Saturday, October 24, 2015

राजनीति में चीयरलीडर्स

-अशोक मिश्र
आज सुबह स्पोर्ट्स पेज पर छपी एक चीयरलीडर की तस्वीर बड़े गौर से देख ही रहा था। तस्वीर थी भी इतनी मादक कि नजर पड़ते ही वहीं की वहीं ठिठक जाती थी। मैं तस्वीर की मादकता पर लहालोट हो ही रहा था कि बारह वर्षीय बेटे गॉटर प्रसाद ने सवाल दाग दिया, 'पापा! मैंने हॉकी, कबड्डी और क्रिकेट जैसे खेलों में चीयरलीडर्स को तो टीवी चैनलों पर ठुमकते देखा है। क्या राजनीति में भी चीयरलीडर्स होती या होते हैं?' स्कूल की तैयारी करते हुए बेटे ने यह सवाल किया, तो पहले मैं सकपका गया। फिर सवाल की गंभीरता पर विचार किया, तो लगा कि यह सवाल तो पूरी राजनीति के करेक्टर को ही पारिभाषित करने वाला है।
मैंने कहा, 'बेटा! अब तो राजनीति में सिर्फ चियरलीडर्स ही हैं, नेता तो बचे ही कहां हैं? नेता नाम की प्रजाति कभी हिंदुस्तान में हुआ करती थी, लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होने से यह पूरी प्रजाति ही विलुप्त हो गई है। तुम इस बात को इस तरह से समझ सकते हो कि नेताओं ने चीयरलीडर्स के रूप में कायांतरण कर लिया है। चीयरलीडर्स खुद भले ही कम कपड़ों में रहे, लेकिन वह दूसरों का मनोरंजन करती हुई दूसरों को शालीन रहने का संदेश देती हैं। वैसे भी इन चीयरलीडर्स के कपड़े कतई अशालीन नहीं होते। वहीं राजनीतिक चीयरलीडर्स..तौबा..तौबा। थेथरई और नंगई को ही ये जामा (कपड़े) बनाकर पहने रहते हैं। वैसे तो सत्ता के गलियारे तक उसी नेता की पहुंच हो पाती है, जो भ्रष्टाचार के दलदल में डुबकी लगा चुका होता है। संसदीय जनतंत्र को इसीलिए भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहा जाता है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री में नहाए बिना तो राजनीतिक मोक्ष ही प्राप्त नहीं होता है। अगर कोई इस बात को उठाने का साहस भी दिखाए, तो नेता मानेंगे ही नहीं। अगर कोई इनकी इस नंगई पर आपत्ति जताता है, तो बड़ी मासूमियत से कह देते हैं। राजनीति तो एक हमाम है। हमाम में भला नंगे नहीं रहेंगे, तो क्या सूट-बूट पहनकर चहलकदमी करेंगे। राजनीति करने आए हैं तो राजनीति ही न करेंगे। राजनीति में कपड़ों का भला क्या काम। नैतिकता, शुचिता, कर्तव्यपरायणता जैसी बातें किताबी हैं। किताबी बातों से चुनाव नहीं जीते जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए चाहिए, छल, बल, धन और समीकरण। समीकरण फिट करने के लिए खुद भी नंगा होना पड़ता है, दूसरों को भी करना पड़ता है। कभी दंगा करना पड़ता है, तो कभी दंगा कराना पड़ता है। राजनीति बगाों का खेल नहीं है। कभी गर्दन काटनी पड़ती है, तो कभी गर्दन कट जाती है।'
इतना कहकर मैंने बेटे पर नजर डाली, वह शायद मेरी बात समझ नहीं पा रहा था। मैंने समझाया, 'देखो.. चियरलीडर्स के पहनावे और हावभाव पर ध्यान दो। उनकी तुलना नेताओं से करो, तो बात समझ में आ जाएगी? नेताओं के कपड़े भले ही चियरलीडर्स की तरह रंग-बिरंगे न होकर सफेद हों, लेकिन इनका मन और कर्म बहुत बदरंगा होता है। चुनाव के दौरान इन नेताओं को नाचते देखा है न, जैसे किसी मदारी की बंदरिया नाचती है। वोट हथियाने के लिए क्या-क्या नहीं करते ये लोग। अपने विरोधियों को राक्षस, ब्रह्मपिशाच, हत्यारा, भ्रष्टाचारी और न जाने क्या-क्या कहते हैं, ताकि उन्हें वोट मिल सके।' 
मेरे बेटे को शायद बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आने लगी थी। वह बोला, 'हां पापा! बिहार चुनाव के दौरान नेताओं ने कैसे-कैसे गंदे आरोप एक दूसरे पर लगाए। पापा, आप तो बताते थे कि पहले चुनावों के दौरान नीतियों की आलोचना की जाती थी, लेकिन अब तो लोग परिवार वालों पर कीचड़ उछालते हैं। इन्हें कीचड़ बहुत अच्छा लगता है क्या? यह खुद तो कीचड़ में लोटते रहते हैं, दूसरों को भी उसी कीचड़ में खींच लेते हैं। मजेदार बात यह है कि इस कीचड़ में पक्षी भी लोटते हैं, विपक्षी भी लोटते हैं।' मेरा बेटा कुछ और कहता कि बाहर से बस के हॉर्न की आवाज सुनाई दी। बेटे ने अपना स्कूल बैग उठाया और स्कूल चला गया।

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