Friday, April 10, 2015

नहीं चाहिए जुगाड़ का सम्मान

अशोक मिश्र
मैं एक ही कमरे के मकान में बेडरूम कम ड्राइंग रूम कम स्टडी रूम कम विजिटिंग रूम कम...में बिस्तर पर कागज-पत्तर फैलाए बैठा कतरब्योंत कर रहा था कि किचन से निकलकर घरैतिन ने अपने आंचल से पसीना पोछते हुए कहा, 'दिन भर आप कागज का मुंह काला करते रहे हैं, लेकिन आज तक सम्मान के नाम पर एक फटहा कागज और नगद नारायण के नाम पर फूटी अठन्नी तक घर में नहीं आई है।
 आप से तो लाख गुना अच्छे शर्मा जी हैं, वर्मा हैं, मेहरोत्रा जी हैं..भले ही कुछ किया धरा नहीं, लेकिन सम्मान वे सबसे बड़का पाए हैं। वह भी शिक्षा और साहित्य के लिए...। अब जानते हो, उनका नाम शिक्षा और साहित्य के इतिहास में ...क्या कहते हैं उसे...स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा... और एक 'तुमÓ हो कि दिन भर तुम्हें कागज का मुंह ही काला करने से फुरसत नहीं है।Ó घरैतिन अब आप से तुम पर आ गई थीं। इतना कहकर भी घरैतिन रुकी नहीं। वे कागज पत्तर को समेटती हुई धस्स से मेरी बगल में बैठ गईं। बोलीं, 'मैं सब समझती हूं। व्यंग्य के नाम पर मेरे मुंह से झरे फूल को भी आप अंगार बनाकर दुनिया के सामने पेश करते हैं। जब कविता लिखनी होती है, तो नायिका बन जाती है, वह निगोड़ी छबीली। आपको पता नहीं कहां से नायिका नजर आती है। आंखें तो एकदम एलएलटीटी हैं, बाल तो लगता है कि किसी भैंसिया के उखाड़कर उसको लगा दिए गए हों। क्यों जी...माना कि मैं आपकी नायिका भेद में फिट नहीं बैठती, लेकिन वह मुंहझौंसी छबीली किस नजरिये से फिट बैठती है..यह आप बताएंगे मुझे?Ó
घरैतिन की बात सुनकर मैं हंस पड़ा, 'तुम्हारी हर बात तो समझ में आई, लेकिन यह 'एललटीटीÓ कौन सी गाली है?Ó घरैतिन ने मुंह बिचकाकर कहा, 'एलएलटीटी... नहीं समझे? एकदम बुद्धू हो.. एलएलटीटी मतलब लुकिंग लंदन, टाकिंग टोक्यो.. ऐंचातानी.. भैंगी। वह जब मेरी मुंह करके दीदी..दीदी कहकर बात करती है, उस समय बात तो वह मुझसे ही कर रही होती है, लेकिन निहार तुम्हें रही होती है, नासपीटी।Ó मैंने घरैतिन को समझाने का प्रयास किया,'देखो...यह सब जुगाड़ का खेल है। लिखना..और वह भी अच्छा लिखना..और सम्मान पाना, दोनों में उतना ही अंतर है जितना कि बीवी और साली में...बीवी जिंदगी भर लड़ती हुई भी अपनी होती है और साली...अपनी लगती हुई, लुभाती हुई भी अंतत: ठेंगा ही दिखा जाती है। ठीक वैसा ही जुगाड़ का सम्मान होता है, लोग जोड़-तोड़ करके हथिया जरूर लेते हैं, पद्मश्री से लेकर जुगाड़श्री तक पाने में सफल हो जाते हैं, लेकिन उन्हें वह सम्मान भी नहीं मिलता, जो मुझ जैसे टुटपुंजिये व्यंग्यकार को कभी कभार धांसू व्यंग्य लिखने पर अपनी घरैतिन से मिल जाता है।Ó वे बोलीं, 'तो आप भी लगाई न कोई जुगाड़।Ó
 मैंने कहा, 'जुगाड़ लगाकर तुम्हें पा लिया, अब कोई जुगाड़ नहीं लगाना। सम्मान मिले या ठेंगे से न मिले।Ó 'अब आप भी मसखरी करने लगे...!Ó इतना कहकर वे अपने घरेलू कामों में लग गईं।