Sunday, January 25, 2015

यात्रा से मिलेगी संबंधों को एक नई दिशा?

 अशोक मिश्र
दिल्ली में आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं। ओबामा की इस यात्रा को लेकर दोनों देशों के नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। ऊर्जा, रक्षा और पूंजी निवेश के मामले में दोनों देशों के संबंध एक नए आयाम हासिल करेंगे, ऐसी उम्मीद दोनों देशों के उच्च पदस्थ अधिकारी जता रहे हैं। दरअसल, यह सच है कि बराक ओबामा की यह यात्रा भारत-अमेरिकी संबंधों की एक नई आधारशिला साबित होगी। भारत काफी पहले से अपनी परमाणु ऊर्जा की जरूरत को ध्यान में रखते हुए अमेरिका से कोई सार्थक समझौता करने के प्रयास में है। हालांकि अमेरिका का रवैया इस मामले में अडिय़ल है।
यह यात्रा इस समझौते को कोई आकार प्रदान कर सकती है। अमेरिका भी यही चाहता है कि दोनों देशों के बीच कोई कारगर परमाणु संधि हो जाए, ताकि दोनों इस मामले में एक दूसरे की जरूरत को समझ और पूरा कर सकें। भारत जैसा विश्वसनीय सहयोगी भारत को अभी एशिया में कोई दूसरा नजर नहीं आता है। यही वजह है कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह की मंजूरी दिलवाने में अमेरिका ने काफी मदद की थी। इस मामले में भारत और अमेरिकी अधिकारियों के बीच कई स्तरों पर बातचीत भी हो चुकी है।  अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान लगभग विभिन्न क्षेत्र में काम कर रही अमेरिकी और भारतीय कंपनियां पांच सौ अरब डालर के पूंजी निवेश को अंतिम रूप दे सकती हैं। यदि भारत यह पूंजीनिवेश अपनी ओर खींचने में सफल हो जाए, तो विकास को एक नई गति प्रदान की जा सकती है। पूंजी निवेश का प्रवाह भारत की ओर होने से विकास की गति तेज होगी और कई शहरों और क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं पैदा होंगी। यह पूंजी निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा। ओबामा की यात्रा के साथ ही साथ ऊर्जा क्षेत्र में भी नए संबंधों की शुरुआत हो सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के साथ वहां के कई उद्योगपतियों का एक समूह भारत आ रहा है, जो भारत में पूंजी निवेश के साथ-साथ कुछ मामलों में भारतीय पक्ष से भी पूंजी निवेश की इच्छा रखता है। यदि इन उद्योगपतियों को अपने मकसद में कामयाबी मिल जाती है, तो यकीनन दोनों देशों के बीच संबंध काफी मजबूत हो जाएंगे। भारत को एकाध साल में 60 हजार मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन का लक्ष्य तब तक पूरा होने की संभावना नजर नहीं आती, जब तक अमेरिका भारत की मदद करने या इस क्षेत्र में पूंजी निवेश करने को तैयार न हो जाए। इसके साथ ही साथ रक्षा मामले में भी भारत को अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी। इस दिशा में भी भारत सरकार काफी दिनों से प्रयास कर रही थी। मोदी सरकार की नीति है कि रक्षा मामलों में आत्मनिर्भर बना जाए। इसके लिए जरूरी है कि रक्षा और सैन्य सामग्री का निर्माण देश में ही किया जाए।  अमेरिका हल्के और छोटे लड़ाकू हैलिकॉप्टरों के निर्माण के साथ-साथ अन्य हथियारों के निर्माण की तकनीक विकसित करने में काफी मददगार साबित हो सकता है। उसके साथ ही सबसे अहम फैसला यह हो सकता है कि दोनों देश एकदूसरे के हितों का ध्यान रखते हुए खुफिया सूचनाएं साझा करेंगे, ताकि आतंकवाद के खिलाफ एक नेटवर्क तैयार किया जा सके। देश के भीतर और बाहर हो रहे आतंकी हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।
जब तक यह नेटवर्क तैयार नहीं होता, तब तक एक मजबूत रक्षा तंत्र नहीं विकसित किया जा सकता है। आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए सबसे जरूरी तो यह है कि जिन देशों को पीछे के दरवाजे से आतंकवादियों को खाद-पानी मिल रहा है, उन पर अंकुश लगाने की कोशिश वैश्विक आधार पर हो। आतंकवादियों के पनाहगाहों को पूरी तरह मिटाने का साझा प्रयास किया जाए। ऐसे देशों पर कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं, उसके साथ-साथ कूटनीतिक संबंध भी तोड़ लेने के साथ-साथ व्यापारिक संबंध भी खत्म कर लेने चाहिए। कहने का मतलब यह है कि आयात-निर्यात बिल्कुल खत्म कर देने चाहिए, लेकिन ऐसा होना काफी मुश्किल है। क्योंकि अमेरिका ही नहीं, भारत को भी अपने कई हितों को देखना और साधना है। कई बार कुछ ऐसी भी मजबूरियां सामने होती हैं जिसके चलते ऐसा कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। यदि अमेरिका और भारत चाहें, तो सूचनाओं के आदान-प्रदान से आतंकी नेटवर्क को तोड़ सकते हैं।

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