Sunday, December 21, 2014

काट गया सुलेमानी कीड़ा

अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में अलाव की आग को पास पड़ी लकड़ी से कुरेदते हुए वंशीधर ने कहा, 'लगता है, नेताओं को  सुलेमानी कीड़े ने बड़ी जोर से काट लिया है। जिसे देखो, वही राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक रहा है। जो मुंह में आ रहा है, बस उगल रहा है। अरे भइया! नेता हो, मंत्री हो, अफसर हो, तो नेतागीरी करो, अफसरी करो। जहर तो न बोओ कि कल उसकी फसल काटनी भी मुश्किल हो जाए। यह क्या कि हर जगह बस रार बोते फिर रहे हो।Ó कुरेदने से उठे धुएं से तीखी हो गई आंख को मलते हुए रामदत्त सुकुल ने कहा, 'काका..लगता है, उसी सुलेमानी कीड़े ने आपको भी काट लिया है। अच्छा भली अलाव जल रही थी, आप लगे उसे खोदने। ठीक से जलने भी नहीं देते।Ó
'बाबा..यह सुलेमानी कीड़ा क्या होता है?Ó अलाव ताप रहे बारह वर्षीय वीरभान ने पूछा। वंशीधर ने अलाव में फूंकने के बाद कहा, 'बेटा! यह बड़ा खतरनाक कीड़ा होता है, ठांव-कुठांव कहीं भी काट ले, तो दर्द नहीं होता, लेकिन आदमी राह चलते झगड़ा मोल लेने लगता है। भला, बताओ। अच्छे भले भगवान राम जी सबके दिल में रह रहे थे। वे तो इन नेताओं के न तीन में थे, न तेरह में। लेकिन इन नेताओं की करनी ऐसी कि बेचारे अयोध्या में तंबू-कनात के नीचे पड़े जाड़े-पाले के दिन काट रहे हैं। फिर भी इन नेताओं को चैन नहीं है। ये नेता तो खुद कीचड़ में हैं ही, भगवान राम को भी कीचड़ में सानने की जुगत में हैं। और तो और..बेचारी गीता..यह लो...। अब उसके नाम पर एक नया टंटा खड़ा कर दिया है नेताओं ने। भला बताओ..राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने से क्या उसमें सुरख्वाब के पर लग जाएंगे। अरे, वह तो रहेगी वही गीता, जो आज है, जो सदियों से थी, और जो आगे भी सदियों तक रहेगी। अब राजनीति के दंगल में छीछालेदर बेचारी गीता की हो रही है। सच कहता हूं, अगर बेचारी गीता बोल पाती, तो इन नेताओं से हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहती, हे महामानवो! मुझे बख्श दो। अब तक न्यायालयों में चोर-उच्चके, झूठे-मक्कार मुझ पर हाथ रखकर झूठी कसमें खाते हैं, वह कम है क्या, जो मेरी और दुर्गति कराने पर तुले हो।Ó
कालीचरन ने बीच में बोलते हुए कहा, 'हां काका..आजकल तो बड़ा हल्ला है गीता को लेकर। यह मुद्दा क्या है?Ó
वंशीधर ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'बेटा! मुद्दा तो सिर्फ सुलेमानी कीड़ा है। इस सुलेमानी कीड़े का कुछ इलाज अगर मिल जाए, तो मजा आ जाए। इंसानियत के दुश्मन हार जाएं। बस, इतना ही चाहता हूं।Ó इतना कहकर वंशीधर उठे, अपनी लाठी उठाई और टेकते हुए घर चले गए।

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