Tuesday, September 24, 2013

बीवी का स्टिंग आपरेशन

-अशोक मिश्र
पता नहीं क्यों, आज मुझे सबसे ज्यादा गुस्सा स्टिंग आपरेशन चलाने वालों पर आ रहा है। दुनिया में पहला स्टिंग आपरेशन चलाने वाला अगर मुझे मिल जाता, तो उसके कान के नीचे दो-चार कंटाप लगाकर लाल कर देता। पहला स्टिंग आपरेशन चलाने वाले ने देश-दुनिया के प्रेमियों के लिए कितनी बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है, अगर वह समझ जाता तो शायद स्टिंग आपरेशन से तौबा कर लेता। मेरी नजर में स्टिंग आपरेशन के सूत्रधार दो ही व्यक्ति हो सकते हैं, मुनि शिरोमणि नारद या फिर धृतराष्ट्र चैनल के कैमरा मैन विद रिपोर्टर संजय। आज तक पत्रकारिता के ज्ञात इतिहास के मुताबिक दुनिया के सबसे पहले पत्रकार और टीवी के सबसे पहले कैमरामैन विद रिपोर्टर महाराज धृतराष्ट्र के सारथी संजय थे। संजय धृतराष्ट्र चैनल के पेड इंप्लाई थे और रोज चैनल में उनका आंखों देखा हाल प्रसारित होता था। सुना है कि महाभारत युद्ध के बाद चैनल बंद कर दिया गया था, लेकिन नारद तो अपने जीवन के अंतिम समय तक पत्रकारिता के फील्ड में जमे रहे। उस समय आज की तरह अट्ठावन या साठ साल की उम्र में रिटायर कर देने का कोई नियम तो था नहीं। उस पर नारद जी का बर्थ सर्टिफिकेट भी नहीं बना था। जब भी उनके रिटायरमेंट की बात चलती, तो झट से कह देते थे कि साठ का हो जाऊंगा, तो खुद ही रिटायर हो जाऊंगा। मेरे कैल्कुलेशन के मुताबिक, नारद जी कई बार स्टिंग आपरेशन चलाकर देवों और दानवों के बीच झगड़ा करा चुके थे। कई बार देवराज इंद्र को नारद जी की वजह से देवलोक छोड़कर मृत्युलोक आना पड़ा था। उस समय नारद जी का आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाला कार्यक्रम ‘वाइस आफ नारद’ काफी लोकप्रिय हुआ था।
इधर इक्कीसवीं सदी में किसी खुराफाती पत्रकार ने स्टिंग आपरेशन की मृतप्राय परंपरा को पुनर्जीवित कर दिया है। आजकल तो स्टिंग आपरेशन चलाने वालों की चांदी है। इन लोगों ने अपनी दुकान तो चमका ली, लेकिन दूसरों की दुकान के टिमटिमाते बल्ब फ्यूज हो गए हैं, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया है। स्टिंग आॅपरेशन ने उन पत्नियों के हाथ में ब्रह्मास्त्र थमा दिया है, जिन्हें अपने पति के ‘अच्छे’ चाल चलन का थोड़ा-सा भी यकीन है। पति को आॅफिस से आने में दस-बारह मिनट देर हुई नहीं कि पत्नी की पूछताछ चालू हो गई। इतनी देर कहां लगा दी? सड़क पर चलते समय सीधे क्यों नहीं देखते? चकरमकर दायें-बायें क्यों देखते हो? कल मिसेज वर्मा से बहुत हंस-हंसकर बतिया रहे थे, क्या बातें हो रही थीं तुम दोनों के बीच? परसों तुम्हारे आगे चल रही लड़की कौन थी? कल मेरी मौसेरी बहन बबिता बता रही थी कि चार नंबर की बस में तुम किसी लड़की की बगल में बैठकर गप्प लड़ाते हुए आफिस जाते हो। कल से चार नंबर की बस से जाने की बजाय टैंपो से आफिस जाओगे, समझे! मुझे तो तुम्हारी इस शर्मनाक करतूत का पता ही नहीं चलता। अगर बबिता कल तुम्हें उस कलमुंही के साथ गपियाते हुए न देख लेती।..अब भला बेचारे पति को क्या मालूम कि आगे-आगे चलने वाली लड़की कौन थी और कहां से आ रही थी? किसी से हंसकर दो-चार बातें कर लेना, इश्क लड़ाना है क्या?
अब मुझे ही लीजिए। जब भी कहीं से घूमकर आता हूं, तो भले ही किसी की मैय्यत में शामिल होने गया होऊं, घरैतिन की घूरती आंखें स्टिंग आपरेशन में उपयोग किए जाने वाले कैमरे के लेंस की तरह मुआयना करती हैं। कमीज या कोट के दोनों कंधों पर किसी के बाल या कोई और निशानी बड़ी सूक्ष्मता से तलाशे जाते हैं, जेबों की तलाशी इस तरह ली जाती है, मानो किसी देशद्रोही के खिलाफ कोई सुबूत खोजा जा रहा हो। जब भी घरैतिन किसी अखबार में छपे स्टिंग आपरेशन की खबर पढ़कर मुस्कुराती हैं, तो सच मानिए, मेरे होश गुम हो जाते हैं। पता नहीं कब और किससे चोंच लड़ाता पकड़ लिया जाऊं। पहले बात-बात पर मस्का मारने वाली बीवी अब रह-रहकर दहाड़ती है, गुर्राती है।
कल की ही बात है। बारह वर्षीय बेटे टिल्लू को लेकर मैं सब्जी खरीदने गया। वहां संयोग से कद्दू खरीदती छबीली से मुलाकात हो गई। दुआ-सलाम के बाद वह टिल्लू को लेकर दिलाने चली गईं और मैं सब्जी खरीदने लगा। बेटा लौटा, तो उसके पास कई तरह के खिलौने और चाकलेट के पैकेट्स थे। इसके बाद हम दोनों लौट पड़े। लौटते समय बेटे ने मुझसे कॉपी खरीदने के लिए दस रुपये मांगे, तो मैंने दे दिए। घर पहुंचकर सब्जियों का थैला किचन में रखा और कमरे में बैठकर टीवी देखने लगा। मां-बेटे आपस में बतियाने लगे। फिर पता नहीं क्या हुआ कि घरैतिन पाकिस्तानी फौज की तरह एकाएक झपटीं, ‘अच्छा तो अब सब्जी मंडी में इश्क फरमाया जाने लगा है। बुढ़ापे में प्रेम घरौंदा बसाया जा रहा है।’ मैं भौंचक्का रह गया। तभी अपनी मम्मी के पीछे खड़े साहबजादे ने नहले पर दहला जड़ा, ‘और मम्मी, पापा ने मुझे दस रुपये की और छबीली आंटी ने खिलौनों-चाकलेट्स की रिश्वत दी, ताकि यह बात मैं आपको न बताऊं।
अब भला मैं दस रुपये के लिए अपना ईमान क्यों खराब करूं, जबकि आप बीस रुपये देने का वायदा कर चुकी हैं।’ मामला समझ में आते ही मेरे होश उड़ गए। मुझे लगाकि आज मैं बलि का बकरा बना दिया जाऊंगा। ये दोनों मां-बेटे मेरी किसी भी दलील और अपील को सुने बिना ही सूली पर चढ़ा देंगे। इसी बौखलाहट में मैं बेटे पर झपट पड़ा, ‘अबे   तुझे शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए..रुक जा, तेरी खाल खींचता हूं। नालायक।’ बेटे के आगे घरैतिन ढाल बनकर खड़ी हो गईं, ‘खबरदार! जो बेटे को टेढ़ी नजर से देखा..एक तो पराई औरतों से इश्क फरमाते हो और बेटे को डांटते हो। आपको शर्म आनी चाहिए। आप क्या समझते हैं कि आप बाहर इश्क फरमाते रहेंगे और मुझे पता ही नहीं चलेगा।’
‘और मम्मी..छबीली आंटी ने मेरे जिस गाल पर पप्पी ली थी, डैडी उस गाल को काफी देर तक सहलाते रहे हैं। मम्मी, कल पापा छबीली आंटी के साथ शायद फिल्म देखने जाएं। छबीली आंटी इशारे से बता रही थीं कि कल कहां मिलना है।’ बेटा मेरी भट्ठी बुझाने पर ही तुला था। इसके बाद क्या हुआ होगा, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। कोई ऐसी-वैसी बात न होते हुए भी मुझे दोबारा ऐसा अकृत्य (जो कभी किया ही न हो) न करने की कसम खानी पड़ी।

Tuesday, September 17, 2013

राजनीतिक पलटासन शिविर

-अशोक मिश्र
पिछले कुछ महीने से काफी ऊहापोह में था। आखिर एक दिन दिल को कड़ा करके दिल्ली के आलीशान होटल में राजनीतिक पलटासन शिविर का आयोजन कर ही डाला। इसके लिए सबसे पहले कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा और आप से लेकर ‘बाप’ तक के सुप्रीमो को पत्र लिखकर उनसे अपने नौसिखिया नेताओं को शिविर में भेजने का आग्रह किया। सबने इस पत्र को गंभीरता से लेते हुए अपने भावी नेताओं को शिविर में भेजने का आश्वासन दिया। कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के अध्यक्षों ने शिविर की सफलता की कामना करते हुए संदेश भी भेजा। शिविर में भाग लेने की फीस बस मामूली रखी गई थी, पच्चीस हजार रुपये प्रति व्यक्ति। शिविर में लगभग दस हजार नवांकुर नेताओं और नेत्रियों ने भाग लिया। राजनीतिक पलटासन सिखाने आए विश्व प्रसिद्ध पाकेटमार उस्ताद गुनाहगार। शिविर का उद्घाटन करते हुए उस्ताद गुनाहगार ने कहा, ‘आप लोग जिस पार्टी के कार्यकर्ता हैं, नेता हैं, वे सभी पार्टियां चोर हैं, अपनी मां की बहन के बेटे के भाई हैं। अगर साफ-साफ शब्दों में कहूं, तो सारे के सारे कसाई हैं। देश की सभी पार्टियां उचक्की हैं, अमीरों की तरफदार, विदेशी कंपनियों की वफादार और देश की जनता की हकमार हैं।’
उस्ताद गुनाहगार के इतना कहते ही वहां हंगामा खड़ा हो गया। कुछ नए नेता ज्यादा ही भाव खाने लगे। उन्होंने कुर्सियां उठाकर पटकनी शुरू की। उस्ताद गुनाहगार चुपचाप खड़े तोड़फोड़ होता देखते रहे। फिर बोले, ‘आप लोग यह तोड़फोड़ क्यों कर रहे हैं?’ एक युवा नेता ने अपने कुर्ते की बांह समेटते हुए कहा, ‘आप मुझे और मेरी पार्टी को चोट्टा बताएंगे और हम सुनते रहेंगे? ऐसा नहीं होगा। अभी आपने हमारी पार्टी को गाली दी है और गाली का जवाब हम गाली से ही देने के आदी हैं। चूंकि आपसे हम कुछ सीखने आए हैं, ऐसे में आप हमारे गुरु के समान हैं। हमारी सभ्यता-संस्कृति इस बात की इजाजत नहीं देती कि हम आप पर हाथ उठाएं। इसलिए हम अपने गुस्से का इजहार कुर्सियों को तोड़कर कर रहे हैं।’ गुनाहगार मुस्कुराए और बोले, ‘मैंने आपकी पार्टियों को चोट्टा कब कहा?’ खूबसूरत-सी नेत्री ने अपनी आंखें चमकाते हुए कहा, ‘अभी थोड़ी देर पहले कहा। हम लोगों के सामने कहा। आपने देश की सभी पार्टियों को चोर कहा, चोर-चोर मौसेरे भाई कहा।’ उस्ताद गुनाहगार मुस्कुरा रहे थे और मेरी जान निकली जा रही थी।
 गुनाहगार के शानदार और जोरदार उद्घाटन भाषण के चलते अब तक पैंतालीस कुर्सियां शहीद हो चुकी थीं, कुछ कुर्सियां और मेजें घायलावस्था में पड़ी कराह रही थीं। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया, पचास हजार रुपये का चूना। अपने मुनाफे में कमी आने की आशंका के चलते गमगीन हो गया। गुनाहगार शांत भाव से बोले, ‘मैंने ऐसा कब कहा? मैंने तो आपकी पार्टियों को इस देश का भाग्य विधाता कहा, उन्हें भारत जैसे देश के लिए अनिवार्य बताया है। मैंने इस देश की किसी भी पार्टी की बुराई नहीं की है।’ गुनाहगार की बात सुनकर मैं अवाक रह गया। कितनी खूबसूरती से उस्ताद गुनाहगार पलटी मार गए थे। कुछ युवाओं ने अपनी बात कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उस्ताद बोले, ‘देखो..यही है पलटासन। भविष्य में तुम में से कोई नेता बनेगा, कोई मंत्री, सांसद, विधायक होगा। अगर कभी भूल से कोई गलत बात निकल जाए और गलती समझ में आ जाए, तो तुरंत पलटी मार जाओ। तुरंत कहो, मैंने ऐसा कब कहा? अगर कोई सवाल पूछने आए, तो उसी पर गिर पड़ो। सारा आरोप उसी पर मढ़कर चैन की नींद सो जाओ। लोग बतकूचन करते हैं, करते रहें। तुम्हारा क्या बिगाड़ लेंगे?’ ‘मान लो, तुम्हारी पार्टी की सरकार किसी सूबे में है। अगर सूबे की मुख्यमंत्री, मंत्री या पार्टी के पदाधिकारी के मुंह से कोई गलत बात निकल भी जाए, तो सार्वजनिक मंच पर कभी उसकी निंदा मत करो। उसे जायज ठहराने के जितने भी तर्क तुम्हारी तरकश में हों, उनका इस्तेमाल करो। यदि इस पर भी बात न बने, तो आज का सबसे अजेय ब्रह्मास्त्र ‘फलां की बात को गलत संदर्भ में लिया गया’ या ‘आदरणीय मंत्री जी की बात को मीडिया में तोड़ मरोड़कर पेश किया गया’ कहकर ढिठाई से आगे बढ़ जाओ। तुम्हारी सबसे पहली प्राथमिकता विरोधी का मुंह बंद करने की होनी चाहिए। इसके लिए तुम्हें अगर एक ही दिन पहले दिए गए बयान से पलटना भी पड़े, तो एक भी क्षण नहीं लगना चाहिए। तुरंत कहो, मैंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया। अगर मीडिया वाले पिछले बयान की क्लिपिंग दिखाएं, तो तुरंत बयान जारी करो, यह क्लिपिंग फेक (फर्जी) है, इसकी सच्चाई की जांच सीबीआई से करानी चाहिए। अच्छा हो कि तुम खुद आगे बढ़कर प्रदेश या
कें द्र सरकार से सीबीआई जांच की मांग करो।’ उस्ताद गुनाहगार अपने राजनीतिक नवसाक्षरों को पलटासन के गुर सिखा रहे थे। उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘पहले सत्र में मुझे आपको सिर्फ इतना ही बताना था। आप लोग खाली समय में पलटासन का अभ्यास करें। और हां..जिसने भी इन कुर्सियों को शहीद किया है, वह पांच-पांच हजार रुपये प्रति कुर्सी के हिसाब से लूटानंद मिश्र के पास जमा करवा दे। नहीं तो, टूटी कुर्सी-मेजों का खर्च आपकी पार्टियों से ब्याज सहित वसूला जाएगा।’ इतना कहकर उन्होंने मेरी ओर देखा और अपने विश्राम कक्ष में चले गए।

Friday, September 13, 2013

खबरदार! जो संत कहा...

-अशोक मिश्र
मेरे एक सीनियर हैं। नाम है..अरे नाम में क्या रखा है? आप लोग किसी बात को व्यंजना या लक्षणा में नहीं समझ सकते क्या? अब नाम बताना जरूरी है क्या? चलिए बता ही देते हैं, नाम है राम भरोसे (काल्पनिक नाम)। सुबह उठते ही वे सबसे पहले उठकर वे धरती को चूमते हैं। फिर अपनी हथेलियों को बड़ी गौर से निहारते हैं। फिर ‘हरिओम..तत्सत..’ का रौद्र पाठ करते हैं। ‘रौद्र पाठ’ से मतलब है, इतनी जोर से इस मंत्र का उच्चारण करते हैं कि उनके अड़ोसी-पड़ोसी जान जाते हैं, राम भरोसे जी जाग गए हैं। नहाने-धोने के बाद वे हनुमान जी, भोले बाबा, साईं जी महाराज, भगवती दुर्गा..सभी देवी-देवताओं और संत-महात्माओं को सादर प्रणाम करते हैं। आप इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि वे हर देवी-देवता के खाते में अपनी श्रद्धा का इन्वेस्टमेंट करते हैं। पता नहीं, कब और किसकी जरूरत पड़ जाए? इसके बाद आफिस पहुंचते ही वे कुर्सी पर बैठने से पहले मन ही मन सभी सबकी आराध्य देवों को नमन करते हैं।
आज राम भरोसे जी आफिस पहुंचते ही उन्होंने चपरासी को मुझे बुलाने का आदेश दिया और अपने चैंबर में घुस गए। घबराया हुआ मैं अपना सारा काम छोड़कर भागा। मैंने देखा, वे हाथ जोड़कर आंखें बंद किए हुए ध्यान मुद्रा में खड़े हैं। मैं भी बिना कोई आवाज किए एक ओर खड़ा आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे आराधनारत थे, उनके चेहरे के चारों ओर एक दिव्य आभा बिखरी हुई थी। जैसे ही उनकी साधना खत्म हुई और उन्होंने मुझे घूरकर देखा, वह आभा पता नहीं कहां बिला गई। उनके घूरते ही मैं समझ गया, ‘बेटा! आज तेरी खैर नहीं है। जरूर यह बुड्ढा तुझे खरी-खोटी सुनाएगा।’ मैंने मस्का लगाने की नीयत से झट से प्रणाम करते हुए कहा, ‘सर जी! जब आप साधनारत थे, तो मुझे लगा कि आप संत हो गए हैं? आपके चेहरे पर संतों वाली आभा बिखरी हुई थी। सर..मैं तो आपके चेहरे की चमक देखकर हथप्रभ था। अगर आप प्रवचन देने लगें, तो सच कहता हूं, आप चमक जाएंगे। आपके पीछे भक्तों की लाइन लग जाएगी। मैं तो अभी से आपका भक्त हो गया हूं, सर जी।’
मेरी बात सुनते ही वे गुर्राए, ‘बकवास मत करो! मैं संत न हूं, न था और न होऊंगा। खबरदार! जो मुझे संत कहा तो? अभी तुरंत..खड़े के खड़े सस्पेंड कर दूंगा। तुम्हारी मुझे संत कहने की हिम्मत कैसे हुई?’ मैं समझ गया, पासा उल्टा पड़ा है। मैंने झट से माफी मांगते हुए कहा, ‘सॉरी बॉस! मेरे दिल ने जो महसूस किया, वह मैंने कह दिया। आपको अगर संत कहना बुरा लगा, तो अब आगे से नहीं कहूंगा संत।’ उनका पारा अभी भी डॉलर की तरह चढ़ा हुआ था। बोले, ‘सुन..संत-वंत का चक्कर छोड़। अपने काम में मन लगा। बहुत गलतियां हो रही हैं इन दिनों तुझसे। आगे से बर्दाश्त नहीं की जाएगी। मैं तो आजिज आ गया हूं तुम जैसे नाकारा सहयोगियों से।’ मैं किसी लोढ़े की तरह मुंह लटकाए अपनी सीट पर आकर बैठ गया। मेरे सामने बैठे सुखदेव ने चुटकी ली, ‘क्या हुआ उस्ताद! अभी गए डॉलर की तरह थे, लौट रहे हैं रुपये की तरह। मामला क्या है?’ मैंने गहरी सांस ली, ‘कुछ नहीं, यार! बुढ़ऊ सनक गए हैं। मैंने उन्हें संत क्या कह दिया, लगे दंद-फंद बतियाने। मुझे संत मत कहो। मैं संत नहीं हूं। अब अगर संत नहीं हो, तो क्या असंत हो? संत होना कोई गुनाह है क्या? अगर बुढ़ऊ कुछ ज्यादा भौकाल दिखाते, तो मैं उन्हें असंत कह बैठता।’ सुखदेव ने मुझे लाल-पीला होता देखा, तो चुपचाप सरक गया।
दोपहर में रामभरोसे जी ने फिर से इंटरकॉम पर अपने हुजूर में पेश होने का फरमान सुनाया। मुझे देखते ही वे चीखे, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे बुढ़ऊ कहने की, असंत कहने की? तू अपने दिमाग का इलाज करा, वरना अगर मैं इलाज करने पर आया, तो तेरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा।’ राम भरोसे जी की बात सुनकर मैं समझ गया, नामाकूल सुखदेव ने आग लगा दी है। मैंने कहा, ‘नहीं सर..मैंने कुछ नहीं कहा है। आपसे जिसने भी कहा है, वह झूठ कहा है। मैं आपके संतत्व की कसम खाकर कहता हूं, आपको संत या असंत नहीं कहा था।’
 मेरे लाख सफाई देने के बावजूद उनका क्रोध कम नहीं हुआ। वे काफी देर तक डांट पिलाते रहे। मेरे पास सिर झुकाकर सुनने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। किसी थके मुसाफिर की तरह अपनी सीट पर बैठकर काम और सुखदेव की फाइल निबटाने की सोच ही रहा था कि चपरासी ने राम भरोसे जी का ‘सो काज’ नोटिस लाकर पकड़ा दिया। नोटिस में कहा गया था, ‘चौबीस घंटे में अपने सीनियर अधिकारी को संत कहने के संबंध में स्टष्टीकरण नहीं दिया, तो सेवाएं समाप्त कर दी जाएंगी।’
‘सो काज’ नोटिस पाने के बाद से ही मैं सोच रहा हूं, क्या किसी को संत कहना इतना बड़ा गुनाह है कि उसे कारण बताओ नोटिस दी जाए? छिपे शब्दों में उसे नौकरी से निकालने की धमकी दी जाए? आप लोग ही बताइए, मेरा गुनाह क्या सचमुच इतना बड़ा है? कि...।

Tuesday, September 3, 2013

आईएएस की तैयारी

-अशोक मिश्र 
गांव से छोटे भाई का फोन आया कि कंधई काका ने आपको बुलाया है। मैंने छोटे भाई से पूछा भी कि कोई खास बात है क्या? उसने कहा, मुझे मालूम नहीं है। मैं अगले दिन सुबह ही गांव के लिए रवाना हो गया। शाम को पांच बजे गांव पहुंचा, तो छोटे भाई ने कहा, ‘जब आप आ ही गए हैं, तो कंधई काका के दरवाजे पर भी हो आइए।’ आपको बता दें, कंधई काका हमारे पट्टीदार हैं। मेरे बाबा और कंधई काका के पिता दोनों सगे भाई थे। काका के दरवाजे पर पहुंचकर उनके पैर छुए, तो आशीर्वाद देते हुए सामने बैठे कुछ लोगों को सुनाते हुए कहा, ‘जुग-जुग जियो बेटा! यह बचवा तो बचपन से ही बहुत काबिल रहा। मनीसवा तो इसका गुन गाते अघाता नहीं, लेकिन किसमत देखो। बेचारा परेस मा काम करता है। हमने कहा, चलो कोई बात नहीं। कोई धंधा छोटा-बड़ा नहीं होता। परेस ही तो करता है, कोई चोरी-चकारी तो नहीं करता।’ मेरे छोटे भाई ने बीच में काका की बात काट दी, ‘काका! परेस नहीं..प्रेस! भइया, पत्रकार हैं। राजधानी दिल्ली में। अखबार में नौकरी करते हैं।’ ‘हां..हां..वही तो मैं भी बता रहा हूं सुकुल जी से। परेस में काम करता है..येहकर नाम बहुत छपत है अखबारों मा। सुकुल जी! बड़ा होनहार लरिका है यह हमरे गांव का। जब छोट रहा, तो बड़ा सरारती रहा। सुना है, अभी अखबार मा भी सरारत (शरारत) करता रहता है।’
काका की बात सुनकर मैं झेंप गया। मैं पांव छूने की रस्म अदा करके किनारे हट गया। छोटे भाई से पूछा, ‘माजरा क्या है?’ छोटा भाई कान में फुसफुसाया, ‘मनीष भइया के वीडीओ आए हैं।’ ‘वीडीओ..क्या मतलब?’ ‘आप समझे नहीं! वर देखुआ अधिकारी..।’ मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई। दरवाजे के सामने गांव के ही चुन्नान बाबा का ट्रैक्टर खड़ा हुआ था। थोड़ी दूर पर ही नए रखे गए नांदों में दो भैंसें, एक गाय, चार बैल भूसा-पानी खा रहे थे। मैं समझ गया कि कंधई काका वर देखुआ अधिकारियों पर रौब डालने के लिए गांव भर से ट्रैक्टर, ट्राली, गाय-भैंस मंगनी पर लाए हैं।
मैंने कान लगाया। काका सामने बैठे अपने होने वाले समधी शुक्ल जी से कह रहे थे, ‘आप जानते हैं सुकुल जी! जब ई लरिकवा पढ़त रहा, तौ अपने इस्कूल मां फट्ट (फर्स्ट) आवा रहा। हमार मनीसवा तौ दसवीं कच्छा (कक्षा) मा बिलाऊजी मा सगरौ जिला टॉप किया रहा।’ काका की बात सुनकर मैंने अपने भाई की ओर निरीह भाव से देखा और धीरे से पूछा, ‘यह बिलाऊजी कौन सा सब्जेक्ट है दसवीं में। कोई नया सब्जेक्ट जोड़ा गया है?’ मेरी बात सुनकर मेरा छोटा भाई झुंझलाया, ‘आप भी न भइया! इकदमै घोंचू हैं। बिलाऊजी मतलब बॉयलोजी..जीव विज्ञान।’ बिलाऊजी का अर्थ समझते ही मेरी हंसी छूट गई। मैंने ध्यान दिया। कंधई काका कह रहे थे, ‘मनीसवा तो अबही सादी करने को तैयार ही नहीं है। अब आप आए हैं, तो हम मना नहीं कर सकते हैं। आप मनीसवा के मामा के साढू हैं। हम मना भी कर दें, तो मनीसवा की अम्मा नहीं मानेगी। लेकिन एक बात बताए दें, चार लाख नगदी लिए बिना तो हम यहां से हिलेंगे भी नहीं। हमरा मनीसवा इतना हुसियार है कि आज नहीं तो कल, आईएएस होइ ही जाई। अब अगर कहीं डीएम..फीएम लग गवा, तो मारे रुपये के ढेर लगा देगा। अब डीएम-कलक्टर दामाद चाही, तो पैसा खर्च करना ही पड़ेगा... कि नहीं? नगदी से ही मुझे मतलब है। लड़िकवा चार पहिए की गाड़ी मांगत रहा। उस पर हम दूनो परानी (दोनों जने यानी मियां-बीवी) चढ़बै नहीं। घूमै-फिरै तो तोहार बिटिया-दामाद ही जाएंगे।’
यह बात हो ही रही थी कि अंदर से निकलकर मनीष बाहर आया। मुझे देखते ही उसने मेरा पांव छूते हुए पूछा, ‘भइया! आप कब आए? और सब ठीक है न!’ मैंने कहा, ‘हां मनीष! यह बताओ, इन दिनों तुम क्या कर रहे हो?’ मनीष ने तपाक से जोरदार आवाज में जवाब दिया, ‘आईएएस की तैयार कर रहा हूं न, भइया! पिछले दो साल से इलाहाबाद में रहकर कोचिंग कर रहा हूं। आप बप्पा को समझाइए न! अबही सादी-वादी के झंझट मा हमका न फसांवै। यू नो भइया! इन बातों से कंसंट्रेट डैमेज (उसके कहने का मतलब भंग होने से था) होता है।’ उसकी बात सुनकर कंधई काका ने सुकुल जी को सुनाते हुए कहा, ‘अरे..ई मनीसवा..तौ एक बार डीएम साहब से अंगरेजी मां इतना बात किहिस कि वे भौंचक रह गए। डीएम साहब आए रहा गांव की पुलिया का उद्घाटन करै। ऊ कौनो सबद अंगरेजी मा गलत बोले। ई मनीसवा, वहीं खड़ा रहा। यह से बर्दाश्त नहीं हुआ। टोक दिया डीएम साहब को। फिर क्या हुआ। दोनों लोग लगे अंगरेजी मा गिटिर-पिटिर करै। बाद मा जाते समय डीएम साहब बोले, ई लरिका बहुत आगे जाई। बड़ा तेज लरिका है। कहीं का डीएम-कलक्टर बनी।’
यह बात सुनकर शुक्ल जी ने अपने साथ आए लोगों को उठने का इशारा किया। उन्होंने थोड़ी देर आपस में विचार विमर्श किया और फिर कंधई काका से बोले, ‘हमें अपनी बेटी सुधन्या के लिए लड़का पसंद है। लेकिन आप मांग बहुत रहे हैं। हम गाड़ी और गहना-गुरिया तो दे देंगे, लेकिन चार लाख बहुत हैं। तीन लाख पर मान जाइए, तो बात पक्की समझिए।’ काफी ना-नुकुर, मोल-तोल के बाद बात साढ़े तीन लाख पर फाइल हुई। उस शादी में मैं भी जोर देकर बुलाया गया। शादी के बाद कुछ साल तक तो मनीष आईएएस की तैयारी करते रहे, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वे समझौतावादी होते गए। और   आजकल तो वे सुना है, किसी प्राइवेट स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाकर भावी आईएएस तैयार कर रहे हैं।