Monday, May 6, 2013

कोई पुरस्कार दिलाओ, यार!

अशोक मिश्र 
बताओ भला...दोस्त ऐसे होते हैं, जैसे मेरे हैं? मेरे दोस्त किसी काम के नहीं हैं। सबके सब नकारा हैं। मेरे एक दोस्त हैं...कुछ-कुछ लंगोटिया यार टाइप के। लखनऊ में हम दोनों एक साथ ही कवितागीरी किया करते थे। यह दोस्त मुझे अपना दोस्त कहते नहीं थकता था। कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में हम दोनों एक साथ ‘अनामंत्रित’ किए जाते थे। (क्योंकि हमारे सत्कर्मों के चलते कोई अपना कार्यक्रम चौपट नहीं कराना चाहता था।) फिर भी हमारी हिम्मत तो देखिए, हम सुबह उठते ही अखबारों में प्रकाशित होने वाले ‘आज के कार्यक्रम’ को देखते और जहां कहीं भी कोई कवि गोष्ठी या कवि सम्मेलन आयोजन की सूचना होती, हम वहां पहुंच जाते। हमें देखते ही आयोजक का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगता, लेकिन उसके चेहरे से मुस्कान नहीं जाती। कई आयोजक तो बत्तीस इंची मुस्कान चेहरे पर चिपकाकर कहते, ‘आओ...आओ...मैं आप दोनों को बुलाना भूल गया था। अच्छा हुआ आप दोनों आ गए।’ लेकिन धीरे से कान में कहता, ‘कार्यक्रम चौपट मत करना।’ इसके बाद जो भी कवि आता, मेरा दोस्त ‘वाह...वाह...मरहबा...मरहबा’ ऐसे झूम-झूम कर कहता, मानो कविता का सबसे ज्यादा मजा वही उठा रहा हो। जब काव्य पाठ की मेरी बारी आती, तो उसे पता नहीं क्या हो जाता। उसके मुंह पर ऐसे ढक्कन लग जाता कि कुछ पूछिए मत! कई बार तो मुझे शुबहा होता कि कहीं वह गूंगा तो नहीं हो गया है। मैं उसकी ओर याचक निगाह डालता कि अबे...एक बार तो तालियां पीट, ‘वाह...वाह’ कह, दूसरों की तो सड़ी से सड़ी कविता पर तालियां पीट रहा था, वाह-वाह कह रहा था, लेकिन नामुराद कुछ बोलता ही नहीं था।
अभी हाल ही में वह दोस्त नोएडा की सड़कों पर भुने चने खाता मिल गया। मैंने कहा, ‘यार...मुझे भी कोई पुरस्कार-फुरस्कार दिलाओ। लोग अपने दोस्त के लिए क्या-क्या नहीं करते। तुम इतना ही कर डालो कि एकाध पद्मश्री, पद्म विभूषण, ज्ञानपीठ, यश भारती दिला ही दो।’ वह बोला, ‘यों ही दिला दें। अच्छा चल...मैं नहीं दिलाता, तो तू ही मुझे दिला दे।’ मैंने रूठते हुए कहा, ‘अबे...जा...बहुत देखे हैं तेरे जैसे दोस्त। एक तुम हो मेरे दोस्त, जो मेरी प्रसिद्धि से जलते हो। ...और एक मेरे पड़ोसी मुसद्दीलाल और उनका दोस्त नासपीटे हैं। पता है...अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने अपने दोस्त की प्रोफाइल साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए जमा कराई है। वे अपने पैसे पर ही नोबेल चयन समिति के सदस्यों से मिलने गए। अपने दोस्त की एक मात्र कविता ‘दुख गड़ता है’ की चार-पांच हजार फोटोस्टेट प्रतियां साथ ले गया। वह तो यूपीए सरकार में बैठे एक प्रभावशाली मंत्री के माध्यम से पद्मश्री का भी जुगाड़ लगा रहा है। यदि इस बार जुगाड़ नहीं लग पाया, तो अगली जो भी सरकार बनेगी, उसमें उसका टांका एकदम फिट है। वैसे, वह कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में भी अपना जाल बिछा रहा है। कल मेरे पड़ोसी मुसद्दीलाल कह रहे थे कि इस साल के अंत तक कम से कम एक दर्जन सरकारी और गैर सरकारी पुरस्कार उसे मिलने वाले हैं। वह अपने मित्र नासपीटे की इतनी प्रशंसा कर रहा था कि अब क्या बताऊं। मेरा भी मन करता है कि मैं तुम्हारी इसी तरह प्रशंसा करूं, लेकिन तुम मौका तो दो।’
‘यह बताओ...मैं तुम्हें कोई भकुआ दिखाई देता हूं? मेरे सिर पर कोई सींग उगी हुई है? मुझे तुम क्या समझते हो? अगर मुझमें इतनी ही कूबत होती, तो मैं तुम्हारे लिए भागदौड़ करने के बजाय अपने लिए भागदौड़ करता। मनमोहन चच्चा से अपनी सिफारिश करवाता, बंगाल, बिहार से लेकर कर्नाटक तक अपनी गोटी फिट कराता, ताकि इन प्रदेशों में जितने भी साहित्यिक पुरस्कार हैं, वह मुझे मिलते। और फिर कोई सूखा-सूखा सम्मान ही तो नहीं मिलता, उसके साथ रोकड़ा भी तो मिलता है। सम्मान और रोकड़ा मुझे बुरा लगता है? यह बताओ बीस साल की दोस्ती में कभी तुमसे ऐसा कहा?’ इतना कहकर मेरा दोस्त फिर चने खाने लगा। मुझे कुछ बोलता न पाकर उसने कहा, ‘फिर भी तुमने कहा है, मैं देखता हूं मेरे मोहल्ले की कमेटी तुम्हें कोई पुरस्कार दे दे, लेकिन रोकड़ा खर्च करना पड़ेगा...हां।’ इतना कहकर वह चलता बना।

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