Tuesday, April 25, 2017

स्वर्ग जैसे ‘न्यू इंडिया’ में नंगे-अधनंगे किसान

अशोक मिश्र
हमारे देश के मजदूर-किसान भी न..एकदम बौड़म हैं बौड़म। धेले भर की अकल नहीं और अकल के पीछे लट्ठ लिए बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। किसानों को गुमान है कि वे देश के अन्नदाता हैं। मजदूरों को वहम है कि वे भाग्यविधाता हैं। अरे! वह दिन गए, जब किसान अन्नदाता और मजदूर भाग्य विधाता हुआ करता था। अब तो सारा देश भारत से ‘इंडिया’ और अब ‘इंडिया’ से ‘न्यू इंडिया’ होने जा रहा है। पूरी दुनिया आश्चर्य चकित होकर इस ‘न्यू इंडिया’ का चमकता ग्लोसाइन देख रही है। वाह..वाह कर रही है। दुनिया भर के बड़े-बड़े कारपोरेट घराने भारी-भरकम थैलियां लेकर दौड़े चले आ रहे हैं। उन्हें विश्वास है कि अगर कहीं बाजार है, सस्ता श्रम है, लूट-खसोट में सहायक होने वाले लेबर लॉ हैं, शोषण-दोहन की अपार संभावनाएं हैं, अनपढ़ और लतखोर मजदूर-किसान हैं, तो वह ‘न्यू इंडिया’ में ही हैं। ‘न्यू इंडिया’ तो जैसे कारपोरेट व्यापारियों का स्वर्ग है। न्यू इंडिया का चमकता चेहरा देखकर हमारे राजनीतिक भाग्य विधाता आत्ममुग्ध हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी फाइव स्टार होटल में आयोजित फैशन शो के दौरान अपनी नग्न-अर्धनग्न चिकनी काया पर पड़ती कैमरों की लाइट्स देखकर मॉडल्स भावविभोर होती हैं। इन आत्ममुग्ध और भावविभोर मॉडल्स को उस क्षण तो यही लगता है कि उनकी कंचनी काया और कैमरों की फ्लैश लाइट्स ही शाश्वत सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
ऐसी चमक-दमक वाली ‘न्यू इंडिया’ में हमारे देश के किसानों को देखिए, सुपरसोनिक विमानों की रेस में अपनी बैलगाड़ी दौड़ाए चले जा रहे हैं। ये किसान समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि मुंशी प्रेमचंद का युग बीत चुका है। ‘होरी’ और ‘धनिया’ रहे होंगे कभी किसानों के रोल मॉडल, लेकिन ‘न्यू इंडिया’ के आईकॉन बड़े-बड़े कारपोरेट घराने हैं, अबानी हैं, अडानी हैं, विजय माल्या हैं। अब ‘होरी’ और ‘धनिया’ होने के कोई मायने नहीं है। अब तो धरना-प्रदर्शन करने, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ या ‘फलाने-ढिमकाने मुर्दाबाद’ के नारे लगाने के दिन हवा हो गए। न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, सिटडाउन इंडिया, धमकाऊ इंडिया, लतियाऊ इंडिया का जमाना है। जंतर-मंतर पर पैंतीस-चालीस दिन तक धरना देने और गू-मूत खाने-पीने वाले किसान अगर अपने साथियों के नरमुंडों के साथ बस एक प्यारी सी सेल्फी लेते और फेसबुक, ह्वाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर डाल देते, तो फिर देखते तमाशा। कम से कम दस-बीस हजार लाइक्स मिलते, चार-पांच हजार कमेंट्स मिलते ही मिलते। ठेंगा, स्माइलिंग फेस जैसे इमोजीज की तो बात ही छोड़ दीजिए। दो-तीन हजार ठेलुए टाइप के फेसबुकिये उसे शेयर करते ही करते। फिर क्या..फिर तो पूरी दुनिया में तलहलका मच जाता। डिजिटल वर्ल्ड में एक रक्तहीन क्रांति हो जाती। सरकार को झुकना पड़ता, नहीं तो फेसबुकिये, ह्वट्सएपिये, इंस्टाग्रामिये, ट्विटरिस्टवे इतना हंगामा खड़ा कर देते। किसानों की वह पोस्ट इतनी वायरल होती कि आभासी दुनिया में तहलका मच जाता। केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की इतनी छीछालेदर और ‘थू-थू’ होती कि वह मारे शर्म के किसानों के सारे ऋण माफ कर देती। अब अगर मजदूर-किसान इक्कीसवीं सदी में पांचवीं सदी की लड़ाई का तरीका अख्तियार करेंगे, तो लोग और सरकार घंटा ध्यान देंगे।

Sunday, April 23, 2017

एक पोस्ट कीन्हें बिना

अशोक मिश्र
इस देश में कभी हुआ करता था त्रेतायुग। अरे सतयुग के बाद आने वाला त्रेतायुग। उस त्रेतायुग में पैदा हुए थे शंकर सुवन केशरी नंदन। इस देवात्मा को हनुमान जी भी कहा जाता है। हनुमान जी ने अपनी आधी जिंदगी कैसे भी व्यतीत की हो, लेकिन जबसे उनका परिचय रामचंद्र जी से हुआ, तब से उन्हें बस एक ही धुन सवार थी- रामकाज कीन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। करणीय, अकरणीय, लभ्य, अलभ्य जो कुछ भी था, वह सब कुछ रामकाज ही था। सीता की खोज में जाते समय मैनाक पर्वत ने जब वानर शिरोमणि हनुमान से विश्राम करने को कहा, तो उन्होंने विनयपूर्वक मैनाक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्हें तो बस एक ही धुन थी किसी भी प्रकार हो, रामकाज करना है। यह धुन ही थी जिसने उन्हें रामचंद्र का सखा, भक्त, भाई, सचिव सब कुछ बना दिया था। उनके सखा भाव, भक्तिभाव को देखकर बाद में जनकनंदिनी भी कुछ हद तक ईष्यालु हो उठी थीं। भारतीय नारी कैसे सहन कर सकती है कि कोई उसके पति के प्रति उससे भी ज्यादा साख्यभाव रखे, भक्तिभाव रखे। वे अतुलित बलधारी होते हुए रामचंद्र के प्रति विनीत थे। वे भगवान थे, महावीर थे। उनकी लीला और महिमा अपरंपार थी। उनकी किसी से तुलना भी नहीं हो सकती है।
वह त्रेतायुग था, लेकिन यह कलियुग है। उस युग में अंजनि पुत्र महावीर थे, तो इस युग में फेसबुकवीर हैं। त्रेतायुग में भक्तिभाव का हनुमान जी बढ़कर दूसरा कोई उदाहरण खोजने पर भी नहीं मिलता, लेकिन कलियुग में फेसबुक के प्रति अनन्य भक्तिभाव लिए कोटि-कोटि फेसबुकवीर हैं, फेसबुक वीरांगनाएं हैं। इन वीरों और वीरांगनाओं की बस एक ही धुन है-‘एक पोस्ट कीन्हें बिना मोहि।’ इनकी भी भक्ति भाव, सखा भाव अप्रतिम है। ये फेसबुक की आभासी दुनिया में स्वच्छंद विचरण करते हैं, निशि-वासर, प्रात:काल, संध्याकाल, जैसे समय इनके स्वच्छंद विचरण के लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। फेसबुक वीर और वीरांगनाएं रक्तसंबंधों, सामाजिक संबंधों को आभासी दुनिया के स्वच्छंद विचरण में बाधक मानकर उसी तरह विरक्त रहते हैं, जैसे कि कोई उच्च कोटि का साधक मोह, माया, काम, क्रोध से विरक्त रहकर परमानंद की खोज में लगा रहता है। फेसबुक वीर-वीरांगनाएं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर जैसे विकारों से विरक्त होकर बस एक पोस्ट की खोज में लगे रहते हैं। आभासी दुनिया में जहां कहीं मनोवांछित पोस्ट मिली या अपनी चौर्यकला की बदौलत किसी अन्य की मौलिक रचना को हस्तगत किया और स्वरचना प्रदर्शित करते हुए अपने फेसबुक पर पोस्ट की या प्रातिभ प्रदर्शन कर सर्जना करके पोस्ट की, तो उन्हें वैसे ही परमानंद की अनुभूति होती है, जैसे किसी साधक को लक्ष्य प्राप्त होने पर होती होगी। इन वीर-वीरांगनाओं के बाल-बच्चे, माता-पिता, पति-पत्नी और अन्य सांसारिक नाते-रिश्तेदार इनके फेसबुक प्रेम के प्रति ईर्ष्याभाव रखते हैं। फेसबुक वीरों को फेसबुकीय जगत में एक नायिका की तलाश चिरंतन काल से रही है। नायिका भेद से इन्हें रंचमात्र मतलब नहीं होता है। लुभावना चित्र देखते ही ‘इनबाक्स’ में पैठकर रसानुभूति करने लगते हैं। हां, आभासी दुनिया में वीरांगनाएं किस हेतु-अहेतु के लिए विचरती हैं, इस पर अभी अनुसंधान जारी है।

Tuesday, April 11, 2017

ज्यादा अंगरेजी न बूको, समझे

अशोक मिश्र
राजमार्ग से थोड़ा हटकर खुले मदिरालय प्रांगण में परम विपरीत विचारधारा वाले दल के कर्मठ कार्यकर्ता मिले। दोनों परम मद्यप थे, परंतु पूर्व परिचित भी। दोनों ने एक दूसरे पर इतनी तीव्रता से दृष्टिपात किया कि एक बार लगा, दोनों के चक्षु अपने-अपने कोटरों से बाहर गिर पड़ेंगे। फिर एक ने दूसरे का पाणिग्रहण कर काष्ठासन (बेंच) पर बिठाते हुए कहा, ‘भ्रात! यह सत्य है कि तुम्हारे दल के विचारों से हमारा दल रंचमात्र सहमत नहीं है, किंतु मदिरालय में क्या दल और क्या दलदल, क्या मत और क्या मतांतर, सब निरर्थक हैं। अत: हे भ्रातृश्रेष्ठ! आओ, हम सकल मतभेद का परित्याग कर प्रसन्न मन से मदिरापान करें।’
दूसरे दल के कार्यकर्ता के अधरों पर स्मित हास्य प्रस्फुटित होने लगा। उसने मदिरा विक्रेता को आसव पेश करने का संकेत किया। तीन-तीन चषक मदिरापान के बाद दोनों मद्यप मुखर हो उठे। एक मद्यप ने चषक उठाकर लंबा घूंट भरा और मुंह बिचकाते हुए कहा, ‘भ्राताश्री! आपको तो यह ज्ञात ही होगा कि आदिकाल से लेकर पांच सदी पूर्व तक भारत की विश्व में प्रतिष्ठा जगत्गुरु की रही है। ज्ञान गुरु होने का मूल कारण भारतीय पुरुषों का सुर होना रहा है। सुर अर्थात वे लोग जो सुरापान करते थे और असुर अर्थात वे लोग जो सुरापान नहीं करते थे। उस समय सुरापान करके जो व्यक्ति सुर में गायन करते थे, वे ही कालांतर ससुर कहे गए। जो थोड़ा भद्दा गाते थे, वे भसुर कहे जाते थे। लेकिन इन मूढ़मति भाषा विज्ञानियों को क्या कहूं, इन्होंने ससुर और भसुर का अर्थ ही अनुलोम-विलोम जैसा कर दिया। असुरों में लंपट, लबार, चोर, कामी बहुतायत में पाए जाते थे। किंतु सुरापान करने वालों में ऐसी प्रवृत्तियां रंचमात्र नहीं पाई जाती थीं।’
इतना कहकर संभाषण करने वाले मद्यप ने अपना चषक उठाकर सारी सुरा उदरस्थ की और फिर बोला, ‘भगवत्कृपा से अब फिर से हम अपनी पुरातन संस्कृति की ओर लौट रहे हैं। शराब या वाइन शॉपों के कायांतरण की प्रक्रिया बस शुरू होने वाली है। इनके नाम सुरालय, मदिरालय या मद्यशाला रखने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है।’ 
यह सुनते ही दूसरे वाले ने पहले तो चषक के कंठ तक मदिरा भरी, फिर उदरस्थ किया और फिर आवेश में रिक्त चषक को भूमि पर पटकते हुए कहा, ‘तेरी तो..यह जो संस्कृत निष्ठ भाषा छांट रहा है, वह बंद कर और शुद्ध हिंदी में सुन। सरकार बन गई है न! चुपचाप शासन कर। आज तेरी सरकार एंटी रोमियो स्क्वायड बना रही है, भ्रष्टाचार की जांच कर रही है, करे। शौक से करे। कौन सा सौ-दो सौ साल तक तुम्हारी पार्टी राज करेगी। कहा भी गया है कि कभी नाव पानी पर, कभी पानी नाव पर। आज तुम्हारी सरकार है, कल हमारी थी। हो सकता है, परसों, नरसों, तरसों हमारी सरकार बने या न भी बने। कोई दूसरा शासन करे, तब..? तब तुम भी हमारी तरह भीगी बिल्ली बने ‘म्याउं..म्याउं’ कर रहे होगे। इसलिए ज्यादा अंगरेजी न बूको। समझे।’ इतना कहकर वह मद्यप उठा, मदिरा विक्रेता को पैसे दिए बिना अपने गंतव्य की ओर चला गया।

Monday, April 3, 2017

अब पतियों पर भी गिरेगी गाज

अशोक मिश्र
सुबह सोकर उठा ही था कि मुसद्दी लाल किसी आतंकवादी की तरह घर में घुस आए। आते ही बिना कोई दुआ-सलाम किए गोला-बारी करने लगे, ‘पंडी जी, अब तो जीने की तमन्ना ही नहीं रही। जब हुस्न पर ही पहरा हो, तो फिर जीने का क्या फायदा? आप किसी के हुस्न का ठीक से दीदार नहीं कर सकते, उससे बातें नहीं कर सकते, उससे छेड़छाड़ नहीं कर सकते, तो फिर इतनी सुंदर दुनिया में रहने का क्या मतलब है? आप पल-दो पल के लिए किसी पार्क, मॉल या रेस्त्रां में नहीं जा सकते, किसी चौराहे पर खड़े बतरस का आनंद नहीं उठा सकते? भला बताओ, यह भी कोई बात हुई?’ मुसद्दी लाल की बात सुनकर मैं भौंचक रह गया। मैंने पूछा, ‘बात क्या है, मुसद्दी भाई?’
मुसद्दी लाल गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘पंडी जी, चलो मान लिया कि शोहदों, मनचलों को रोकने के लिए आपने एंटी रोमिया स्क्वाड बना लिया। उन्हें श्लील-अश्लील हरकत करने और प्रताड़ित करने से रोक दिया। लेकिन आप प्यार पर ही पहरा बिठा देंगे। हुस्न का दीदार बंद करा देंगे? यह कहां का जहांगीरी इंसाफ है, भई! मेरे एक मित्र सीएम साहब के खास हैं। कल बता रहे थे कि मुख्यमंत्री जी जल्दी ही एंटी हसबैंड स्क्वाड बनने वाले हैं। पति छेड़छाड़ निरोधक अधिनियम पारित होने वाला है। अब पति अपनी बीवियों से चुहुल नहीं कर पाएंगे, उन्हें घूर नहीं पाएंगे।
पार्क और रेस्त्रां तो छोड़ो, घर में भी पति अपनी घरैतिन से छेड़छाड़ नहीं कर सकेगा। हर पति को थाने जाकर शपथपत्र पर दस्तखत करके थानेदार के समक्ष शपथ लेनी होगी कि मैं फलां वल्द फलां शपथ लेता हूं कि आज से मैं अपनी बीवी से न चुहुल करूंगा, न उसे छेडूंगा। साली, सलहजों, भाभियों को बहन-बेटी के समान मानते हुए न तो उनसे किसी किस्म का मजाक करूंगा, न उनके मजाक का जवाब दूंगा। पूर्व में जिन रिश्तों के तहत छेड़छाड़, चुहुलबाजी, हंसी-मजाक के विशेषाधिकार पुरुषों को प्राप्त थे, उन्हें मैं स्वेच्छा से त्याग रहा हूं। मैं यह भी शपथ लेता हूं कि यदि बीवी, साली, सलहज, भाभी आदि चुहुल करती हैं, छेड़छाड़ करती हैं, चिकोटी काटती हैं, तो उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करूंगा, प्रतिवाद नहीं करूंगा।’
इतना कहकर मुसद्दी लाल ने गहरी सांस ली। फिर बोले, ‘पंडी जी! आप ही बताएं, यदि ऐसा हो गया, तो क्या होगा?’ मैंने कहा, ‘आप चिंता न करें, मुसद्दी लाल जी। ऐसा कोई अधिनियम पारित हुआ, तो सबसे पहले महिलाएं ही इसके विरोध में सड़कों पर उतरेंगी। छेड़छाड़, चुहुलबाजी, नैन-मटक्का हर इंसान के जीवन में प्रेरक का काम करते हैं। यह मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है, इसे कोई कानून खत्म नहीं कर सकता है। अच्छा बताओ, महिलाएं घर से निकलते समय सजती क्यों हैं? ताकि लोग उन्हें देखें, उनके सौंदर्य को सराहें। अगर ऐसा हुआ, तो अरबों-खरबों रुपये के सौंदर्य प्रसाधन बेकार हो जाएंगे। बाजार चौपट हो जाएगा।’यह सुनते ही मुसद्दी लाल उठे और बिना चाय-पानी पिये अपने घर चले गए।