Sunday, May 11, 2025

अहिंसा परमो धर्म: हमारी नीति , पर शठे शाठ्यम समाचरेत भी

अशोक मिश्र

पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 12 हजार करोड़ डॉलर का कर्ज हथियाने में कामयाब हो ही गया। दुनिया जानती है कि जिस क्लाइमेट रेजिलिएंस लोन प्रोग्राम के तहत पाकिस्तान को यह नया लोन दिया जा रहा है, वह प्रोग्राम कभी धरातल पर उतरेगा ही नहीं। इसमें से ज्यादातर पैसा उन संगठनों पर खर्च किया जाएगा जिनके पांच प्रमुख कर्ताधर्ताओं को नौ मई को भारत एक ही झटके में निपटा चुका है। जिनके जनाने में पाकिस्तान की मिलिट्री के बड़े-बड़े अधिकारी शामिल हुए और शरीफ सरकार ने बड़ी शराफत के साथ शोक जताया। इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड के कार्यकारी बोर्ड की बैठक भारत ने पाकिस्तान को नया फंड देने का भरपूर विरोध किया, लेकिन भारत का पक्ष सुना नहीं गया। आईएमएफ बोर्ड में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे परमेश्वरन अय्यर ने पाकिस्तान को दिए जाने वाले 1.3 बिलियन डॉलर के ऋणों पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि इस पर दोबारा विचार किया जाए। पाकिस्तान को मिलने वाला पैसा आतंक को बढ़ावा देने में इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन आईएमएफ ने भारत के अनुरोध को मानने से इनकार कर दिया था।

आईएमएफ बोर्ड में देश पाक को लोन मिलने का विरोध कर सकते थे, उन्होंने जानबूझकर चुप रहना और समर्थन देना जरूरी समझा। इसमें उनका क्या हित था, इसकी समीक्षा जरूरी है। 

भारत की यह आशंका बिल्कुल सही है कि इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड से मिलने वाले लोन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया जाएगा। आतंकवाद की नर्सरी में नए-नए
आतंकी तैयार किए जाएंगे, फिर उनके दिमाग में जेहाद का कचरा भरा जाएगा और उन्हें येन केन प्रकारेण भारत की सरजमीं पर भेज दिया जाएगा। वह यहां आकर या तो फौज की गोलियों का निशाना बनेंगे या फिर किसी अमानवीय घटना को अंजाम देते हुए मारे जाएंगे। उन आतंकियों का अंतिम परिणाम निश्चित है। इसके बावजूद पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आता है।

हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या दूसरे बड़े नेता जब भी किसी देश में जाते हैं, तो उस देश की सरकार बड़े गर्व से कहती है कि अमुक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राजनेता महात्मा बुद्ध के देश से आए हैं। बुद्ध पूरी दुनिया में सबसे बड़े ब्रांड आज भी हैं। दुनिया के कई देशों में बौद्ध राष्ट्रीय धर्म के रूप में प्रचलित है। भारत में भले ही बौद्ध कम संख्या में रह गए हों, लेकिन कई देशों महात्मा बुद्ध को भगवान के रूप में पूजने वाले कम नहीं हैं। ढाई हजार साल बाद भी महात्मा बुद्ध के सत्य, अहिंसा और मानव प्रेम की तूती पूरी दुनिया में बजती है। पूरी दुनिया महात्मा बुद्ध के आगे झुकती है। महात्मा बुद्ध ने शाक्यों और कोलियों के बीच रोहिणी नदी के जल बंटवारे को लेकर पैदा हुए विवाद के चलते अपना घर त्याग दिया था। 

दरअसल, कोलिय और शाक्य दोनों उनके अपने थे। दोनों में आपस में रिश्तेदारी भी थी, लेकिन खेतों की सिंचाई और पेयजल के लिए दोनों समुदायों को रोहिणी नदी के पानी की ज्यादा से ज्यादा जरूरत थी और इसी बात को लेकर दोनों राज्यों में आपस युद्ध होता रहता था। महात्मा बुद्ध ने युद्ध रोकने का प्रयास किया और युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दिया। गणराज्य के नियमों के मुताबिक उन्हें गणराज्य के नियम भंग के अपराध में उनके परिवार को फांसी दी जा सकती थी, संपत्ति जब्त की जा सकती थी या देश निकाला दिया जा सकता था। 

राजपुत्र होने के नाते वह चाहते तो सजा से बच सकते थे, लेकिन उन्होंने घर त्याग का विकल्प चुना। उसके बाद रोहिणी नदी का बंटवारा वैसे ही हुआ जैसा बुद्ध चाहते थे। हमारा देश महात्मा बुद्ध को पूजता है। अहिंसा हमारा परम धर्म है, लेकिन पिछले तीन-चार दिन में पूरी दुनिया को बता दिया कि हम शठे साठ्यम समाचरेत की नीति का भी पालन करते हैं। भारत ने सदियों से लेकर आज तक किसी दूसरे देश पर आक्रमण नहीं किया।लेकिन जिसने भी आंख दिखाने की कोशिश की उसकी आंख फोड़ने में भी तनिक भी संकोच नहीं हुआ। हालांकि भारत-पाक में सीजफायर की अभी-अभी खबर आई है।

रूप को अच्छा माना जाए या गुण को

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चाणक्य के कई नाम बताए जाते हैं। उनमें से कौटिल्य और विष्णुगुप्त काफी प्रचलित है। यह भी माना जाता है कि चणक के पुत्र होने की वजह से चाणक्य नाम को काफी ख्याति मिली। कहा तो यह भी जाता है कि उन्होंने महाप्रतापी नंद वंश का नाश किया था। 

चाणक्य ने ही अजापाल यानी भेड़बकरियां चराने वाले चंद्रगुप्त मौर्य को प्रजापाल यानी कि राजा बनाया था। चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसमें राजनीति, अर्थ, समाज, कृषि और शासन व्यवस्था आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। चाणक्य अपने समय के किंग मेकर थे। वह चाहते थे तो खुद राजा बन सकते थे, लेकिन उन्होंने समाज के सबसे निचले पायदान पर आने वाले चंद्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। उन्होंने प्रधानमंत्री का पद भी बड़ी मुश्किल से स्वीकार किया था। 

वह नगर के बाहर एक कुटिया में रहते थे। एक बार चंद्रगुप्त अपनी पत्नी के साथ चंद्रगुप्त की कुटिया पर पहुंचे। उन्होंने चाणक्य से कहा कि यह बताइए, रूप और गुण में से किसको चुनना चाहिए। रूप को अच्छा माना जाए या गुण को? यह सुनकर चाणक्य मुस्कुराए और बोले, महाराज! मैं आपको दो गिलास पानी देता हूं। इसे पीकर बताइए कि कौन सा पानी अच्छा और मीठा लगा आपको। 

इसके बाद उन्होंने सोने के घड़े से एक गिलास पानी निकाला और दूसरे गिलास में काली मिट्टी से बने घड़े से पानी निकाला। चंद्रगुप्त ने दोनों गिलासों का पानी पिया और बोले, काली मिट्टी वाले घड़े का पानी मीठा और ठंडा था। सोने के घड़े वाला पानी कोई खास नहीं था। यह सुनकर महारानी ने कहा कि प्रधानमंत्री जी ने आपकी बात का जवाब दे दिया है। रूप की जगह गुण ही देखना चाहिए। काली मिट्टी से बना घड़ा उतना सुंदर नहीं है जितना सोने से बना घड़ा सुंदर है, लेकिन काली मिट्टी के घड़े का पानी मीठा और ठंडा है। यह सुनकर सम्राट चंद्रगुप्त चुप रह गए।

Saturday, May 10, 2025

सिवाय पीड़ा के युद्ध से हासिल कुछ नहीं होता

अशोक मिश्र

भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले तीन दिनों से जारी युद्ध को लेकर बहुत सारी बातें कही जा रही है। युद्ध कोई बच्चों का खेल नहीं है। युद्ध के दौरान खून बहता है, जानें जाती हैं, संपत्ति तबाह हो जाती है। और जब युद्ध खत्म होता है, तो उपलब्धि के नाम पर मिलते हैं, टूटे फूटे घर, तबाह कर दिए गए खेत, सैनिकों की विधवाओं की चीखें, अनाथ हुए बच्चों की कराहें, मारे गए नागरिकों के शोक संतप्त परिवार और विजेता होने के दंभ से हंसती खिलखिलाती सत्ता। सच कहा जाए, तो केवल विजयी होने के भाव के अलावा युद्ध से हासिल कुछ नहीं होता है।
प्राचीनकाल में जब युद्ध होते थे, तो उसके लिए राजा-महाराजा की कामुकता या राज्य विस्तार की लालसा जिम्मेदार होती थी। एक राजा अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हजारों सैनिकों की बलि चढ़ा देता था। दोनों ओर के हजारों सैनिक मारे जाते थे। लेकिन आज युद्ध के न केवल मायने बदल गए हैं, बल्कि उसमें बाजार का हस्तक्षेप भी बढ़ गया है। यह बात सौ फीसदी सही है कि पाकिस्तान ने भारत के सिर पर युद्ध थोप दिया है।
पिछले कई सालों से युद्ध को टालते आ रहे भारत को मजबूर कर दिया गया है कि वह अपना हथियार उठाकर युद्ध के मैदान में आ खड़ा हो। इतने से भी अगर पाकिस्तान की बुद्धि के दरवाजे खुल जाएं, तो बेहतर है। वैसे जब भारत के सिर पर युद्ध थोप ही दिया गया है, तो उसे ठीक से निपटा देना चाहिए, ताकि भविष्य में वह अपने देश से घुसपैठिए या आतंकवादियों को भेजने की जुर्रत न कर सके। वैसे भी पिछले तीन दिनों में भारत ने जो सबक सिखाया है, पाकिस्तान को हमेशा याद रखना चाहिए। जरूरत पड़ी तो यह पाठ आगे भी दोहराया जाता रहेगा। सन 1971 की मार वह भूल गया है। यही वजह है कि वह पिछले कुछ वर्षों से नापाक हरकतें करता चला आ रहा है।
भारतीय सेना की वीरता और साहस का मुरीद हर भारतवासी है। दुनिया की किसी भी सेना का मुकाबला करने की हिम्मत और क्षमता हमारी सेना में है।भारतीय सेना बेजोड़ है। इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि युद्ध अच्छे होते हैं। युद्ध हमेशा बुरे थे और भविष्य में भी बुरे ही रहेेंगे। पहले और अब के युद्ध में अंतर सिर्फ इतना है कि सामंती युग में राजा की इच्छा से युद्ध होते थे, वर्तमान युग में बाजार देशों को मजबूर कर देता है कि वह एक दूसरे से युद्ध करें। इन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे युद्ध की बात करें, तो जिन आतंकियों ने हमारे देश के 26 निर्दोष नागरिकों की निर्मम हत्या की, उन आतंकियों को पाल-पोस कौन रहा है। स्वाभाविक है कि पाकिस्तान का ही नाम लिया जाएगा, जो बिल्कुल सच भी है। लेकिन पाकिस्तान को इन आतंकियों को पालने-पोसने के लिए धन कौन मुहैया करा रहा था।
कंगाल पाकिस्तान इन आतंकियों को हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराने के लिए धन कहां से पा रहा था? यह वही देश हैं जो आज पूरी दुनिया के चौधरी बने घूम रहे हैं।
कह रहे हैं कि हमें भारत-पाकिस्तान युद्ध से क्या लेना-देना है। यह दुनिया के धनी और अपने को चौधरी कहने वाले देशों की ही करामात है कि एक तरफ तो वह आतंकियों को पैदा करते हैं, उनको चोरी-छिपे धन मुहैया कराते हैं। फिर इन आतंकियों और इनसे प्रभावित होने वाले देशों को अपना हथियार बेचते हैं। अगर पूरी दुनिया में शांति स्थापित हो जाए, आतंकवाद खत्म हो जाए, तो चीन, अमेरिका, रूस, जर्मनी, फ्रांस आदि देशों की फैक्ट्रियों में उत्पादित ड्रोन्स, मिसाइलों और किस्म-किस्म के लड़ाकू विमानों को कौन पूछेगा।

अपने यहां कबाड़ हो चुके हथियारों को महंगे दामों पर वह भारत, पाकिस्तान, नेपाल, अफ्रीकी देश और अविकसित देशों को बेचकर अपना रोकड़ा टेंट में रखकर दुनिया को शांति का उपदेश देते हैं। युद्ध इन हथियारों के व्यापारी देशों के लिए बड़े फायदेमंद साबित होते हैं। युद्ध के नाम पर इनका कारोबार चलता रहता है। अगर कहीं कोई देश युद्ध नहीं करना चाहता है, तो ये हथियारों के व्यापारी ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं जिससे मजबूर होकर उस देश को युद्ध में उतरना पड़ता है।

चाफेकर बंधुओं की मां और सिस्टर निवेदिता


बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जब हम चाफेकर बंधु कहते हैं तो उसमें बालकृष्ण हरि चाफेकर, वासुदेव हरि चाफेकर और दामोदर हरि चाफेकर का नाम आता है। यह तीनों भाई क्रांतिकारी थे। इन तीनों भाइयों ने पूना के ब्रिटिश प्लेग कमिश्नर वाल्टर चार्ल्स रैंड की हत्या कर दी थी। असल में उन दिनों पूना में प्लेग फैला हुआ था। प्लेग कमिश्नर महामारी के बहाने हिंदुस्तानियों पर कई तरह से अत्याचार कर रहा था। 

वह हिंदुस्तानियों से बहुत ज्यादा घृणा करता था। उससे पूना की जनता काफी परेशान थी। इसलिए एक दिन चाफेकर बंधुओं ने अपने मित्र महादेव विनायक रानाडे के साथ मिलकर वाल्टर चार्ल्स रैंड और उसके अंगरक्षक आयर्स्ट को गोलियों से भून दिया। आयर्स्ट तो वहीं मारा गया, लेकिन तीन दिन बाद रैंड भी मर गया। इस अपराध के लिए तीनों चाफेकर भाइयों और महादेव विनायक रानाडे को फांसी पर लटका दिया गया। 

इस घटना के बाद पूरे देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों में सहानुभूति पैदा हो गई। स्वामी विवेकानंद के निर्देश पर उनकी शिष्या सिस्टर निवेदिता शहीदों की मां को सांत्वना देने के लिए उनके घर गईं। सिस्टर निवेदिता ने सोचा था कि उनके घर में शोक का वातावरण होगा। 

शहीद की मां शोकाकुल होंगी क्योंकि उनके तीनों पुत्रों को फांसी दे दी गई है। अब उनके बुढ़ापे का सहारा कौन होगा। लेकिन जब शहीदों के घर पर पहुंची, तो उनकी मां ने दरवाजे पर हाथ जोड़कर स्वागत कियाा। यह देखकर निवेदिता की आंखों में आंसू आ गए। उनकी आंखों में आंसू देखकर मां ने कहा कि आपने तो मोह माया को त्याग दिया है, फिर यह आंसू क्यों? मुझे गर्व है कि मेरे बेटे शहीद हो गए। 

अफसोस सिर्फ इस बात का है कि देश पर चढ़ाने के लिए एक और बेटा नहीं है। यह सुनकर निवेदिता अपने को रोक नहीं पाईं और उन्होंने रुंधे गले से यही कहा कि जिस देश में आप जैसी मां होगी, उस देश का कोई बाल बांका नहीं कर सकता है।

Friday, May 9, 2025

दमित्री मेंडेलीव ने पूरा किया मां का सपना

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

तत्वों के भौतिक और रासायनिक गुणों के आधार पर आवर्त सारिणी बनाने वाले रूसी रसायनज्ञ दमित्री इवानोविच मेंडेलीव ने अपने बचपन में काफी संघर्ष किया। मेंडेलीव का जन्म साइबेरिया के टोबोल्स्क में 8 फरवरी 1834 में हुआ था। यह अपने माता-पिता के 14 जीवित बच्चों में से अंतिम थे। जब मेंडेलीव छोटे ही थे, तभी इनके पिता किसी कारणवश अंधे हो गए थे, इसके एकाध साल बाद उनकी मृत्यु भी हो गई।

उन दिनों उनकी मां मारिया मेंडेलीव ने अपनी कांच की छोटी सी फैक्ट्री को संभाला और अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दिया। जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि यदि बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है, तो उन्हें साइबेरिया को छोड़ना होगा। उन्हीं दिनों कांच की फैक्ट्री में आग भी लग गई। इसलिए उन्होंने कांच की फैक्ट्री को बेच दिया और सेंट पीटसबर्ग आ गईं। 

दमित्री पढ़ने में काफी तेज थे, लेकिन आर्थिक स्थिति खराब होने की वजह से किसी अच्छे स्कूल में वह पढ़ नहीं पा रहे थे। दमित्री और उनके सभी भाइयों को सेंट पीटसबर्ग में अच्छे स्कूलों में उनकी मां मारिया मेंडेलीव ने भर्ती करा दिया। लेकिन बदकिस्मती ने यहां भी दमित्री का साथ नहीं छोड़ा। कुछ साल बाद उनकी मां का भी देहांत हो गया। दमित्री बहुत दुखी हुए। 

दुनिया में मां ही सबसे बड़ा सहारा थी। लेकिन समय सारे घावों को भर देता है। दमित्री ने भी मां की कही हुई बातों को याद किया। उनकी मां कहा करती थी कि मैंने तुम्हारे लिए अपनी सारी संपत्ति सिर्फ इसलिए स्वाहा कर दी ताकि तुम दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति ज्ञान हासिल कर सको। इसके बाद दमित्री ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की। धीरे-धीरे वह रूस का ही नहीं, दुनिया के सबसे बड़े रसायनज्ञ बन गए। 

उनकी बनाई तत्वों की आवर्त सारिणी आज भी रसायन विज्ञान पढ़ने वालों का मार्ग दर्शन करती है। उन्होंने अपनी मां का हर सपना पूरा करके ही दम लिया।

Thursday, May 8, 2025

कबीर की तरह खरी बात कहते थे संत दादू

 बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

संत दादू दयाल को राजस्थान का कबीरदास कहा जाता है। वह कबीरदास के पुत्र कमाल की भक्ति परंपरा में माने जाते हैं। संत दादू का जन्म 1544 को गुजरात के अहमदाबाद में हुआ था, लेकिन इनकी कर्मभूमि राजस्थान ही रही। कबीरदास की तरह खरी बात करना, इनका स्वभाव था। संत दादू और कबीरदास के जन्म की कथा में भी साम्यता पाई जाती है। 

कहते हैं कि लोदीराम नगर में एक नागर ब्राह्मण को नदी में बहता हुआ एक बच्चा मिला। वह ब्राह्मण पुत्र विहीन था। वह उसे अपने घर ले आया और बेटे की तरह पालन पोषण किया। बारह साल की उम्र में वह घर छोड़कर संन्यासी होना चाहते थे तो उनके मां-बाप ने संत दादू दयाल की शादी करा दी। आखिर सात साल के बाद वह घर छोड़कर संन्यासी हो ही गए। धीरे-धीरे उनकी ख्याति पूरे राजस्थान में फैल गई। 

लोग उनके शिष्य बनने के लिए दूर-दूर से आने लगे। राजस्थान की किसी रियासत का एक दारोगा भी उनका शिष्य बनना चाहता था। वह दादू दयाल से मिलने के लिए निकला। रास्ते में उसने एक व्यक्ति से पूछा कि संत दादू कहां मिलेंगे। वह आदमी चुप रहा। इस पर दारोगा को गुस्सा आ गया। दारोगा ने उस व्यक्ति को धमकाते हुए दोबारा दादू के बारे में पूछा। फिर भी वह आदमी चुप रहा। 

इस पर उसने उस व्यक्ति से मारपीट की। मारपीट के बाद दारोगा आगे बढ़ गया। थोड़ी दूर जाने पर एक व्यक्ति से उसकी मुलाकात हुई, तो दारोगा ने उससे संत दादू के बारे में पूछा। उस व्यक्ति ने कहा कि मैं भी उनसे मिलने जा रहा हूं। जिधर से तुम आए हो, उसी ओर उनका आश्रम है। कुछ देर बाद दोनों आश्रम पहुंचे। वहां खड़े एक व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए उस आदमी ने कहा कि यही तो हैं संत दादू। 

उस आदमी को देखकर दारोगा बड़ा शर्मिंदा हुआ क्योंकि थोड़ी देर पहले उसने इन्हें ही पीटा था। उन्हें देखकर दारोगा संत दादू के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा मांगी।



Wednesday, May 7, 2025

हम अभी तक नहीं उतार पाए जातीय उच्चता की गुदड़ी

अशोक मिश्र

केंद्र सरकार ने जाति जनगणना कराने की स्वीकृति दे दी है। केंद्र सरकार के इस फैसले का विपक्षी दलों ने स्वागत किया है। जाति जनगणना कब होगी और इसका प्रारूप क्या होगा? इस बारे में विचार किया जाएगा। जाति जनगणना के बाद आने वाली रिपोर्ट को किस तरह लागू किया जाएगा? यह भी अभी अंधेरे में है। मोटे तौर पर यही कहा जा रहा है कि जिन जातियों की जैसी भागीदारी होगी, उसी हिसाब से उनके कार्यक्षेत्र में हिस्सेदारी दी जाएगी। लेकिन इस संबंध में एक आशंका है। जब सभी जातियों के लोगों की गिनती हो जाएगी, जातियों में भी उपजातियों का वर्गीकरण हो जाएगा, तो सभी जातियां अपनी संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी मांगेंगी, उस समय क्या हालात होंगे? क्या ऐसी स्थिति में जातीयता का जहर और गाढ़ा नहीं हो जाएगा?

वैसे भी राजनीतिक दलों ने अपनी करनी से देश में जातीयता और धार्मिकता का जहर घोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसकी एक बानगी सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत ने पंजाब के एडिशनल सेशन जज प्रेम कुमार के मामले में सुनवाई के दौरान समाज के सामने पेश कर दी है। सुप्रीमकोर्ट ने जज प्रेम कुमार के मामले की सुनवाई करते हुए ओपन कोर्ट में कहा कि उपेक्षित समुदाय वाला अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर जज बना, तो ऊंचे समुदाय वालों से बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने षड्यंत्र रचकर उपेक्षित समुदाय के प्रेम कुमार की ईमानदारी को ही संदिग्ध करवा दिया और उन्हें बर्खास्त करवा दिया गया। दरअसल, सुप्रीमकोर्ट की यह टिप्पणी समाज के सामने एक सवाल बनकर खड़ी है कि जब समाज में सबसे सम्मानित और विश्वनीय पद पर बैठे प्रेम कुमार की ईमानदारी और निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगाकर उन्हें न्यायिक सिस्टम से हटाने की कोशिश की जा सकती है, ऐसी स्थिति में समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को यह व्यवस्था कैसे न्याय दिला पाएगी? कैसे उन्हें उनकी भागीदारी के हिसाब से सिस्टम में समाहित किया जा सकेगा।

बता दें कि सेशन जज प्रेम कुमार के पिता मोची का काम करते थे और उनकी मां मजदूरी करके परिवार के भरण पोषण में सहायता करती थीं। समाज में मोची का काम करने वाले व्यक्ति को कितना सम्मान मिलता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। अपनी मेहनत, लगन और समाज में कुछ बनकर दिखाने की लालसा ने उन्हें जज बना दिया, लेकिन यह बात पढ़े-लिखे और ऊंचे समुदाय के लोगों को यह रास नहीं आया कि उपेक्षित समुदाय का व्यक्ति उनके बराबार बैठे, उनकी ही तरह सम्मान पाए। ऐसा हर तरह के न्यायालय में होता है, कार्यपालिका या विधायिका में होता है, यह नहीं कहा जा सकता है। कार्य जगत के हर क्षेत्र में ऐसी प्रवृत्ति के लोग मौजूद हैं, ऐसा कहना भी गलत होगा। अच्छे और बुरे लोग समाज के हर क्षेत्र, हर समुदाय और हर समूह में मिल जाएंगे। कुछ लोगों के आचरण और व्यवहार के आधार पर सबको अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता है।

लेकिन व्यावहारिक जीवन में जातीयता का दंभ गाहे-बगाहे दिख ही जाता है। कहीं कोई किसी आदिवासी के सिर पर पेशाब कर जाता है, तो कहीं निचली जाति के दूल्हे की बारात को अपने घर के सामने से पैदल जाने पर मजबूर कर दिया जाता है। समाज के सबसे निचले तबके की लड़कियों के साथ छेड़खानी, दुराचार करने वाला ऊंचे समुदाय का व्यक्ति खुलेआम घूमता है और कई बार दंड से भी बच जाता है।

सच तो यह है कि हम अभी जातीय उच्चता की भावना से मुक्त नहीं हो पाए हैं। शहरों में भले ही उच्चता की भावना कम दिखाई देती हो, लेकिन गांवों में यह भावना अक्सर लड़ाई झगड़ों के दौरान दिखाई दे जाती है। यह भी सही है कि कानून के भय ने लोगों को समान व्यवहार करने पर मजबूर कर दिया है, लेकिन दिल में यह भावना कहीं न कहीं दबी रह गई है जो समय-समय पर सामने आ ही जाती है। ऐसी स्थिति में जाति जनगणना के क्या परिणाम होंगे, कह पाना मुश्किल है।

संत बोला, मैं मालिक हूं कोई मुझे खरीदेगा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों का गुलाम नहीं होता है, अपनी कामनाओं को काबू में रखता है, उसे विषय भोग की इच्छा नहीं रहती है, वह पूरी तरह मस्त और परम स्वतंत्र होता है। वह न तो किसी का दास होता है और न ही किसी का मालिक। वह स्वयं अपना मालिक होता है। उसे कोई दास भी नहीं बना सकता है। एक बार की बात है। अरब देश में एक संत रहता था। वह अपने में ही मस्त रहता था। 

जो कोई उससे राय मशविरा करने आता, तो वह जो भी उचित होता, वह बता देता। लोग उसके पास खाने-पीने को रख जाते, वह उसी में संतुष्ट रहता था। जरूरत पड़ने पर वह हर किसी की मदद करता था। इस वजह से लोग भी उसे बहुत मानते थे। एक दिन वह कहीं जा रहा था। रेगिस्तानी इलाके में संत को मस्ती से गाते-झूमते देखकर लोगों को गुलाम बनाकर बेचने वाले गिरोह ने सोचा कि यह तो बड़ा हट्टा कट्टा है। यदि उसे पकड़कर बाजार में बेचा जाए, तो इसकी अच्छी कीमत मिलेगी। 

थोड़ी दूर जाने के बाद गिरोह के लोगों ने संत को घेर लिया। संत ने कोई विरोध नहीं किया। उसे अच्छी तरह से बांध दिया गया। उसने कोई विरोध नहीं किया। गिरोह के लोग उसे लेकर बाजार में गए, तब भी वह मस्ती से गुनगुना रहा था। गिरोह के लोग आश्चर्य में थे कि यह कैसा आदमी है, जो विरोध नहीं कर रहा है। गिरोह के मुखिया ने जोरदार आवाज लगाई-एक हट्टा कट्टा गुलाम है, कोई खरीदेगा। 

यह सुनकर संत ने उससे भी जोरदार आवाज में कहा, मैं अपनी इंद्रियों को गुलाम बना चुका हूं। मैं मालिक हूं। कोई मालिक खरीदेगा। यह सुनकर बाजार में आए हुए लोग समझ गए कि यह कोई बड़ा ज्ञानी पुरुष है। लोगों ने गिरोह के आदमियों को घेर लिया और मारने-पीटने लगे। संत ने उन्हें अलग किया और उन्हें जाने देने को कहा। यह सुनकर गिरोह को अपनी गलती का पता चला। उन्होंने संत से माफी मांगी और कभी ऐसा न करने का वायदा किया।

Tuesday, May 6, 2025

उपन्यास सौ साल का एकांत को मिला नोबेल

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

गेब्रियल गार्सिया मार्केस को वन हंड्रेड इयर ऑफ सॉलीट्यूड के लिए साहित्य का नोबल पुरस्कार दिया गया था। इस किताब को लिखने में उन्हें डेढ़ साल लगा था। पुस्तक जब तक पूरी नहीं हो गई, तब तक वह एक ही कमरे में रहे और उपन्यास पूरा होने के बाद ही वह बाहर आए। डेढ़ साल तक उनकी पत्नी मर्सिडीज सारा घर संभालती रहीं। गार्सिया का जन्म 6 मार्च 1927 को कोलंबिया में हुआ था। 

गार्सिया और उनकी पत्नी की प्रेम कहानी भी बड़ी रोचक है। गार्सिया को मर्सिडीज से तब प्यार हो गया था, जब वह खुद बारह साल के थे और उनकी पत्नी नौ साल की थीं। जब उन्हें एक विदेशी संवाददाता के रूप में यूरोप भेजा गया, तो मर्सिडीज ने उनके बैरेंक्विला लौटने का इंतजार किया।  लेकिन उन्होंने मर्सिडीज से शादी 31 साल की उम्र में की थी।  

उनका प्रथम कहानी-संग्रह लीफ स्टार्म एंड अदर स्टोरीज 1955 में प्रकाशित नो वन नाइट्, टु द कर्नल एंड अदर स्टोरीज और आइज आॅफ ए डॉग श्रेष्ठ कहानी संग्रह है। गार्सिया मार्केज ने कोलंबिया के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करते हुए एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू किया। गार्सिया मार्केज जीवन भर एक प्रतिबद्ध वामपंथी रहे, जो समाजवादी मान्यताओं का पालन करते रहे। 

1991 में, उन्होंने चेंजिंग द हिस्ट्री ऑफ अफ्रीका प्रकाशित किया, जो अंगोलन गृह युद्ध और बड़े दक्षिण अफ्रीकी सीमा युद्ध में क्यूबा की गतिविधियों का एक सराहनीय अध्ययन था। उन्होंने फिदेल कास्त्रो के साथ घनिष्ठ मित्रता बनाए रखी। कई बातों में असहमत होने पर उन्होंने कास्त्रों की आलोचना की। महान साहित्यकार गार्सिया मार्केज का 17 अप्रैल 2014 को 87 वर्ष की आयु में मेक्सिको सिटी में निमोनिया से निधन हो गया।

Monday, May 5, 2025

पाणिनि पर आचार्य उपवर्ष को हुआ गर्व

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं पाणिनि। कहते हैं कि इनका जन्म गांधार के शलातुर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनी जब बड़े हुए तो उन्होंने उपवर्ष के गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण की। माना जाता है कि पाणिनि ने ही संस्कृत भाषा के व्याकरण को सूत्रबद्ध किया और उसे एक नई दिशा दी। 

पाणिनि की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और चार हजार सूत्र हैं। इस पुस्तक में व्याकरण के अलावा तत्कालीन समाज का भी परिचय मिलता है। अष्टाध्यायी में समाज, भूगोल, पाक शास्त्र और राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में भी जानकारी मिलती है। पाणिनि के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है। कहते हैं कि एक दिन गुरुकुल के आचार्य उपवर्ष ने उन्हें कुछ याद करने को दिया। 

उन्हें पाठ याद नहीं हुआ। दूसरे दिन जब उपवर्ष ने पाणिनि से पाठ के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि गुरुजी, काफी प्रयास करने के बाद भी पाठ याद नहीं हुआ। तब उपवर्ष ने सजा देने के लिए उनसे हाथ फैलाने को कहा। जब उपवर्ष ने उनकी हथेली पर निगाह दौड़ाई तो उन्होंने सजा नहीं दी। पाणिनि ने दूसरे दिन पाठ याद करके सुना दिया। तब पाणिनि ने आचार्य से पूछा कि आपने उस दिन मुझे सजा क्यों नहीं दी? 

तब उपवर्ष बोले कि मैंने तुम्हारी हथेलियों को देखकर जान लिया था कि तुम्हारे हाथ में विद्या की रेखा है ही नहीं। तुम आगे भी नहीं पढ़ पाओगे। यह सुनकर पाणिनि ने पास में पड़ा पत्थर उठाया और हथेली पर गहरी रेखा बनाते हुए कहा कि गुरु जी, अब तो बन गई विद्या की रेखा। उसके बाद पाणिनि ने लगन से विद्या हासिल करनी शुरू की। एक दिन ऐसा आया जब उपवर्ष को अपने शिष्य पाणिनि पर गर्व हुआ।