Tuesday, September 3, 2013

आईएएस की तैयारी

-अशोक मिश्र 
गांव से छोटे भाई का फोन आया कि कंधई काका ने आपको बुलाया है। मैंने छोटे भाई से पूछा भी कि कोई खास बात है क्या? उसने कहा, मुझे मालूम नहीं है। मैं अगले दिन सुबह ही गांव के लिए रवाना हो गया। शाम को पांच बजे गांव पहुंचा, तो छोटे भाई ने कहा, ‘जब आप आ ही गए हैं, तो कंधई काका के दरवाजे पर भी हो आइए।’ आपको बता दें, कंधई काका हमारे पट्टीदार हैं। मेरे बाबा और कंधई काका के पिता दोनों सगे भाई थे। काका के दरवाजे पर पहुंचकर उनके पैर छुए, तो आशीर्वाद देते हुए सामने बैठे कुछ लोगों को सुनाते हुए कहा, ‘जुग-जुग जियो बेटा! यह बचवा तो बचपन से ही बहुत काबिल रहा। मनीसवा तो इसका गुन गाते अघाता नहीं, लेकिन किसमत देखो। बेचारा परेस मा काम करता है। हमने कहा, चलो कोई बात नहीं। कोई धंधा छोटा-बड़ा नहीं होता। परेस ही तो करता है, कोई चोरी-चकारी तो नहीं करता।’ मेरे छोटे भाई ने बीच में काका की बात काट दी, ‘काका! परेस नहीं..प्रेस! भइया, पत्रकार हैं। राजधानी दिल्ली में। अखबार में नौकरी करते हैं।’ ‘हां..हां..वही तो मैं भी बता रहा हूं सुकुल जी से। परेस में काम करता है..येहकर नाम बहुत छपत है अखबारों मा। सुकुल जी! बड़ा होनहार लरिका है यह हमरे गांव का। जब छोट रहा, तो बड़ा सरारती रहा। सुना है, अभी अखबार मा भी सरारत (शरारत) करता रहता है।’
काका की बात सुनकर मैं झेंप गया। मैं पांव छूने की रस्म अदा करके किनारे हट गया। छोटे भाई से पूछा, ‘माजरा क्या है?’ छोटा भाई कान में फुसफुसाया, ‘मनीष भइया के वीडीओ आए हैं।’ ‘वीडीओ..क्या मतलब?’ ‘आप समझे नहीं! वर देखुआ अधिकारी..।’ मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई। दरवाजे के सामने गांव के ही चुन्नान बाबा का ट्रैक्टर खड़ा हुआ था। थोड़ी दूर पर ही नए रखे गए नांदों में दो भैंसें, एक गाय, चार बैल भूसा-पानी खा रहे थे। मैं समझ गया कि कंधई काका वर देखुआ अधिकारियों पर रौब डालने के लिए गांव भर से ट्रैक्टर, ट्राली, गाय-भैंस मंगनी पर लाए हैं।
मैंने कान लगाया। काका सामने बैठे अपने होने वाले समधी शुक्ल जी से कह रहे थे, ‘आप जानते हैं सुकुल जी! जब ई लरिकवा पढ़त रहा, तौ अपने इस्कूल मां फट्ट (फर्स्ट) आवा रहा। हमार मनीसवा तौ दसवीं कच्छा (कक्षा) मा बिलाऊजी मा सगरौ जिला टॉप किया रहा।’ काका की बात सुनकर मैंने अपने भाई की ओर निरीह भाव से देखा और धीरे से पूछा, ‘यह बिलाऊजी कौन सा सब्जेक्ट है दसवीं में। कोई नया सब्जेक्ट जोड़ा गया है?’ मेरी बात सुनकर मेरा छोटा भाई झुंझलाया, ‘आप भी न भइया! इकदमै घोंचू हैं। बिलाऊजी मतलब बॉयलोजी..जीव विज्ञान।’ बिलाऊजी का अर्थ समझते ही मेरी हंसी छूट गई। मैंने ध्यान दिया। कंधई काका कह रहे थे, ‘मनीसवा तो अबही सादी करने को तैयार ही नहीं है। अब आप आए हैं, तो हम मना नहीं कर सकते हैं। आप मनीसवा के मामा के साढू हैं। हम मना भी कर दें, तो मनीसवा की अम्मा नहीं मानेगी। लेकिन एक बात बताए दें, चार लाख नगदी लिए बिना तो हम यहां से हिलेंगे भी नहीं। हमरा मनीसवा इतना हुसियार है कि आज नहीं तो कल, आईएएस होइ ही जाई। अब अगर कहीं डीएम..फीएम लग गवा, तो मारे रुपये के ढेर लगा देगा। अब डीएम-कलक्टर दामाद चाही, तो पैसा खर्च करना ही पड़ेगा... कि नहीं? नगदी से ही मुझे मतलब है। लड़िकवा चार पहिए की गाड़ी मांगत रहा। उस पर हम दूनो परानी (दोनों जने यानी मियां-बीवी) चढ़बै नहीं। घूमै-फिरै तो तोहार बिटिया-दामाद ही जाएंगे।’
यह बात हो ही रही थी कि अंदर से निकलकर मनीष बाहर आया। मुझे देखते ही उसने मेरा पांव छूते हुए पूछा, ‘भइया! आप कब आए? और सब ठीक है न!’ मैंने कहा, ‘हां मनीष! यह बताओ, इन दिनों तुम क्या कर रहे हो?’ मनीष ने तपाक से जोरदार आवाज में जवाब दिया, ‘आईएएस की तैयार कर रहा हूं न, भइया! पिछले दो साल से इलाहाबाद में रहकर कोचिंग कर रहा हूं। आप बप्पा को समझाइए न! अबही सादी-वादी के झंझट मा हमका न फसांवै। यू नो भइया! इन बातों से कंसंट्रेट डैमेज (उसके कहने का मतलब भंग होने से था) होता है।’ उसकी बात सुनकर कंधई काका ने सुकुल जी को सुनाते हुए कहा, ‘अरे..ई मनीसवा..तौ एक बार डीएम साहब से अंगरेजी मां इतना बात किहिस कि वे भौंचक रह गए। डीएम साहब आए रहा गांव की पुलिया का उद्घाटन करै। ऊ कौनो सबद अंगरेजी मा गलत बोले। ई मनीसवा, वहीं खड़ा रहा। यह से बर्दाश्त नहीं हुआ। टोक दिया डीएम साहब को। फिर क्या हुआ। दोनों लोग लगे अंगरेजी मा गिटिर-पिटिर करै। बाद मा जाते समय डीएम साहब बोले, ई लरिका बहुत आगे जाई। बड़ा तेज लरिका है। कहीं का डीएम-कलक्टर बनी।’
यह बात सुनकर शुक्ल जी ने अपने साथ आए लोगों को उठने का इशारा किया। उन्होंने थोड़ी देर आपस में विचार विमर्श किया और फिर कंधई काका से बोले, ‘हमें अपनी बेटी सुधन्या के लिए लड़का पसंद है। लेकिन आप मांग बहुत रहे हैं। हम गाड़ी और गहना-गुरिया तो दे देंगे, लेकिन चार लाख बहुत हैं। तीन लाख पर मान जाइए, तो बात पक्की समझिए।’ काफी ना-नुकुर, मोल-तोल के बाद बात साढ़े तीन लाख पर फाइल हुई। उस शादी में मैं भी जोर देकर बुलाया गया। शादी के बाद कुछ साल तक तो मनीष आईएएस की तैयारी करते रहे, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, वे समझौतावादी होते गए। और   आजकल तो वे सुना है, किसी प्राइवेट स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाकर भावी आईएएस तैयार कर रहे हैं।

2 comments:

  1. वहुत सून्दर भाई साहब......

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  2. अशोक जी आप बहुत बढ़िया लिखत हौ. लेकिन इ बताओ की दहेज़ के खिलाफ कब लिखबो. एकरे कारण तौ समाज का बहुत बुरा हाल है. अगर ये ही हाल रही तौ कोई बिटिया का पैदा करे के पहले निबटाई देब बेहतर समझी बनिस्बत एकरे की शादी के दहेज़ कै इंतजाम करी.

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