Tuesday, May 21, 2013

दिल बदतमीज...दिल बदतमीज

-अशोक मिश्र
मैं अपने दिल का क्या करूं? कई बार तो मुझे भी अपने-आप पर कोफ्त होने लगती है। सोचता हूं, भगवान ने भी क्या झंझट पाल दिया। अगर पंप हाउस की तरह सिर्फ रक्त इधर से उधर लाने-ले जाने का काम ही दिल का होता, तो गनीमत थी। लेकिन भगवान को पता नहीं क्या सूझी कि उन्होंने कुछ और भी काम सौंप दिए बेचारे दिल को। नामुराद दिल... किसी शोषित-पीड़ित श्रमिक की तरह उफ भी नहीं कर पाया। एक तो पहले से ही दिल पर काम का बोझ इतना ज्यादा है कि वह चौबीसों घंटे अनवरत काम करता रहता है। नो मेडिकल लीव, अर्नलीव, कैजुअल लीव या वीकली आॅफ। वह सारे अंगों की तरह सोते समय आराम भी नहीं कर सकता। खुदा न खास्ता! अगर वह आराम की सोचे भी, तो समझो कयामत आ गई। इधर दिल ने फुरसत से टांग फैलाई, उधर ‘राम नाम सत्य है’ कोरस गान शुरू हो जाता है। जब से भगवान ने दिल को रक्त प्रवाह के सनातनी कार्य के साथ-साथ ‘लगने और लगाने’ की छूट दी है, तब से गड़बड़ होने लगी है। हालात इतने खराब हैं कि अब किसी भी उम्र में किसी पर भी दिल आने लगा है। पहले तो यह बात नीम-हकीमों, ओझा-गुनियों, ज्ञानी-अज्ञानियों की समझ में नहीं आई। भला किसी का किसी पर दिल कैसे आ सकता है? लेकिन नहीं साहब! ...जिसका किसी पर दिल आया हो, वह दावे के साथ बता सकता है कि जनाब! सचमुच दिल किसी पर भी आ सकता है। हां, कुछ लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते हैं, कह देते हैं, ‘जाने दो यार...दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी।’
मैं तो यह भी नहीं कह सकता हूं कि दिल तो बच्चा है जी।...बच्चा होता, तो दिल लगाता? दिल लगाना बड़ों का काम है, बच्चों का नहीं। हां, इधर कुछ सालों में ‘दिल बदतमीज...दिल बदतमीज...माने ना’ जैसा जरूर हो गया है। आप लाख समझाइए, लेकिन दिल है कि उसी ओर भागता है जिस ओर जाने से मना किया जाता है। बचपन से लेकर आज तक बड़े-बूढ़े समझाते आए हैं कि किसी को घूरना, उसे एकटक निहारना, गलत है, अभद्रता है। अब तो कानून भी पास हो गया है कि आधा मिनट से ज्यादा किसी महिला या लड़की को घूरने पर सजा हो जाएगी। अगर आप इस राज को राज रहने देने का वायदा करें, तो मैं आपको एक ऐसा नुस्खा बता सकता हूं जिससे आप इस कानून की गिरफ्त में आने बच सकते हैं। आप चाहें, तो उनतीस सेकेंड तक घूरने के बाद एकाध सेकेंड का ब्रेक लें और फिर अगले उनतीस सेकेंड तक बड़े प्रेम से घूरिए। ऐसा करने पर कानून क्या, कानून का बाप भी आपका बाल बांका नहीं कर पाएगा। यह क्रम आप तब तक चला सकते हैं, जब तक आपकी इच्छा हो या फिर जिसे आप घूर रहे हैं, वह चली न जाए।
मेरी इस दशा को देखकर पत्नी कई बार समझा चुकी हैं। कभी प्यार से, कभी तकरार से। सत्तर बार तो वे अपनी कसम दे चुकी हैं, तो बहत्तर बार मायके जाने का अल्टीमेटम। पत्नी की गुहार पर अड़ोसी-पड़ोसी भी समझा-बुझाकर थक चुके हैं। पत्नी का खैरख्वाह बनने के चक्कर में तो कई अड़ोसी मुझसे भिड़ चुके हैं, तो कई पड़ोसी लट्ठलट्ठा कर चुके हैं। बच्चे अभी छोटे हैं, लेकिन उन्हें भी अब लोगों के बीच बैठने-उठने में संकोच होने लगा है। वे बाहर खेलने भी नहीं जाते हैं, क्योंकि उनके दोस्त झगड़ा होने पर मेरा ही ताना देते हैं। आॅफिस का तो हाल ही मत पूछिए। थोड़ी-सी गलती होने पर संपादक जी तंज कसते हैं, ‘काम में तो दिल लगता नहीं है। हथेली पर दिल लिए घूमते हो। जब और जहां कोई सुमुखी, मृगनयनी, प्रीत पयस्विनी मिली, तो लगे दिल बांटने। ‘तू भी ले...तू भी ले’ वाली स्टाइल में। जब दिल सबको बांटते फिरोगे, तो काम के लायक दिल बचेगा ही कहां? काम में फिर दिल लगेगा कैसे?’
अब लोगों को कैसे समझाऊं कि यह किसी महिला या लड़की से दिल लगाने या घूरने का मामला नहीं है। अब आपको बताऊंगा, तो आप भी हंसेंगे। मेरे पड़ोस में रहता है कल्लू घोसी। उसकी एक नई नवेली दुल्हन है। कुछ ही दिन पहले हुए विवाह में उसे एक महिषी यानी भैंस दहेज में मिली है। उस भैंस को निहारना मुझे पता नहीं क्यों अच्छा लगता है। मैं घंटों उसे देखकर सोचता रहता हूं कि जब यह महिषी है, तो प्राचीन काल में राजाओं ने अपनी रानियों को राजमहिषी क्यों कहा? बस, इसी सवाल का जवाब पाने को घंटों उस महिषी को निहारता रहता हूं, पता नहीं कब कोई क्लू मिल जाए और राजमहिषी पदवी प्रदान करने की गुत्थी सुलझ जाए, लेकिन लोग हैं कि यही समझते हैं कि मैं कल्लू घोसी की नई नवेली दुलहन को घूरता रहता हूं। पत्नी भी यही समझती है। कोई बताओ कि मैं सबको यह बात कैसे समझाऊं?

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