Sunday, February 1, 2015

किसानों को सचमुच मर जाना चाहिए?

अशोक मिश्र 
मई 2014 से पहले इस देश के करोड़ों किसानों ने भी एक सपना देखा था। अच्छे दिनों का। भाजपा ने यह वायदा भी किया था कि उसकी सरकार आई, तो अच्छे दिन आएंगे इस देश के करोड़ों किसानों के, मजदूरों के, खेतिहर मजदूरों के, गरीबों के, बेरोजगार युवाओं के, व्यापारियों के, उद्योगपतियों के। अच्छे दिन आए, लेकिन करोड़ों किसानों, मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और युवाओं के नहीं। छोटे-मंझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों के नहीं, देश के उन चंद पूंजीपतियों के जिनकी तिजोरी पहले से ही भरी हुई थी। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर मोदी सरकार ने कम से कम एक बात तो साफ कर दी है कि किसानों के अब अच्छे दिन आने वाले नहीं हैं। मोदी सरकार सिर्फ उद्योगपतियों के हितों को ही ध्यान में रखकर योजनाएं बना रही है। यह कहा जाए कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के हाथों में सौंपने की एक कवायद मोदी सरकार ने आते ही शुरू कर दी थी, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
गजब तो यह है कि किसानों के हितों को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले मनमोहन सरकार की खिल्ली उड़ाने वाली भाजपा के एक सांसद संजय शामराव धोत्रे तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि अगर किसान मरते हैं, तो मरने दो। जिन्हें खेती करनी है, वे करेंगे। जिन्हें नहीं करनी है, वे नहीं करेंगे। उनके आत्महत्या कर लेने से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये वही संजय शामराव धोत्रे हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश सहित महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा पर, उनके आत्महत्या करने पर  तत्कालीन यूपीए सरकार को छाती पीट-पीटकर कोसते हुए जार-जार आंसू बहाए थे। वे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर कांग्रेस और एनसीपी सरकार के खिलाफ किसानों को जगा रहे थे कि किसानों उठो और कांग्रेस की सरकार बदल दो अपने सुखद भविष्य के लिए। लेकिन अब मोदी सरकार अपनी नीतियों से किसानों को खुदकुशी करने पर मजबूर कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े की ही बात करें, तो पिछले सौ दिनों में देश के 4600 किसानों ने आत्महत्या की है। 46 से 69 हजार किसान आत्महत्या की कोशिश कर चुके हैं। यह आंकड़ा तो और भी खौफनाक है कि पिछले बीस सालों से सरकारी नीतियों के चलते हर दिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसका कारण मोदी और उनकी पूर्ववर्ती सरकार की कृषि विरोधी नीतियां हैं। मोदी सरकार आने के बाद गांवों से न केवल पलायन बढ़ा है, बल्कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के बजट में कटौती हुई है जिससे किसानों में असुरक्षा की भावना तीव्र हुई है। पिछले 100 दिनों में मोदी सरकार ने 145750 करोड़ रुपये की छूट देश के सबसे अमीर 1 से 2 प्रतिशत पूंजीपतियों को दी है। पूंजीपतियों को हजारों हजार करोड़ रुपये के सरकारी कर्ज दिलाए जा रहे हैं, लेकिन जब भी किसानों की बारी आती है, तो सरकार राजस्व घाटे का रोना रोने लगती है।
 केंद्रीय कर्मचारियों से लेकर राज्य कर्मचारियों के वेतन में हर साल बढ़ोत्तरी होती है। महंगाई भत्ते सहित अन्य भत्ते दिए जाते हैं, लेकिन इस देश के 60 से 70 करोड़ किसानों को किसी तरह के न्यूनतम पैकेज देने की बात न तो किसान संगठनों ने की है, न वर्तमान सरकार ने और न ही इससे पहले की सरकारों ने। आजादी के बाद से अब तक बनी सरकारों के लिए देश के अन्नदाता किसी अस्पृश्य से कम नहीं रहे हैं। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की खेती योग्य जमीन का पंूजीपतियों के हित में अधिग्रहण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। 1998 से 2004 तक चली वाजपेयी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्यों में सिर्फ 11 रुपये की ही बढ़ोत्तरी की थी। दस साल तक गरीबों और किसानों की रहनुमा होने का दावा करने वाली कांग्रेस सरकार ने भी किसानों के लिए किसी खजाने का मुंह नहीं खोला था। वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस सरकार ने धान और गेहूं के समर्थन मूल्यों में सिर्फ 70 रुपये की बढ़ोतरी की थी, जबकि इस दौरान डीजल, खाद, बीज आदि के दाम किस अनुपात में बढ़ गए, इसको जानने के लिए कोई विशेष जतन करने की जरूरत नहीं है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, सभी सरकारों (जिनमें राज्य सरकारें भी शामिल हैं) के आंकड़ों में किसान खुशहाल, सुविधा-साधन संपन्न दिखाई देता है। कोई इन सरकारों से यह पूछे कि अगर तुम्हारे आंकड़ों के हिसाब से 60 से 70 करोड़ किसान सुखी और सपन्न हैं, तो फिर वे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, प्रति दिन दो हजार किसान खेती करना क्यों छोड़ रहे हैं? कोई जवाब नहीं होगा इन सरकारों के पास।

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