल्प के साथ रोजमर्रा घटित हो रही घटनाओं को वे बड़ी तल्खी से उजागर करने में माहिर हैं। ऐसे ही तमाम पक्षों को समेटते हुए उनकी पुस्तक है ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’।
कहानी संग्रह ‘फेसबुक में फंसे चेहरे’ शीर्षक कहानी की सबसे पहले बात की जाए, तो इसमें लेखक ने बाजार में स्याह होती संवेदनाओं को पुरजोर तरीके से पाठकों के सामने रखा है। इस कहानी के मुख्य पात्र राम सिंगार की इस चिंता से ही शुरू होती है कि आदमी के आत्म विज्ञापन की यह राह (फेसबुक) क्या उसे अकेलेपन की आह और आंधी से बचा पाएगी? अपनी कहानी में कथाकार स्वयं बताते हैं कि रामसिंगार भाई यह जानकर मुदित होते हैं कि बड़े बाबू ने अकेले ही गांव के विकास में बहुत योगदान दिया, जिससे गांव में बिजली, सड़क स्कूल आदि सुलभ हो गए हंै। राम सिंगार भाई सोचते हैं कि यह फेसबुक पर नहीं है। फेसबुक पर वे लोग हैं, जो आत्म विज्ञापन के चोंचले में डूबे हुए हैं। वहां अतिरिक्त कामुकता है, अपराध है, बेशर्मी है। ऐसे लोगों के मुखौटे उधेड़ती यह कहानी वहां खत्म होती है, जहां एक मॉडल की कुछ लिखी हुई नंगी पीठ की पोस्ट लगाते ही सौ से ज्यादा कमेंट आ जाते हैं, लेकिन जब जन सरोकार संबंधी गांव की पोस्ट लगाई जाती है, तो उस पर सिर्फ दो कमेंट आते हैं, वह भी शिकायती अंदाज में। मजे की बात यह है कि सब जानने के बाद भी राम सिंगार भाई फेसबुक पर उपस्थित हैं।
झूठे रंग-रोगन में चमकते चेहरे और बाजार मनुष्यता को किस प्रकार लील रहे हैं, उस पर तल्ख टिप्पणी कथाकार ने ‘सूर्यनाथ की मौत’ शीर्षक कहानी में की है। इस कहानी में वे बताते हैं कि एक आदमी जिस परिवेश को अपने अनुकूल नहीं समझता है, उसी में रहने के लिए किस तरह विवश होता है। इसमें मॉल कल्चर की अमानवीयता को दिखाया गया है। इसमें यह दिखाने की कोशिश की गई है कि इतना बड़ा बाजार, इतने अधिक उत्पाद मनुष्य को बौना बना रहे हैं। उनकी मौलिकता के पंख को नोचकर उनमें केवल क्रेता या विक्रेता का भाव भर रहे हैं। कहानी का नायक सूर्यनाथ है, प्रकाशमान, न्यायी और खरा है, इसीलिए वह धीरे-धीरे मौत की ओर खिसक रहा है। कहानी में एक बार नायक के मन में आता है कि ‘बिरला भवन’ में ‘गांधी स्मृति’ चला जाए, जहां महात्मा गांधी को गोडसे ने गोली मारी थी, वहीं खड़ा होकर प्रार्थना के बजाय चीख-चीख कर कहे कि ‘हे गोडसे आओ, हमें और हम जैसों को भी मार डालो।’ दरअसल, इस कहानी मेंकथाकार दयानंद पांडेय देश की जनता की सबसे कमजोर और दुखती रग पर अंगुली रखते हैं। कहानी के अंत में स्वयं वे कहते हैं, ‘कोई गोडसे गोली नहीं मारता। सब व्यस्त हैं, बाजार में दाम बढ़ाने में व्यस्त हैं। सूर्यनाथ बिना गोली खाए ही मर जाते हैं।’
‘घोड वाले बाऊ साहब’ खोखले अहंकार और नैतिकता के टूटने की कहानी है। इस कहानी में झाड़-फूंक, संन्यासी, आश्रम, पुलिस स्टेशन आदि के दोगलपन का वर्णन है। ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ में कथाकार ने बड़े ही साफगोई के साथ स्वार्थ पर टिके हुए विवाहेत्तर संबंध को बयां किया है। कभी-कभी जीनियस से जीनियस किस कदर पतन के गर्त में चला जाता है, जहां मौत भी पनाह नहीं देती, उसे हत्या या आत्महत्या के दौर से गुजरना होता है, इस बात को बड़ी बेबाकीपन से बयां किया है। ‘बर्फ में फंसी मछली’ कहानी में नायक को कई लड़कियों से प्रेम, फ्लर्ट, चैटिंग और उनसे पीछा छुड़ाते हुए आखिर उसे एक रशियन लड़की से प्यार हो जाता है। रशियन पुरुषों से अतृप्त रीम्मा भारतीय पुरुष से प्यार पाना चाहती है, वह हिंदुस्तान आना चाहती है। इस कहानी का नायक देखता है कि समूचा अंतरजाल सेक्स को समर्पित है। कहानी संग्रह की सबसे लंबी कहानी ‘मैत्रोयी की मुश्किलें’ है। इसकी नायिका जितना ही प्रेम, सम्मान और सुरक्षा पाना चाहती है, उतनी ही मुश्किलों में फंसती जाती है। इसमें कथाकार ने बड़ी ही खूबी से पल-पल बदलते स्त्री-पुरुष के संबंध को पाठकों के समक्ष पेश किया है।
इस सबके बीच यदि कहानी संग्रह की पहली कहानी की जिक्र नहीं की जाए, तो पुस्तक और कहानीकार के साथ न्याय नहीं होगा। ‘हवाई पट्टी के हवा सिंह’ नामक शीर्षक कहानी में दयानंद पांडेय ने अपनी खिलदंड़े अंदाज को पाठकों से रू-ब-रू कराया है। हालांकि, इसमें अशिक्षित, बेलगाम युवाओं की समस्या उठाई गई है। गांव का चित्रण, ग्रामीण परिवेश के लोगों की सोच को लोगों के सामने रखा है। संग्रह की तमाम कहानियों और उसके कथ्य को समष्टीय में देखा जाए, तो पहली कहानी पाठकों को औरों से अलग दिखती है। यदि यह कहा जाए, तो संग्रह की सबसे कमजोर कहानी पहली कहानी ही है, तो गलत नहीं होगा।
कुछ मिलाकर कहानी संग्रह की सभी कहानियां उत्तम हैं। सही मायने में अपने पास-पड़ोस की घटनाओं पर लेखनी चलाने में दयानंद पांडेय सिद्धहस्त हैं। उनकी भाषा में प्रवाह है। प्रांजलता है। शिल्प के स्तर पर वह सशक्त हैं। संवाद अदायगी प्रभावपूर्ण है। इन सबसे बड़ी खूबी है उनकी किस्सागोई, जो उन्हें समकालीन कहानीकारों से अलग करती है। आम आदमी की पीड़ा को आवाज देने में काफी सफल हुए हैं।
पुस्तक: फेसबुक में फंसे चेहरे
लेखक: दयानंद पाण्डेय
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि., मूल्य: रु. 350/-
पता: 5/7, डालीबाग आफिसर्स कालोनी, लखनऊ, मो. 09450246765, मो. 09450246765


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