Tuesday, June 11, 2013

जिंदगी पर भारी बाजार

-अशोक मिश्र
बाजार..बाजार..बाजार..जीवन का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जिसे बाजार ने प्रभावित नहीं किया है? दुनिया का सबसे पवित्रतम रिश्ता होता है मां और बच्चे का। मां अपने बच्चे को नौ माह तक कोख में रखकर उसका पोषण, सुरक्षा करती है। कई बार तो जान पर खेलकर बच्चे को जन्म देती है। इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है। मां प्रकृति द्वारा सौंपे गए इस गुरुतर दायित्व का निर्वाह सदियों से बिना किसी स्वार्थ, हानि-लाभ या भय के करती आ रही है। सदियां गुजर गर्इं, मां और बच्चे के बीच के इस रिश्ते का कोई आर्थिक आधार नहीं रहा है।  दास, भूदास व्यवस्था से लेकर अभी सौ-सवा सौ साल पहले तक विश्व में मौजूद रही सामंती व्यवस्था में भी मां की ममता अमूल्य रही है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था और उसके अनिवार्य घटक बाजार का करिश्मा तो देखिए...उसने मां को अपने बच्चे के हिस्से आने वाले दूध का कुछ हिस्सा बचाकर बेचना सिखा दिया। इसके पीछे कुपोषित और मातृविहीन बच्चों को बचाने का लुभावना तर्क दिया जाता है, लेकिन मां के दूध को खरीदने-बेचने में होने वाले मुनाफे पर किसी नजर नहीं पड़ती है। विदेश में ही नहीं, देश के कई हिस्सों में अब मदर मिल्क बैंक खुलने लगे हैं। प्रसूताएं अपने बच्चों को कम पिलाकर बचा हुआ दूध इन बैंकों में औने-पौने दामों में बेचने को मजबूर हैं। मजे की बात यह है कि मां को दूध बेचने जैसे निकृष्ट कार्य के लिए मजबूर भी बाजार ही करता है। इतना ही नहीं, बाजार ने चिकित्सा विज्ञान की आड़ लेकर मातृत्व को ही बिकाऊ बना दिया है। सरोगेट मदर बनना, तो अब पुण्य कमाने के साथ-साथ फायदे का धंधा हो गया है। हालांकि,  कई देशों में सरोगेसी मामले में कई सख्त कानून हैं। ऐसे देशों में किराये की कोख हासिल कर पाना, काफी मुश्किल और खर्चीला है, लेकिन भारत सहित कई देशों में तो यह उद्योग  की तरह फलने-फूलने लगा है। नि:संतान दंपतियों की बच्चे की चाह अपनी जगह जायज है, लेकिन बाजार ने इनकी इसी कामना को मुनाफे का आधार बना लिया और समाज में किराये की कोख जैसी परंपरा का आविर्भाव हुआ।
बाजार की घुसपैठ व्यक्ति के अंतरंग और नितांत वैयक्तिक मामलों में भी होने लगी है। अब तो बाजार ही यह तय करने लगा है कि आप क्या खाएंगे, पिएंगे, पहनेंगे? इतना ही नहीं, आप अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ अंतरंग क्षणों में कैसा व्यवहार करेंगे, आपका यौन व्यवहार कैसा रहेगा? यह भी बाजार ही तय करने लगा है। हो सकता है आपको इस पर यकीन न हो, लेकिन विभिन्न तरह की कंडोम कंपनियां, विभिन्न तरह के उत्तेजक स्प्रे और सेक्स की भूख बढ़ाने की दवा बनाने वाली कंपनियां यही तो कर रही हैं। वैसे तो मनुष्य के जीवन की तीन ही ऐसी प्रमुख आवश्यकताएं हैं, जिसकी पूर्ति आवश्यक मानी जाती है। शरीर को ऊर्जावान बनाए रखने के लिए भोजन, रहने के लिए एक घर और पहने के लिए वस्त्र। जीवन की इन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रुपया चाहिए। रुपये के लिए रोजगार चाहिए और ये दोनों चीजें निर्भर करती हैं बाजार पर। इन तीनों आवश्यकताओं को तो बाजार ने अपनी गिरफ्त में ले ही रखा है, लेकिन उसने कुछ ऐसा माहौल रच रखा है, जैसे लगे कि सेक्स (काम भावना) इंसान की प्राथमिक जरूरत हो। बाजार का सारा जाल-जंजाल इसी सेक्स के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। सेक्स को खूबसूरती, छरहरी काया आदि से जोड़कर महिमामंडित किया जा रहा है। साबुन, सेंट और अन्य सौंदर्य प्रसाधनों के तमाम उत्पादों का विभिन्न संचार माध्यमों पर दिन-रात किया रहा प्रचार बाजार की एक रणनीति का हिस्सा है। बाजार सबसे पहले बड़ी चतुराई से मनुष्य के जीवन में पहले जरूरत पैदा करता है। इसके लिए कई तरह के सच्चे-झूठे सर्वे, अनुसंधान और शोध कराए जाते हैं, इन सर्वे, अनुसंधान और शोध की रिपोर्ट की आड़ में लोगों को बताया जाता है कि अगर वे इस उत्पाद का उपयोग इतनते समय तक करेंगे, तो वे ऐसे हो जाएंगे, इसका उनके जीवन पर ऐसा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। बाजार की यह कोशिश इतने तक ही सीमित नहीं रहती है, वह अपने संभावित उपभोक्ताओं के बीच से ही उस उत्पाद का ब्रांड एंबेसडर खोजता है। यह ब्रांड एंबेसडर कोई बड़ा खिलाड़ी, फिल्मी दुनिया से जुड़े अभिनेता-अत्रिनेत्री या राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी कोई भी हस्ती हो सकती है। पैसा लेकर ये ब्रांड एंबेसडर उस उत्पाद का प्रचार करते हैं, उपभोक्ताओं को उस उत्पाद का उपयोग करने को प्रेरित करते हैं। पहले तो ये उत्पाद व्यक्ति के जीवन में शौकिया, किसी की प्रतिस्पर्धा या उत्सुकतावश प्रवेश करते हैं और कालांतर में ये उस व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता बन जाते हैं। बाजार की एक कुटिल चाल यह भी है कि वह अपने उत्पाद बेचने के साथ-साथ एक सपना भी बेचता है। यही सपना मध्यम और निम्न वर्ग को अपनी गिरफ्त में लेता है। मध्यम और निम्न आय वर्गों के लोगों को बाजार की आक्टोपसी बाहें कुछ इस कदर जकड़ लेती हैं कि वे छटपटाकर दम तोड़ने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। नतीजा यह निकलता है कि वे हताश और अवसादग्रस्त होकर आत्मघात कर बैठते हैं। कई बार तो परिवार के अन्य सदस्य भी इस आत्मघात में शामिल हो जाते हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है कि आत्महत्या करने वाले पुरुष या स्त्री को ऐसा भी लगता है कि वह आत्महत्या कर लेगा/कर लेगी, तो उसके बाद उस पर आश्रित रहने वाले लोग कैसे जिएंगे, उनके साथ समाज अच्छा व्यवहार नहीं करेगा। यही सोचकर वे पहले अपने आश्रितों (बेटा, बेटी, पत्नी, नाबालिग छोटे भाई-बहनों) की पहले हत्या करते हैं और फिर बाद में आत्महत्या कर लेते हैं। पिछले कुछ दशक से इसका चलन बढ़ता जा रहा है।
दो  साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक सर्वे कराया था। उस सर्वे के मुताबिक विश्व के सर्वाधिक निराश और हताश लोगों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है। उस सर्वे के मुताबिक भारत के नौ फीसदी लोग लंबे समय से अपने जीवन से निराशाजनक स्थिति से गुजर रहे हैं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि भारत जैसे धार्मिक व आध्यात्मिक देश के 36 फीसदी लोग, तो गंभीर रूप से हताशा की स्थिति (मेजर डिप्रेसिव एपीसोड) में हैं...और इस हताशा की स्थिति के कारण ही देश में एक तिहाई से भी अधिक लोग उदास हैं। उनके जीवन में आनंद व ऊर्जा की अनुभूति समाप्ति के कगार पर है। वे अपराध-बोध की भावना से ग्रस्त हैं। परिणामत: उनकी भूख और निंद्रा धीरे-धीरे सिमट रही है। साथ ही अब उन्हें अपना जीवन उपयोगी नजर नहीं आता। इंस्टीट्यूट आफ ह्यूमन विहेवियर एड एलाइड साइंसेस की रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक सहभागिता कम होने से लोगों मे अवसाद बढ़ रहा है। शहरी समाज का संपूर्ण मनोविज्ञान पूंजी-उन्मुख हो  जाने से हर कोई भौतिक सुख के पीछे भाग रहा है। सफलता और विफलता के बीच बढ़ते फासले ने लोगों को अकेलेपन, अलगाव और अवसाद मे घेर लिया है। हमारा सरोकार सिर्फ  खुद से रह गया है।   

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