Saturday, February 15, 2014

भ्रष्ट मीडिया का कच्चा-चिट्ठा

-सुभाष चंद्र
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है मीडिया। चमक-दमक से भरपूर। मीडिया से बाहर रहने वालों को बहुत लुभाता है यह पेशा। मीडिया में एक ऊर्जा हमेशा प्रवाहमान रहती है। पत्रकारिता मिशन है या व्यवसाय? इस पर पिछले कुछ दशक से बहस तेज हो गई है। आज हालात यह है कि पत्रकारिता न विशुद्ध रूप से मिशन रह गया है, न व्यवसाय। एक अजीब सा घालमेल मीडिया में पैदा हो गया है। कुछ लोग मीडिया को मिशन मानकर आते हैं, कुछ साल मिशनरी जज्बे से काम भी करते हैं, लेकिन अंतत: व्यावसायिक हितों के आगे हथियार रख देते हैं। वे न पूरी तरह से विशुद्ध मिशनरी रह पाते हैं, न व्यवसायी। एक पत्रकार की जीजीविषा, उसके मानवीय और सामाजिक सरोकार, घुटन, मजबूरी और उससे उत्पन्न कुंठा आदि को शब्द प्रदान करता है उपन्यास ‘सच अभी जिंदा है’। उपन्यास का मुख्य किरदार है शिवाकांत।  मिशनरी जज्बे से लैस होकर जब इस पेशे में आता है, तो उसे कदम-दर-कदम ऐसे लोगों से जूझना पड़ता है, जो पत्रकारिता को सिर्फ व्यवसाय समझकर आए हैं। दैनिक प्रहरी में वह महसूस करता है कि संपादक से लेकर संवाददाता और उप संपादक तक एक दूसरे की टांग खींचने, चुगली करने, डग्गा वसूलने और अखबार मालिक की नजर में बने रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। वह इन स्थितियों के खिलाफ उठकर खड़ा होता है, तो उस पर एक रिसॉर्ट मालिक से वसूली का झूठा आरोप लगाया जाता है। वह मजबूरन इस्तीफा देकर चला आता है।
नौकरी की तलाश उसे लखनऊ से दिल्ली लेकर आती है। एक दिन वह आठ वर्षीय सोनिया से हुए सामूहिक बलात्कार खबर कवर करने क्या जाता है मानो मुसीबत ही मोल ले लेता है। अस्पताल में सोनिया की मौत हो जाती है। वह अखबार में मुख्य खबर के साथ-साथ कई साइड स्टोरियां भेजता है, लेकिन अगले दिन जब वह अखबार देखता है, तो वह आश्चर्यचकित रह जाता है। उसकी खबरें तोड़-मरोड़कर छापी गई थीं। साइड स्टोरियों के तथ्य बदल दिए गए थे। विरोध करने पर उसे टाल दिया जाता है। बात में छानबीन करने पर उसे पता चलता है कि दिल्ली के एक बहुत बड़े बिल्डर ने सभी अखबारों को मैनेज कर लिया था। सात दिन में उसके अखबार को ही पैंतीस लाख रुपये का विज्ञापन दिया गया था। वह इसके विरोध में अपने समाचार संपादक के सामने विरोध प्रकट करता है, तो उसे पत्रकारिता और व्यवसाय की मजबूरियां बताकर चुप करने का प्रयास किया जाता है। उधर, अस्पताल में दम तोड़ती हुई सोनिया की सुनी गई चीखें उसे मजबूरन इस स्थिति के खिलाफ खड़ा होने को बाध्य करती हैं। वह अपने एक मित्र के साथ लिव इन रिलेशन में रह रही पत्रकार शालिनी की मदद से दिल्ली के कुछ स्वयंसेवी संगठनों को इसके खिलाफ खड़ा करता है। शिवाकांत के अखबार का संपादक और समाचार संपादक सोनिया के साथ हुए गैंगरेप की घटना के विरोध में जंतर-मंतर पर होने वाले प्रदर्शन में भाग लेने पर नौकरी से निकालने की धमकी देता है, तो वह नौकरी छोड़ना बेहतर समझता है। प्रदर्शन के दौरान कुछ अराजक तत्वों के पथराव करने पर शालिनी और शिवाकांत घायल हो जाते हैं। तीन दिन बाद शालिनी की मौत हो जाती है। एक बार फिर शिवाकांत बेरोजगारी का दंश झेलने के लिए मजबूर हो जाता है।
डेढ़ महीने की बेरोजगारी के बाद उसके लिए आगरा की एक चिटफंड कंपनी के निकलने जा रहे अखबार पृथ्वी एक्सप्रेस में नौकरी प्रस्ताव मिलता है। वह नौकरी ज्वाइन करता है। चिटफंड कंपनी में नौकरी के दौरान उसे महसूस होता है कि यह एक अलग ही दुनिया है। चिटफंड कंपनी पत्रकारों और पत्रकारिता से जुड़े लोगों को अपने ही हिसाब से हांकती है। कंपनी का सीएमडी आश्वासन किसी को देता है, नियुक्त किसी और को करता है। पृथ्वी एक्सप्रेस में कई गुट सक्रिय हैं। प्रधान संपादक का एक गुट अलग, संपादक का गुट अलग। इन दोनों गुटों में पिसता शिवाकांत और उसके जैसे कई पत्रकार। स्वार्थ और गुटबाजी का बोलबाला इस कदर व्याप्त है पृथ्वी एक्सप्रेस में कि शिवाकांत की आत्मा कराह उठती है। एक दिन शराब पार्टी में वह संपादक को उसकी कुछ गलतियों की ओर इशारा करके शिवाकांत मानो सांप के बिल में हाथ डाल बैठता है। चिटफंड कंपनी का अपना चरित्र, उस पर पत्रकारिता के मूल्यों का होता ह्रास, जनता से वसूले गए पैसों की बंदरबाट, संस्थान में चल रही गुटीय राजनीति एक दिन शिवाकांत को इतना उत्तेजित कर देती है कि वह संपादक और प्रधान संपादक से बहस कर बैठता है। काफी दिनों से उसे निकालने की फिराक में लगे दोनों गुटों को मौका भी मिलता है, चिटफंड कंपनी द्वारा खरीदे गए एक होटल के उद्घाटन समारोह में। चिटफंड कंपनी का एक टीवी चैनल भी चलता है। वह उद्घाटन समारोह के दौरान थोड़ी देर सीएमडी के पास खड़ा रह जाता है और इसी बात को प्रधान संपादक और संपादक आपसी वैरभाव भूलकर इतना तूल देते हैं कि मजबूरन एक बार फिर शिवाकांत को इस्तीफा देना पड़ता है। पत्रकारिता जगत में व्याप्त विसंगतियों, आपसी खींचतान, उठापटक के साथ-साथ देश में चल रही चिटफंड कंपनियों का चरित्र भी इस उपन्यास में उभर कर सामने आया है।

उपन्यास : सच अभी जिंदा है
उपन्यासकार : अशोक मिश्र
प्रकाशक : भावना प्रकाशन,
            108 ए, पटपड़गंज,   दिल्ली
मूल्य : 650 रुपये     पृष्ठ : 346

Friday, February 14, 2014

उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार

-अशोक मिश्र
जी हां! मैंने यही कहा था, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार।’ बात यह हुई थी कि मैं सुबह उठकर अखबार पढ़ते हुए एक कप चाय का इंतजार कर रहा था। घरैतिन किचन में पता नहीं क्या कर रही थीं। चाय की तलब  काफी तेज लगी हुई थी कि तभी घरैतिन ने चाय का कप थमाते हुए पूछ लिया, ‘सुनो जी! यह व्यंग्यकार क्या होता है?’ काफी देर से चाय के इंतजार में भीतर ही भीतर उबल रहा मैं सचमुच उबल पड़ा, ‘उल्लू की दुम होता है व्यंग्यकार। खब्तुलहवास होता है व्यंग्यकार। उस पर चौबीस घंटे एक अजीब सी खब्त सवार होती है। माघ-पूस में वह फाल्गुनी मादकता से ओतप्रोत रहता है, तो जेठ की दुपहरिया में वह कंबल ओढ़कर वर्षागीत गाता है। कहने का मतलब यह है कि व्यंग्यकार वह जीव होता है, जो उल्टा सोचता है, उल्टा चलता है, बेचैन आत्मा होता है।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन घबरा उठीं। चाय रखकर अपना पिटा सा मुंह लेकर वह दोबारा किचन रूपी कोपभवन में जाने लगीं, तो मुझे लगा कि मैंने कुछ ज्यादा ही व्याख्या कर दी है। अगर घरैतिन को मनाकर डैमेज कंट्रोल नहीं किया गया, तो अपनी बैंड बजनी तय है। सो, लपककर बड़े प्रेम से घरैतिन का हाथ पकड़कर अपने पास बिठाते हुए कहा, ‘ओह प्रियतमे! तुम कहीं मेरी बात का बुरा तो नहीं मान गईं? मेरे अंतस्थल के मरुथल में अपनी संपूर्ण मादकता और प्रीत के साथ बहने वाली बासंती बयार! तुम अगर रूठ गईं, तो मेरे जीवन की पुष्पित-पल्लवित बगिया में असमय पतझड़ का समावेश हो जाएगा।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘मैंने आपसे सीधा-सा सवाल किया था, आपने टेढ़ा मेढ़ा जवाब दिया। अब लंतरानी हांकने की बजाय सीधे-सीधे बताइए कि आप कहना क्या चाहते हैं?’
घरैतिन के कर्कश शब्दों को सुनकर मुझे लग गया कि डैमेज कंट्रोल का मेरा प्रयास निरर्थक ही जाएगा। मैंने घरैतिन को पुचकारने वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने कोई गलत सवाल नहीं किया था। मैंने भी गलत जवाब नहीं दिया था। बात दरअसल यह है कि सचमुच उल्लू की दुम होते हैं हम। तुम कह सकती हो कि रात में जलाए गए अलाव को दो दिन बाद कुरेद-कुरेदकर क्रांति की चिंगारियां तलाशते हैं। जब सारी दुनिया चैन से सोती है, हम पूरी दुनिया की चिंता में दुबले होते रहते हैं। जब सारी दुनिया किसी नेता, अधिकारी, सांसद या विधायक की प्रशंसा में कसीदे काढ़ती है, तो व्यंग्यकार उसकी धोती खोलने के जुगाड़ में लगा होता है। व्यंग्यकार की रडार पर आया हुआ व्यक्ति उसका दुश्मन ही हो, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। जाति, धर्म, संप्रदाय, राष्ट्र की सीमा से परे होता है व्यंग्यकार। तुम यों समझो कि दुधारी तलवार की तरह होता है वह। जो तलवार चलाता है, वह भी घायल होता है, जिस पर चलती है, वह भी घायल होता है।’ इतना कहकर मैंने घरैतिन को अनुराग पूर्ण नेत्रों से देखा और कहा, ‘जानती हो, जब-जब तुम कोई लजीज व्यंजन पकाती हो या मेरा ध्यान रखने लगती हो, तो मैं सतर्क हो जाता हूं। मुझे लगता है कि जरूर इसमें तुम्हारा कोई न कोई स्वार्थ है। इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, दरअसल यह व्यंग्यकारों की प्रवृत्ति का ही दोष है। अगर वह सीधा सोचने-समझने लगे, तो व्यंग्य लिख ही नहीं सकता।’
घरैतिन ने टालने  वाले अंदाज में कहा, ‘तुमने अभी बेचैन आत्मा की बात की थी। उसका क्या मतलब है?’ मैंने उसे समझाने वाले लहजे में कहा, ‘बात दरअसल यह है कि इस दुनिया में सारी आत्माएं या तो पुण्यात्मा होती हैं या फिर पापात्मा। कुछ आत्माएं ऐसी भी होती हैं, जो न तो पुण्यात्मा होती हैं, न ही पापात्मा। ये बेचैन आत्माएं होती हैं। हालांकि इस पूरी दुनिया में ऐसी बेचैन आत्माएं रेयरेस्ट आॅफ द रेयरेस्ट ही होती हैं, लेकिन होती तो हैं। इन बेचैन आत्माओं को जब देह धारण करने का मौका मिलता है, तो ऐसी आत्माएं पैदा होने के बाद बड़ी होकर व्यंग्यकार हो जाती हैं। इन आत्माओं को जीवन भर चैन नहीं मिलता। ये बेचैन आत्माएं यानी व्यंग्यकार हर काम, हर भावना, हर बात में कोई न कोई नुक्स जरूर ढूंढता है। व्यंग्यकार कभी सीधा चल ही नहीं सकता है। अगर चला, तो बेमौत मारा जाएगा। मरने पर उसे मोझ नहीं मिलने वाला। वह फिर बेचैन आत्मा हो जाएगा। ‘जो कुछ था, सोई भया’ की तरह। लेकिन एक बात बताऊं। सच्चा व्यंग्यकार अपना भला भले ही न कर पाए, लेकिन पूरी दुनिया का बहुत भला करता है। वह जिस पर व्यंग्य लिखता है, वह तो तिलमिलाता ही है, पढ़ने वाले भी मुंह बना देते हैं। वह व्यक्तिपरक नहीं लिखता, सीधा प्रवृत्ति या व्यवस्था पर चोट करता है। इस दुनिया में बहुत सारे लोग सीधे रास्ते चलते और गलत रास्ते पर पहुंच जाते हैं, लेकिन व्यंग्यकार गलत रास्ते से शुरुआत करके सीधे रास्ते पर आ जाता है। नकार (नकारात्मक) से चलकर सकार (सकारात्मक) तक आने वाला सिर्फ व्यंग्यकार ही होता है।’ मेरी बात सुनकर घरैतिन ने असमंजस पूर्ण ढंग से ऐसे सिर हिलाया, मानो आधी बात समझ में आई हो, आधी नहीं। वह उठते हुए बोलीं, ‘आपकी बाकी व्याख्या बाद में सुनुंगी, चलूं चुन्नू को नाश्ता दे दूं।’ मैं भी अखबार पढ़ने के साथ-साथ ठंडी हो चुकी चाय पीने में लग गया।

Wednesday, February 12, 2014

तोहार कवन बान राजा...

अशोक मिश्र 
संपादक जी मुझे हौंक रहे थे, ‘यार! कभी तो कोई अच्छी स्टोरी कर लिया करो। हर बार तुम अपनी स्टोरी में कोई न कोई ऐसा नुक्स छोड़ ही देते हैं जिसके चलते अगली सुबह मुझे मालिक की सुननी पड़ती है। सुनो! कल वेलेंटाइन डे पर अगर कोई अच्छी स्टोरी नहीं मिली, तो तुम्हारा भगवान ही मालिक है। अच्छी स्टोरी मतलब...कोई धड़कती सी, फड़कती सी, कड़कती सी स्टोरी। और अब..दफा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से। जिस दिन तुम्हारा सुबह-सुबह मुंह देख लेता हूं, उस दिन जरूर अखबार में कोई ब्लंडर छप जाता है।’ हौंके जाने पर किसी नाक बहाते, थूक चुवाते बच्चे की तरह रिरियाता हुआ उनकी केबिन से बाहर आया। अगर कुछ बोलता, तो नौकरी जाने का भी खतरा था। सोचने लगा, वेलेंटाइन डे पर कौन सी स्टोरी करूं कि धमाका हो जाए? कि जिसको पढ़कर संपादक जी धड़क जाएं, फड़क जाएं और भड़क जाएं। काफी देर तक मगजमारी करने के बाद भी कुछ नहीं सूझा, तो अपने साथियों से भी कोई नया आइडिया सुझाने की विनती की। कुछ ने तो मौके का फायदा उठाते हुए चाय-समोसे के साथ-साथ चौदह रुपये वाला गुटखा भी गटक लिया और यह कहते हुए सरक लिए कि सोचता हूं तुम्हारे लिए कोई धांसू आइडिया। मैं हवन्नकों की तरह टुकुर-टुकुर उन्हें जाता हुआ देखता रहा।
जब कुछ नहीं सूझा, तो शहर घूमने निकल पड़ा। घूमता-घामता दिल्ली के बाहरी इलाके में पहुंच गया। सड़क से थोड़ा हटकर स्थित एक खेत में के किनारे वाले हिस्से में लगे ट्यूबवेल से पानी निकलता देख प्यास लग गई, तो सोचा दो चुल्लू पानी ही पी लूं। थोड़ी देर यहीं बैठूंगा और अगर कोई अच्छी स्टोरी का आइडिया नहीं सूझा, तो चुल्लू भर पानी में डूब मरूंगा। पानी पीकर खेत की हरियाली को निहार ही रहा था कि मुझे आवाज सुनाई दी। कोई कह रहा था,‘आज तो एकदम पटाखा लग रही हो, मितवा की अम्मा!’ मैं दबे पांव खेत की दूसरी ओर बढ़ा, तो खेत की मेड़ पर एक युगल बैठा दिखाई दिया। दोनों शायद पति-पत्नी थे। पति ने पत्नी को छेड़ते हुए कहा, ‘सुबह छोटा भाई कह रहा था कि आज वेलेंनटाइन डे है। जानती हो, वेलेंनटाइन क्या होता है? चलो, हम लोग भी वेलेंनटाइन डे मनाएं।’ पत्नी ने घास का तिनका तोड़ते हुए कहा, ‘हमें क्या मालूम कि वेलेंनटाइन डे क्या होता है? यह कोई नया त्योहार है क्या?’ पति ने अपनी बायीं कोहनी से टोहका मारते हुए कहा, ‘धत बुड़बक! यह त्योहार नहीं है। इस दिन प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी एक दूसरे को उपहार देते हैं, अपने प्यार का इजहार करते हैं। एक बात बताएं। तुम्हारी चमक-दमक देखकर लगता है कि आज तुम वेलेंनटाइन डे के चक्कर में ही दशहरे की हाथी की तरह सज-धजकर आई हो। वैसे, आज तुम बहुत अच्छी लग रही हो।’ पत्नी ने अपनी प्रशंसा सुनकर थोड़ा शरमाते हुए कहा, ‘चापलूसी तो आप कीजिए ही नहीं। इतनी ही अच्छी लगती हूं, तो कल बुधिया को आंख फाड़-फाड़ क्यों देख रहे थे।’ पत्नी की बात सुनकर पति ठहाका लगाकर हंस पड़ा। उसने पत्नी को बाहों में भरते हुए कहा, ‘अच्छा..तो तुम कल से इसी वजह से नाराज हो। अरे बुधिया..एक तो मेरी भौजी लगती है, दूसरी तरफ, वह तुम्हारी बहिन भी लगती है। दोनों तरफ से हमारा मजाक का रिश्ता है। अब अगर बुधिया भौजी से मैंने थोड़ा सा मजाक कर ही लिया, तो कोई पाप नहीं कर दिया है। ’‘अच्छा..यह सब छोड़ो। मुझको यह बताओ कि तुमने आज अपने बालों में महकऊवा तेल क्यों नहीं लगाया? जब सुबह मैं घर से खेत आने लगा था, तो तुमसे कहा भी था कि खेत में रोटी लेकर अते समय थोड़ा-सा सज-धजकर आना।’ पति ने पत्नी को एक बार फिर छेड़ते हुए कहा। पत्नी ने कहा, ‘वह तेल तो कब का खत्म हो गया है। आपसे कई बार कहा भी कि बाजार जाइएगा, तो लेते आइएगा। लेकिन आप कहां लाए आज तक।’ पति ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘क्या करें। जब भी बाजार में महकउवा तेल लेने के बारे में सोचा, तब पैसा पास नहीं रहा। मुझको तो लगता है कि इस संसार में गरीबों के प्यार करने पर बंदिश लगी है। गरीब नहीं होते, तो मेरी बीवी भला गरीबी का ताना देती। वैसे भी वेलेंनटाइन डे उन्हीं के लिए है जिनके पेट भरे हैं। खाली पेट वालों के लिए वेलेंनटाइन-फेलेंनटाइन का क्या मतलब है?’ पति की बात सुनकर पत्नी भड़क उठी, ‘अरे गरीबी है, तो सिर्फ हमारे लिए है? चार दिन पहले सुमित्रा दीदी ने कहा, तो उनके लिए उसी दिन काजल, टिकुली, बिंदी लाकर दे दिया था। उस मुंहझौसी से पैसा भी नहीं लिया आपने। हमारी खातिर तेल लेते समय पैसा खत्म हो जाता है।’ इस बार तुनकने की बारी पति की थी। उसने तीखे स्वर में कहा, ‘वेलेंनटाइन डे के दिन झगड़ा करना हो, तो ऐसा बताओ। सुमित्रा भौजी से मैं कभी पैसा नहीं मांगूंगा। चाहे जो हो जएा।’ इतना कहकर पति झटके से उठा और मुंह उठाकर एक ओर चल दिया। पत्नी ने लपककर पति की हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘तोहार कवन बान (आदत) राजा..रोज रिसियाला।’ पत्नी की बात सुनते ही पति हंस पड़ा। मैं सड़क पर आ गया और सोचने लगा। संपादक जी मुझसे रोज खफा रहते हैं। संपादक जी से अखबार के मालिक किसी न किसी बात को लेकर रोज नाराजगी जाहिर करते हैं। बरबस ही मेरे मुंह से निकल गया, ‘तोहार कवन बान राजा...रोज रिसियाला।’

Sunday, February 2, 2014

धरने पर कलंदरपुर की भैंस

-अशोक मिश्र
एक दिन थोड़ा देर से आफिस पहुंचा, तो संपादक जी का हरकारा बाहर ही मिल गया। मुझे देखते ही वह पहले तो मुस्कुराया और बोला, ‘पिछले बीस-बाइस मिनट में संपादक जी सवा तेरह बार आपको पूछ चुके हैं।’ मैंने उसे घूरते हुए कहा, ‘तेरह बार तो समझ में आया, लेकिन यह सवा तेरह बार का क्या मतलब है तेरा?’ हरकारे ने बत्तीस इंची मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘बात यह है गुरु! तेरह बार तो उन्होंने मुझसे पूछा कि आप आए हैं या नहीं? उसके बाद एक बार वे पूछते-पूछते रह गए। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, अरे..वो आया..। इस तरह हुआ न सवा तेरह बार पूछना।’ मैं सीधा संपादक जी के पास पहुंचा, तो वे मुझे देखते ही गुर्राए, ‘कितनी देर से आते हो? खैर..सुनो, तुम्हें अभी दिल्ली के एक गांव कलंदरपुर जाना होगा। सभी चैनलों पर बार-बार एक फ्लैश आ रहा है कि धरने पर कलंदरपुर की भैंस। तुम ऐसा करो, अभी निकल लो। मुझे पूरी स्टोरी शाम तक चाहिए। पूरी..मुकम्मल, हर एंगल के साथ। समझे।’ मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘सर जी! थोड़ी सांस ले लूं, फिर निकलता हूं।’ संपादक जी फट पड़े, ‘रास्ते में सांस लेते रहना। आज सांस नहीं भी लोगे, तो भी चलेगा। शाम तक स्टोरी नहीं मिली, तो समझ लेना कि आज के बाद सांस लेने के काबिल भी नहीं रहोगे। और सुनो..दिल्ली में आजकल बात-बात पर दिए जा रहे धरने का इसे प्रभाव भी कह सकते हो। एकाध नेताओं से भी इस पर बाइट (बयान) ले लेना। जिन दिनों गांधी जी सत्याग्रह आंदोलन कर रहे थे, केरल के किसी गाय-बछड़े या भैंस के भी सत्याग्रह करने की खबर उन दिन उड़ी थी। कोई पुराना कांग्रेसी या अस्सी-नब्बे साल का कोई बुर्जुग मिल जाए, तो उसका भी इंटरव्यू कर लेना। और बाकी..कुछ अपनी अकल भी काम में लाना। अगर थोड़ी बहुत हो, तो..।’
मन ही मन भैंस को कोसता हुआ कैमरामैन के साथ लस्त-पस्त हालत में कलंदरपुर पहुंचा। देखा, हाल में हुई बारिश की वजह से सड़क पर जमा हुए पानी में भैंस मडिया मारे (कहने का मतलब है कि चारों पैर फैलाए) बैठी है। कई चैनलों के रिपोर्टर और कैमरामैन लाइव टेलीकास्ट कर रहे थे। काफी दूर-दराज से लोग धरने पर बैठी उस भैंस को देखने आए हुए थे। कुछ पुलिस वाले बार-बार बेकाबू हो रही भीड़ को काबू में करने का अथक प्रयास कर रहे थे। एक टीवी चैनल का रिपोर्टर अपने दर्शकों को बता रहा था, ‘जैसा कि आप देख ही रहे हैं, यह काले रंग की भैंस जो पानी में लेटी हुई जलपरी जैसी लग रही है। पिछले ढाई घंटे से वह न तो कुछ बोल रही है, न ही कुछ खा-पी रही है। ऐसी जानकारी भी मिली है कि इसी भैंस की पड़नानी ने महात्मा गांधी के टाइम में केरल में सत्याग्रह आंदोलन से प्रेरित होकर बाइस दिन तक सत्याग्रह किया था। तो आइए..कलंदरपुर गांव की भैंस के मालिक राम बरन जी से पूछते हैं कि उन्हें भैंस के धरने पर बैठने का पता कब चला?’ इसके बाद कैमरा पैन होता हुआ एक मुच्छड़ पर टिक जाता है।
कैमरे का फोकस अपनी ओर होता देखकर भैंस के मालिक ने पहले तो अपनी मूंछों पर ताव दिया और फिर अभिमान के साथ बोले, ‘सुबह दूध दुहने के बाद जब मेरा बेटा शर्मीली को रोटी देने आया, तो उसने रोटी खाने से मना कर दिया।’ रिपोर्टर ने बीच में बोलते हुए कहा, ‘शर्मीली मतलब..?’
भैंस के मालिक राम बरन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘शर्मीली मतलब..यह हमारी भैंस। इसे हम बड़े प्यार से शर्मीली बोलते हैं। मेरा बेटा इसे इतना प्यार करता है कि वह स्कूल जाने से पहले अपना नाश्ता पहले इसे खिलाता है, फिर खुद खाता है। शर्मीली को बहुत प्यार करता है मेरा बेटा। हां, मैं बता रहा था कि सुबह जब मेरा बेटा रोटी खिलाने आया, तो शर्मीली ने रोटी नहीं खाई। मेरे बेटे ने पूछा, बप्पा ने कल दूध कम देने पर तुम्हें दो डंडे लगाए थे, उसके विरोध में क्या धरने पर बैठी हो? बस..भइया! बेटे के पूछते ही शर्मीली ने ‘हां’ में गर्दन हिला दी और सड़क पर बने इस गड़हे में आकर बैठ गई। तब से यह यहीं बैठी हुई है। मेरे बेटे और शर्मीली के बीच यह वार्तालाप चल रहा था, तो सामने से एक रिपोर्टर गुजर रहा था। उसने अपने मोबाइल पर यह सब कुछ रिकार्ड किया और अपने चैनल पर चला दिया। तब से लोगों का सैलाब उमड़ा पड़ रहा है।’
लोगों की बात सुनकर मैंने सोचा, जब इतनी दूर तक आया हूं, तो मैं भी एक छोटा-सा इंटरव्यू कर ही लेता हूं। मैंने मधुर स्वर में शर्मीली को संबोधित करते हुए कहा, ‘राजमहिषी जी! पानी से बाहर निकल आइए, आपको ठंड लग जाएगी। बाहर आकर धरने पर बैठने का कारण बताइए।’ भैंस ने मेरे सवाल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह बैठी दायें-बायें, तो कभी ऊपर-नीचे अपना मुंह हिलाती रही। तभी भीड़ को हटाकर एक व्यक्ति ने मामले में दखल दिया।
‘आप लोग पीछे हटिए, मुझे देखने दीजिए’ कहते हुए उसने भैंस का मुंह पकड़कर मुआयना किया और कैमरे के सामने आकर बोला, ‘मैं पशु चिकित्सक हूं। मैं गारंटी से कह सकता हूं कि भैंस धरने-वरने पर नहीं बैठी है। इसे मुंहपका रोग हो गया है जिसकी वजह से यह खा नहीं पा रही है।’ उसके इतना कहते ही चैनलों के रिपोर्टरों और कैमरामैनों ने शरमाकर अपना तामझाम समेट लिया।