Thursday, February 12, 2015

हिंदू राष्ट्र है भारत?

अशोक मिश्र
भारत एक हिंदू राष्ट्र है? भारतीय संविधान की मूल आत्मा से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द मेल नहीं खाते हैं? आपातकाल के दौरान संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े गए इन दोनों शब्दों का कोई औचित्य नहीं है? भारत की जनता अब धर्मनिरेपक्षता से ऊब गई है और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है? ऐसे कई सवाल हैं, जो किए जा सकते हैं। इस वर्ष जब गणतंत्र दिवस के मौके पर केंद्र सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया, उसमें से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब था। यह एक मानवीय चूक थी या जान-बूझकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया एक सोचा-समझा कदम था।
राजनीतिक हलके में एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि भाजपा सरकार ने एक योजना के तहत इस बार गणतंत्र दिवस के दौरान सरकारी विज्ञापन से इन दोनों शब्दों को हटाया था। दरअसल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन शब्दों को हटाकर आम जनमानस की प्रतिक्रिया से वाकिफ होना चाहते थे। राजनीतिक हलकों में जब इन शब्दों को हटाने को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को यह आश्वासन देना पड़ा कि केंद्र सरकार भविष्य में इन बातों को ध्यान में रखेगी। हालांकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद यह कहने से नहीं चूके कि सन १९५० में जो संविधान भारत में लागू किया गया था, उसमें ये दोनों शब्द नहीं थे। इन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने ये शब्द संविधान की उद्देश्यिका में शामिल किए थे। आपात काल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने भी इन शब्दों को बदलने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि वह जानती थी कि भले ही ये शब्द संविधान की मूल उद्देश्यिका में नहीं रहे हों, लेकिन संविधान की मूल प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष और समाजवादी ही रही है। नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली पहली सरकार का झुकाव भी समाजवादी व्यवस्थाओं की ओर ही था। यही वजह थी कि संविधान की अवधारणाएं समाजवादी और धर्म निरपेक्षतावादी होते हुए भी उनमें इन शब्दों को जोडऩे की जरूरत नहीं समझी गई। लोगों को याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के अवसान के बाद जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में १९८० में सरकार बनी, तो भाजपा ने भी अपने राजनीतिक एजेंडे में गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को शामिल किया था। यह उसकी राजनीतिक मजबूरी थी क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी का धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों से मोहभंग नहीं हुआ है।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि जब १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी, तब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करने की बात कही थी, तब भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया हुई थी, जैसी आज इन दोनों शब्दों को सरकारी विज्ञापन से हटा देने पर हुई है। यह भाजपा और आरएसएस द्वारा अपने हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने का ट्रायल केस हो सकता है। जब से केंद्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है, उससे कुछ महीने पहले से ही आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। आरएसएस प्रमुख मोहन मधुकर भागवत तो कई अवसरों पर यह कह चुके हैं कि भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, भले ही वह मुस्लिम परिवार में जन्मा हो, ईसाई हो या सिख हो। गोवा के मंत्री और उपमुख्यमंत्री भी इसी बात को दोहरा चुके हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने भी मोहन भागवत की ही बात दोहराई और बाद में जब इसकी मुसलमानों में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तो वे अपनी बात से भी मुकर गई थीं। भाजपा और संघ पिछले कुछ महीनों से बार-बार जिस तरह हिंदू राष्ट्र का मुद्दा उठा रहा है, उससे यह समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की मंशा क्या है? वह बहुत ही सधे कदमों से हिंदू एजेंडा देश में लागू करने की फिराक मे ंहै, बस उसे मौका मिले। इस एजेंडे को शिवसेना जैसे संगठन का समर्थन हासिल है। शिवसेना के सांसद संजय राउत का तो यहां तक कहना था कि यदि विज्ञापन से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द गलती से हट गए हैं, तो इन्हें स्थायी रूप से हटा देनी चाहिए। महाराष्ट्र में रहने वाले दूसरे राज्यों के निवासियों के खिलाफ कई बार मोर्चा खोलने वाली शिवसेना और मनसे नेता बार-बार हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे भी हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। लेकिन अपने को हिंदू राष्ट्र का ध्वजवाहक बताने वाले भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना और महाराष्ट्र निर्माण सेना जैसे संगठनों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जनता का मोह अभी तक इस विचारधारा से भंग नहीं हुआ है, भले ही इस देश में वामपंथियों का पराभव हो गया हो। आम आदमी की मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदला करती है। हालांकि यह  भी सही है कि इस देश में न तो सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता कभी रही है और न ही समाजवाद। 

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